जरुरी सूचना

आप सभी का मंथन पत्रिका के इन्टरनेट संस्करण पर स्वागत है ।

Free Website Templates

Tuesday, October 2, 2012

सूचना - दूरदर्शन पर श्री विष्णु प्रभाकर सम्बन्धी गोष्ठी की रिपोर्ट

महोदय,
विष्णु प्रभाकर मीरापुर मुज्ज्फ्फर नगर के मूल निवासी थे उनके १०० वर्ष पूर्ण होने पर सम्पन्न हुए कार्यक्रम की सूचना प्रकाशित करने की कृपा करें, जिससे लोगों को इस कार्यक्रम की सूचना मिल सके. 
सूचना - दूरदर्शन पर श्री विष्णु प्रभाकर सम्बन्धी गोष्ठी की रिपोर्ट हिंदी विभाग द्वारा दिनांक १३ सितम्बर २०१२ को श्री विष्णु प्रभाकर के १०० वर्ष पूर्ण होने पर गोष्ठी आयोजित की गई थी. इस गोष्ठी की रेकॉर्डिंग दूरदर्शन के नेशनल चेनल द्वारा पत्रिका कार्यक्रम के लिए की गई थी. इस कार्यक्रम का प्रसारण दूरदर्शन के नेशनल चेनल द्वारा इसे साहित्यिक पत्रिका कार्यक्रम के अंतर्गत कल ३ अक्टूबर को सायं ०६ बजे किया जाएगा. उल्लेखनीय है कि इस कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति श्री वी. सी. गोयल , इजरायल के तेल अबीब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गेनादी स्लाम्पोर, वरिष्ठ साहित्यकार श्री से.रा.यात्री,श्री पंकज बिष्ट, श्री बलदेव बंशी, श्री वेद प्रकाश वटुक, श्री अतुल प्रभाकर, श्री जीतेन्द्र श्रीवास्तव, श्री अनिल जोशी, श्री सुरेन्द्र विक्रम, सुश्री अनीता नवीन, सुश्री निशा निशांत, श्री सूरजपाल शर्मा सहित अनेक साहित्यकारों, शिक्षकों, शोधार्थियों, विद्यार्थियों, एवं विष्णु प्रभाकर के पाठकों ने भाग लिया. कार्यक्रम का आयोजन विभाग के अध्यक्ष प्रोफ. नवीन चन्द्र लोहनी, एवं सञ्चालन डॉ सीमा शर्मा, डॉ, गजेन्द्र सिंह एवं श्री ललित सारस्वत ने किया था. इस अवसर पर श्री संकल्प जोशी द्वारा उनकी कहानी "" धरती अब भी घूम रही है" की प्रभावपूर्ण प्रस्तुति की गई थी....

Friday, September 14, 2012

अब तो सपने में भी हिन्दी में बातें करने लगा हूँ : गेनाडी स्लाम्पोर

 हिन्दी विभाग, चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में हिन्दी दिवस समारोह 2012 के दुसरे दिन आज विभाग में आशुभाषण प्रतियोगिता एवं स्वरचित कविता प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। 
आशुभाषण प्रतियोगिता                                स्वरचित कविता प्रतियोगिता  


प्रथम पुरस्कार - मिलिन्द गौतम पवन भारती
द्वितीय पुरस्कार - विकास तोमर मिलिन्द गौतम
तृतीय पुरस्कार - पिन्टु         कु0 संध्या पोसवाल एवं वसीम
सांत्वना पुरस्कार - कु0 संध्या पोसवाल कु0 प्रगति
सांत्वना पुरस्कार - ब्रह्म सिंह सागर कु0 कविता
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए इजराइल से आए गेनाडी स्लाम्पोर ने कहा कि पिछले कुछ दिनों में मैंने इतनी हिन्दी सुनी है जितनी हिन्दी मैं अपने देश में पूरे साल में नहीं सुन पाता। अब तो सपने में भी हिन्दी में बातें करने लगा हूँ। उन्होंने कहा कि विचारों को प्रकट करने की क्षमता हमें बुद्विजीवियों की श्रेणी में खड़ा करती है और हिन्दी विभाग में आयोजित प्रतियोगिताओं के संबंध में उन्होंने कहा कि इस प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन वह अपने देश में भी जल्द ही शुरू करंेगे। अतः में उन्होंने अपनी रूसी कविता का हिन्दी अनुवाद हिन्दी विभाग के छात्र-छात्राओं से साझा किया -क्या सुहाना ये संसार है, इस संसार में सदा प्यार रहे।

ईश्वर ने बनाया यह संसार, और मनुष्य को मिला यह उपहार।
जो हुआ था उसकी जयकार, जो होने वाला है उसकी भी जयकार।
इस अवसर पर मेरठ के वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि डाॅ0 किशन स्वरूप ने कहा कि कविता लय है संगीत है। भावों की अभिव्यक्ति यदि लयबद्ध हो तो वह कविता बन जाती है। शब्दों के भावों की कोई सीमा नहीं होती। आज के परिपेक्ष्य पर अपनी एक गज़ल सुनाई -
बड़ा वो है जो छोटे को बड़ा होने का मौका दे,
किसी सागर मंे जाकर कोई दरिया नहीं रहता,
सियासत में जिसे देखो वो सच ...... सच नहीं कहता
जिसे कुर्सी मिली फिर वो झूठा नहीं रहता
कार्यक्रम में उपस्थित कवियत्री सुश्री स्नेह लता गुप्ता जी ने कहा कि 
शब्द कोश मेरा विशाल है,
कद काठी में नहीं किसी से छोटी
साल के तीन सौ चैंसठ दिन 
अंग्रेजी का होता गुण गान
मुझे तो एक दिन 
14 सितम्बर को ही मिल पाता सम्मान
कनोहर लाल डिग्री काॅलेज की पूर्व प्राचार्या डाॅ0 अरूणा दुबलिश ने कहा कि हिन्दी का वर्चस्व न कम हुआ है न कभी कम होगा। इस समय विश्व में हिन्दी भाषीयों कि हिस्से दारी लगातार बढ़ी है और एक दिन वह अपना परचम सबसे ऊपर लहराएगी। 
इस अवसर पर हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि हर व्यक्ति अपने लेखन, विचारों और व्यक्तित्व के स्तर से अपनी बात कहता है। आवश्यक है जितना समझे उतना बोले। प्रयास करना और निरंतर प्रयास करना महत्वपूर्ण है। 























कार्यक्रम का संचालन मोनू सिंह ने किया। प्रतियोगिताओं के लिए निर्णायक मण्डल में विवेक सिंह, डाॅ0 प्रियंका तथा डाॅ0 गजेन्द्र ंिसंह रहे। इस अवसर पर डाॅ0 सीमा शर्मा, ममता, अलूपी, आरती, अंजू, ललित कुमार सारस्वत, अमित कुमार, राहुल, कनिका, फिरोज, अनुज, नीलू धामा, मोहिनी, कपिल, संध्या, कविता, कौशल, शिवानी, इमरान, पूजा, प्रगति आदि छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे। 

Thursday, September 13, 2012

राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘विष्णु प्रभाकर व्यक्तित्व और विचारधारा’ : हिन्दी विभाग


चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के हिन्दी विभाग द्वारा हिन्दी दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘विष्णु प्रभाकर व्यक्तित्व और विचारधारा’ का आयोजन किया गया। 
संगोष्ठी से पूर्व माननीय कुलपति जी द्वारा हिन्दी विभाग में संचालित एवं उच्च शिक्षा विभाग द्वारा अनुदानित उत्कृष्ट अध्ययन केन्द्र एवं राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन द्वारा अनुदानित पाण्डुलिपि स्रोत केन्द्र का उद्घाटन किया गया। माननीय कुलपति जी द्वारा केन्द्र में अब तक प्राप्त मूल पाण्डुलिपियों तथा संपादित पाण्डुलिपियों को देखा गया तथा केन्द्र में किए जा रहे कार्यांे की सराहना की। 
राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्कार श्री पंकज बिष्ट द्वारा बीज वक्तव्य दिया गया। उन्होंने कहा कि एक लेखक का समाज के प्रति दायित्व होता है, दूसरी ओर वह आदर्श का काम करता है। ये सभी बातें विष्णु प्रभाकर में हैं। मैंने 25 वर्ष से ज्यादा विष्णु जी के साथ बिताए। हर शाम काॅफी हाउस में बैठते थे। ऐसा बड़ा लेखक होने पर भी मेरी उनसे समानता मित्रता की थी। ऐसा ही उदार व्यक्ति काॅफी हाउस में या सामान्य स्थान पर बैठ सकता है। श्री बिष्ट ने काॅफी हाउस में उनके साथ बिताए कई संस्मरणों को साझा किया। उन्होंने कहा कि मूलतः ये काॅफी हाउस प्रेम उनकी उदारता का प्रमाण था। जितने बेरोजगार आवारा लोग होते थे वे उन्हें भी काॅफी पिलाते थे। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लोगों की मदद करते थे। प्रभाकर जी में आप वे सारे गुण-अच्छाईयाँ देख सकते हैं, जो गांधी आन्दोलन के समय गाँधी जी के मूल्य थे। उनके लेखन में गांधी वादी धार्मिकता, अहिंसकता, उदारता आदि सभी कुछ देखने को मिलता है। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रभाकर जी हमेशा महिलाओं के पक्षधर रहे। वे अपने उपन्यासों में नारी वाद का समर्थन करते हैं। श्री बिष्ट ने कहा कि अपनी मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपने शरीर को दान कर दिया था। इसका सीधा अर्थ था कि वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, उनके परिवार में जाति वाद नहीं था। उन्होंने नई परम्पराओं, नए मूल्यों को समाज में स्थापित किया। हमेशा पंूजीवाद, साम्राज्यवाद का विरोध किया। आवारा मसीहा हिन्दी जगत की अब तक ऐसी पहली रचना है जो गैर हिन्दी भाषी लेखक की पहली जीवनी है। इसके लिए प्रभाकर जी ने कलकत्ता, भागलपुरद्व वर्मा तक जाकर सारे फैक्ट इकट्ठे किए और जीवनी लिखी। हिन्दी जगत में ऐसी जीवनी दूसरी नहीं मिलती है। अतः में उन्होंने प्रभाकर जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि वे हिन्दी के स्तम्भ हैं, उनसे हमें बहुत कुछ सीखना है। 
रूस के मूल निवासी एवं इजराइल में हिन्दी भाषा के अध्यापन के जुड़े प्रो0 गेनाडी स्लाम्पोर ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू की तो मेरा हिन्दी साहित्य से रिश्ता कम होता गया। जिन-जिन संस्थानों में मैंने काम किया वहाँ मेरा काम हिन्दी पढ़ाना था, न कि साहित्य पढ़ाना। वहाँ के पाठ्यक्रम में मैंने हिन्दी कहानी का उद्गम एवं विकास पढ़ाना शुरू किया। उसका अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि हिन्दी कहानी के विकास में जो भी आन्दोलन चले वे सातवें दशक तक चलते रहे। सातवें दशक में जो रचनाकार उभरे उन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य को दिशा दी। विष्णु प्रभाकर ने आवारा मसीहा में लिखा है कि शरत् का सािहत्य से परिचय आँसुओं से हुआ था। मैं नहीं समझता कि साहित्य का काम किसी को कष्ट पहुँचाना है। विष्णु प्रभाकर की मृत्यु तीन साल पहले हुई। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के लेखकोें कोई सीमा नहीं रखी जा सकती है। प्रभाकर जी चार पीढि़यों को जोड़ते हैं। उनकी कृति ‘धरती अब भी घूम रही है’ आज भी प्रासंगिक है। आज के भारत में हिन्दी भाषियों में विष्णु जी के प्रति उदासीनता है। वे ऐसे साहित्यकार हैं जो हिन्दी पट्टी में उत्तर से दक्षिण तक व्याप्त हैं। विष्णु जी कहते थे कि उनके अनेक घर हैं, अनेक परिवार हैं। मैं इजराइल में अपने विद्यार्थियों को विष्णु जी के साहित्य और व्यक्तित्व के बारे में बताऊंगा जिससे उनके घर भी विष्णु जी के घर हो जाएंगे। 
वरिष्ठ साहित्यकार से0रा0 यात्री ने अपने वक्तव्य में सबसे पहले प्रभाकर जी की उपज की स्थिति को व्यक्त करते हुए कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश साहित्य की दृष्टि से शुन्य समझा जाता था। सन् 1911-12 में दो बड़ी प्रतिभाएं शमशेर बहादुर सिंह और विष्णु प्रभाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की धरती पर जन्में। जिस तरह भगीरथ गंगा को धरती पर लाए उसी तरह विष्णु जी ने भी इस धरती पर भी साहित्य को रोपा। वे हिन्दी जगत के पहले ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने हिन्दी की सभी विधाओं में काम किया। जिस तरह मुंशी प्रेमचन्द को उपन्यास सम्राट कहा जाता है, उसी तरह वे संस्मरण सम्राट हैं। पत्रों का जखीरा विष्णु जी के अलावा कहीं नहीं मिलता। यात्री जी ने कहा कि मेरा उनसे साठ वर्ष पुराना संबंध है। अगर आज वे जीवित होते तो मैं उनसे कहता कि मैं भी अब वरिष्ठ हो गया हूँ। उन्होंने विष्णु जी की रचनात्मकता, जीवन दर्शन, लोगों से मिलने के अनेक संस्मरण सुनाए। यात्री जी ने बताया कि आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रभाकर जी को 14 वर्ष लगे। अपने समय से जुड़ने एवं जूझने की उनमें आंतरिक शक्ति थी। अन्त में उन्हांेंने कहा कि इस प्रदेश को बहुविधाओं का साहित्यकार मुजफ्फरनगर क्षेत्र ने दिया यह गर्व का विषय है अगर हम कुछ नहीं बन सकते तो आवारा मसीहा जरूर बने। आवारा मसीहा व्यक्ति की जिन्दगी बदल सकता है। 
विष्णु प्रभाकर जी के सुपुत्र श्री अतुल प्रभाकर ने कहा कि मैं इस क्षेत्र को अपना ही क्षेत्र मानता हूँ मेरे पूर्वज इसी क्षेत्र के थे। मेरठ से हमारे परिवार का गहरा रिश्ता था, मेरे पिता के जन्म की सौवीं सदी मनाकर चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय ने उस रिश्ते को साकार कर दिया है। विष्णु जी पूरे देश को अपना घर मानते थे। हिन्दी भाषा का उद्गम क्षेत्र मेरठ ही है और विष्णु जी को मेरठ से बचपन से ली लगाव था। पूरी उम्र वे हिन्दी की सेवा में लगे रहे। बचपन की पारिवारिक स्थितियों, सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने अपनी डायरियों में अंकित किया है। उनकी पहली कहानी 1931 में लाहौर की पत्रिका में छपी। अतुल जी ने कहा कि विष्णु जी के नाम को आगे बढ़ाने के लिए किसी पुत्र की आवश्यकता नहीं है। विष्णु जी ने अपने घरेलु जीवन में संयम नहीं गवायाँ, अपने ऊपर उन्हें पूर्ण नियंत्रण था। उन्हें क्रोध आता था पर प्रकट उतना ही होता था जितना आवश्यक है। उनमें एकाग्रता थी। चाहे कितना ही शोर मचता रहे, टांजिस्ट्रर चलता रहता था पर लेखन निरंतर चलता रहता था। भावुकता उनके साहित्य में है और वह हर पल, हर क्षण उनके साथ रहती है। स्त्री पक्ष उनके लेखन में है, किसी ने पूछा कि स्त्री की संवेदनाओं के बारे में आप कैसे जानते हैं तो उन्होंने कहा कि मेरी पत्नी भी तो एक स्त्री ही है। वे पुराने के साथ पुराने एवं नए के साथ नए रहते थे। वे किसी से बंधकर नहीं रहे, अपना रास्ता खुद चुना। उन्होंने पत्रों का उत्तर देना अंतिम समय तक नहीं छोड़ा। 
माननीय कुलपति जी ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि जब हम विद्यार्थी थे तो आवारा मसीहा रचना बहुत प्रचलित थी हमें कहा जाता था कि उसे जरूर पढ़े। उस समय आवारा मसीहा, राग दरबारी, मैला आंचल, आधा गाँव रचनाएं खूब प्रचलित रही। चाहे कोई हिन्दी पढ़ता तो या न पढ़ता हो पर उन्हें जरूर पढ़ते थे। कुलपति जी ने कहा कि मेरे अपने विचार जीवन के बारे में प्रभाकर जी से मिलते हैं। ‘मैं जूझूगा अकेला ही’ जैसी उनकी कविताएं जीवन में कठिन संघर्षों से जूझने की प्रेरणाएं देती हैं। ‘मैं चलता चलता चला आ रहा हूँ यह हकीकत के नजदीक है, जिन्दगी में क्या अनश्वर है, ये उनके लिए सही श्रद्वांजलि होगी, मृत्यु से जीवन तक और जीवन से मृत्यु तक। माननीय कुलपति जी ने प्रभाकर जी ने श्रद्धांजलि दी और कहा कि जो प्रभाकर जी ने हमें शिक्षा दी है हम उसका पालन करें। उनकी शिक्षाओं पर चलें।
उद्घाटन सत्र के समापन पर प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सब वक्ताओं को प्रतीक चिह्न देकर सम्मानित किया। 
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में प्रो0 जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि किसी साहित्यकार का जीवन उसके साहित्य से जुड़ा होता है। ‘ऐकला चलो रे’ मुहावरा केवल साहित्यकार पर ही तो नहीं थोपा हुआ। इसे प्रभाकर जी के संबंध में देखें तो उनका कहना था कि कोई साथ आए या न आए - समाज के लिए चलो, राष्ट्र के लिए चलो। प्रभाकर जी आन्दोलनों से कभी नहीं जुड़े। वे ऐसे रचनकार थे जो किसी आलोचक से प्रभावित हुए। उन्होंने वही किया जो उनकी भीतरी विचारधारा कहती थी। रचनकार अपने ही कारणों से बड़ा होता है - आलोचना से बड़ा नहीं होता। प्रभाकर जी ने कहा भी है कि मैं सीध साधा आदमी हूँ और वैसा ही लिखता भी हूँ। जब हम उनकी कहानी-उपन्यास किसी भी विधा पर बात करें तो यह बात ध्यान रखनी चाहिए। जनता से जुड़ने, सादगी आदि बातों में वे प्रेमचन्द की परम्परा के लेखक थे। सादगी-सरलता का अपना सौन्दर्य शास्त्र है। 
लखनऊ से आए डाॅ0 सुरेन्द्र विक्रम ने बताया कि मेरी उनसे मुलाकात 12 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय बाल भारती के एक कार्यक्रम में हुई थी। प्रभाकर जी बाल साहित्य के लेखकीय चिंतक थे। विष्णु जी के चार एंकाकी कक्षा चार, पाँच, छः, सात के लिए चयनित किए गए तो उन्होंने मुझे सहज स्वीकृति प्रदान की। विष्णु जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही सहज। बचपन जीवन का ऐसा आईना होता है जो आगे की दिशा निर्धारित करता है। प्रभाकर जी ने जिस लगन से बाल साहित्य लिखा, तन्मयता से लिखा, वह बेजोड़ है। उनका मानना था कि बच्चों को रोचता की जरूरत है। उनकी महत्वपूर्ण बाल एंकाकी और बाल कहानियाँ है। ‘जादू की गाय’ संग्रह में उनकी बाल एंकांकियाँ संकलित हैं। उनका बाल नाटक जो कक्षा चार, पाँच के पाठ्यक्रम में लिया गया वह बच्चों की चतुराई से जुड़ा हुआ है। बच्चों के सूक्ष्म मनोविज्ञान को उन्होंने सहजता, सरलता से अंकित किया है। 
दिल्ली दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रोड्यूसर डाॅ0 अमर नाथ अमर ने कहा कि विष्णु जी ने सबसे पहले आकाशवाणी पर रूपकों की शुरूआत की। आकाशवाणी में सबसे पहले एक प्रोड्यूसर के रूप में अपनी स्वीकृति दी ये उनका बड़ा काम है। विष्णु जी के साथ दो और बड़े नाम के0के0 नय्यर और रामेश्वर सिंह कश्यप हैं। जिन्होंने आकाशवाणी, दूरदर्शन में प्रभाकर जी की परम्परा को आगे बढ़ाया और ये श्रंखला आज भी जारी है। प्रभाकर जी की जीजिविषा, सामाजिक सरोकारों की चर्चा व्यापक है। जिसकी पूरी चर्चा नहीं की जा सकती। उनकी कृति ‘धरती अब भी घूम रही है’ पर दूरदर्शन ने टेलीफिल्म बनाई थी और उसे देखकर प्रभाकर जी ने कहा था कि इस कहानी पर टेलीफिल्म बनाकर दूरदर्शन ने न्याय किया है।     
अक्षरम् संस्था के अध्यक्ष अनिल जोशी ने अपने वक्तव्य में कहा कि विष्णु प्रभाकर चेयर की स्थापना चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में की जाए। उनके व्यक्तित्व में सहजता की साधना थी। काॅफी हाउस में वे अपनी आत्मीयता से सबको सहज ही बना लेते थे। वे व्यक्ति नहीं संस्थान थे, जिन्होंने व्यक्तिगत संबंधों को जोड़कर वह सब कुछ दिया, जो रचनाकारों को दिया जा सकता है। पुरस्कार के लिए उन्होनें लेखन नहीं किया और अपमान जनक तरीके से कभी पुरस्कार नहीं लिया।  
विष्णु प्रभाकर जी की पुत्री सुश्री अनिता नवीन ने अपने पिता के संस्मरणों को साझा किया और कहा कि मुझे विष्णु जी की प्रथम पुत्री होने का सौभाग्य प्राप्त है। 
वरिष्ठ साहित्यकार श्री बलदेव वंशी ने कहा कि प्रभाकर जी का लेखन भावुकता पूर्ण नहीं भावना पूर्ण है। हमें भावुकता और भावना में अन्तर करना होगा। लेखक का सामाजीकृत होना उसका अनिवार्य अंग है। विष्णु जी ऐसे ही थे। विष्णु जी ने इस धरती की सांस्कृतिक मिट्टी में अपने को घेर लिया। 
सत्र के समापन में प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी को स्मृति चिह्न प्रदान किए और आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर प्रो0 लोहनी ने कहा कि प्रभाकर जी के लेखन का जो मूल्यांकन हुआ है, उनके व्यक्तित्व को लेकर जो बातें आज यहाँ हुई ये सब बातें हमारे अध्ययन अध्यापन से जुड़ी हैं। 
इस अवसर पर प्रभाकर जी पर आधारित वृतचित्र दिखाया गया तथा इसके बाद संकल्प जोशी द्वारा प्रभाकर जी की कहानी ‘धरती अब भी घूम रही है’ कहानी का वाचन किया गया। 
इसके पश्चात संगोष्ठी के तृतीय सत्र में डाॅ0 सूरजपाल शर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रभाकर जी का जीवन आर्थिक संकटों से गुजरा उनके चाचा ने पहनने के लिए टाट दी और वही उनके जीवन की वेशभूषा हो गया। साहित्यकार युग दृष्टा होता है। धरती अब भी घूम रही है - इस कहानी से पता चलता है कि जो स्थितियाँ कहानी लिखते समय थी आज उससे बढ़कर हमारे जीवन में हैं। प्रभाकर जी ने यथार्थ को कागज पर उकेरा है। 
निशा निशांत ने कहा कि मैं प्रभाकर जी से तब जुड़ी जब बीए की छात्रा थी और लगभग 11 वर्षों तक उनके साथ काम किया। उनकी रचनाओं और पात्रों से मैं रूबरू हुई हूँ। उन्होंने मुझे निशा से निशांत बना दिया।
वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ0 वेद प्रकाश वटुक ने अपने वक्तव्य में कहा कि सन् 1954 में भी धरती घूम रही थी और अब भी धरती और ज्यादा धूम रही है। कुण्डेंवालान मुझे बार-बार याद आता है। उनका झोला, उनका गांधीवादी वेशधारण साक्षात उन्हें गांधीवादी सिद्व करता है।
इस अवसर डाॅ0 ईश्वर चन्द गंभीर, मुकेश नादान, डाॅ0 कृष्ण स्वरूप, डाॅ0 आर0 के0 सोनी, डाॅ0 ए0के0 चैबे, डाॅ0 आराधना, ललित कुमार सारस्वत, अंजू0 डाॅ0 सीमा शर्मा, अलूपी राणा, आरती राणा, मोनू सिंह, विनय कुमार मीलिन्द, आयुषी, पूजा, सोनू नागर, संध्या पोसवाल, दीपा, कविता, वसीम, विकास तोमर, बह्म सिंह, लता, पूजा, कुसुम कुमारी, निवेदिता, ममता, अमित, अजय कुमार, संजय, राजेश, विवेक आदि उपस्थित रहे।





















Friday, August 24, 2012

"विदेशों में हिन्दी प्रयोग को लेकर विदेशी छात्र- छात्राओं ने दिखाई प्रतिबद्धता"



v{kje~ ds rRoko/kku esa fgUnh foHkkx rFkk ekuuh; dqyifr th ls feyus igq¡ps ;wjksi ds pkj ns’kksa ds fo|kFkZ;ksa us fgUnh dfork] xhr ,oa bfrgkl ij viuh vfHkO;fDr ls lHkh dks lEeksfgr dj fy;kA

^^pkg ugha lqjokyk ds xguksa esa xwFkk tkÅ¡] pkg ugha eSa lezkVksa ds flj ij ps rksM+ ysuk ouekyh] ml iFk ij nsuk rqe Qsad ekr` Hkwfe ij ’kh’k p<+kus ftl iFk tka, ohj vusdA**& ,slh jk"Vªh; psruk lEiUu dfork,a] pkS/kjh pj.k falag fo’ofo|ky;] esjB ds fgUnh foHkkx esa fons’kh Nk=&Nk=kvksa ds daB ls ful`r gqbZA ;s fons’kh Nk=&Nk=k,a ^v{kje laLFkk] ubZ fnYyh* }kjk Hkkjr Hkze.k dh J`a[kyk esa fgUnh foHkkx esa Hkkjrh; laLd`fr] lkfgR;] jktuhfr vkSj bfrgkl vkfn ds fo"k; esa fopkj O;Dr dj jgs FksA
       ek¡ ljLorh ds fp= ij ekY;kiZ.k djrs gq, dk;ZØe dk izkjEHk fd;k x;kA bl volj ij lcls igys ;w0ds0 ls vkbZ eathr us dgk fd fgUnh ls eq>s cgqr yxko gS vkSj eSa vHkh fgUnh lh[k jgh gw¡] FkksM+h&FkksM+h fgUnh vkrh gSA eSa dSalj ejhtksa dh ns[kHkky iwjs euks;ksx ls djrh gw¡A Nk= ihVj us dgk fd Hkkjrh; Hkk"kk fgUnh vkSj Hkkjrh; lLad`fr ds izfr eq>s vxk/k yxko gS rFkk eSa Hkkjrh; jktuhfr ij Fkhfll fy[k jgk gw¡A Fkhfll ds 'kq: ds i`"Bksa esa eSaus crk;k gS fd eSa fgUnh D;ksa lh[k jgk gw¡ rFkk Hkkjr ds izfr] Hkkjr dh jktuhfr ds izfr eq>s D;ksa :fp gS \ ihVj us dgk fd eSaus viuh Fkhfll esa johUnzukFk Bkdqj rFkk xka/kh dk rqyukRed v/;;u Hkh izLrqr fd;k gS rFkk Hkkjr ds bfrgkl dk ifjp; Hkh fn;k gSA mUgksaus dgk fd esjk ilanhnk fo"k; Hkkjrh; jktuhfr gSA
:l ls vkbZ Nk=k D;kjk us ^ueLrs th* vfHkoknu djds dgk fd fgUnh Hkk"kk ds ckjs esa cpiu ls gh tkuuk pkgrh FkhA ;gk¡ ds ozr&R;kSgkj] jhfr&fjokt] mRlo] ijEijkvksa rFkk lLad`fr esa eq>s vR;kf/kd :fp gSA ;g essjh igyh Hkkjr ;k=k gS vkSj eSa bldks ysdj cgqr [kq’k gw¡A eSa bVSfy;u Hkk"kk i<+krh gw¡ rFkk fgUnh i<+rh gw¡A D;kjk us vk’kk vkSj vkLFkk ls ljksckj xhr Hkh izLrqr fd;k&
^^bruh 'kfDr gesa nsuk nkrk] eu dk fo’okl detksj gks ukA
ge pysa usd jLrs is] gels Hkwy dj Hkh dksbZ Hkwy gks ukA**
:l ls vkbZ Nk= boku iSVªksoh us crk;k fd eSa ekLdks esa rhu lkyksa ls jgdj i<+kbZ dj jgk gw¡ vkSj fgUnh] vaxzsth rFkk bfrgkl dk v/;;u dj jgk gw¡A Hkkjr dk bfrgkl] laxhr] laLd`fr eq>s cgqr ilUn gSA ^v{kje~* laLFkk dh Hkh mUgksaus ,d dfork ds ek/;e ls rkjhQ dh &
^^vDlj* esjh ;knksa esa ,d fp= vkrk
liuksa dh cqfu;kn j[kh Fkh
dke ugha vklku ,d ,slh nqfu;k cukuk
tks Å¡p&uhp dk Hksn&Hkko feVkrh gSA
bUgksaus Hkh dgk fd Hkkjrh; laLd`fr ds izfr eq>s vf/kd yxko gS vkSj eSa bls tkuuk le>uk pkgrk gw¡A :l dh fØLVhuk lkbjl us dgk fd eSa tcls Ldwy esa i<+ jgh gw¡ rHkh ls fgUnh ls vxk/k izse gSA eSaus ekLdks LVsV ;wfuoflZVh esa izos’k dj i<+kbZ 'kq: dh vkSj Hkkjrh; lLd`afr esjk fo"k; gSA eSa izsepUn dh dgkfu;k¡ fgUnh esa i<+ jgh gw¡A fØLVhuk us lw;ZdkUr f=ikBh ^fujkyk* dh dfork & ^^cka/kksa u uko bl Bk¡o ca/kq] iwNsxk lkjk xkao cU/kqA ;s /kkj cgh ftl ij yksx ugkrs Fks] oks galh lc dqN dgrh Fkh] ij vius esa jgrh Fkh** & i<+dj [kwc iz’kalk ikbZA
;w0ds0 ls vkbZ Nk=k forLrk us crk;k fd eSa fgUnh cky Hkou esa i<+ jgh gw¡ vkSj blfy, fgUnh lh[k jgh gw¡ fd eSa bf.M;k ls gh gw¡A eq>s vius ekrk&firk ls fgUnh eas ckr djuk vPNk yxrk gSA eSa pkgrh gw¡ fd eSa viuh ekr`&Hkk"kk dks u HkwaywA ek[kuyky prqosZnh dh dfork ^Qwy dh pkg* lqukdj mUgksaus lHkh dks ea= eqX/k dj fn;kA
fczVsu ls gh vkbZ Nk=k iouhr clu us crk;k fd eSa fiNys 15 lkyksa ls dRFkd lh[k jgh gw¡ vkSj blfy, fgUnh Hkh lh[k jgh gw¡A clu us dRFkd dh ifDr;k¡ lqj rFkk rky esa izLrqr dhA :l dh bodsfu;k us dgk fd dbZ lkyksa ls eSa fgUnh lh[k jgh gw¡A eq>s Hkkjr ls izse gS vkSj Hkkjrh; bfrgkl esa vk/kqfud Hkkjrh; bfrgkl vPNk yxrk gSA bodsfu;k us dfork & ^eq>dks vkokt u nks] D;k irk rqEgsa esjh tku is cu vkbZ gS* lqukdj [kwc iz’kalk cVksjhA :l dh fØLVhuk us crk;k fd og nks lky ls fgUnh i<+ jgh gSa rFkk vUrjkZ"Vªh; laca/kksa dk v/;;u dj jgha gSaA ftlesa Hkkjr dk bfrgkl rFkk vFkZO;oLFkk 'kkfey gSA bUgksaus tokgj yky usg: dk oDrO; & ^^vxj ge thou esa cM+h miyfC/k pkgrs gSa rFkk Hkkjr dks egku ns[kuk pkgrs gSa rks gesa Hkh cM+k cuuk iM+sxkA** muds }kjk lqukbZ xbZ iafDr;k¡ & ^^>.Mk Å¡pk jgs gekjk** [kwc ljkgh xbZA boku iSVªksd us ,dkar JhokLro dh dfork & eSa cgqr nwj ls mM+ dj vk;k] ;gk¡ ds igkM] ;gk¡ dh ufn;k¡] vtuch lh gaS tSls nwj ls vkrh gSa leqnzh gok,a] nwj ls vkrs gSa izoklh i{khA* & fons’kh Nk=ksa ds Hkkjr izse dks mtkxj djrh gSaA

v{kje~ laLFkk] ubZ fnYyh ds Jh vfuy tks’kh us bl volj ij fgUnh foHkkxk/;{k izks0 uohu pUnz yksguh dk izR;sd o"kZ dh Hkkafr bl o"kZ Hkh ,slk lqUnj dk;ZØe djus ds fy, vkHkkj O;Dr fd;kA Jh tks’kh us dgk fd v{kje~ dk iz;kl jgrk gS fd fons’kh fo|kFkhZ Hkkjr ls tqMs] ;gk¡ dh laLd`fr dks tkusA ;s fdruh xaHkhjrk ls Hkkjr dks tku ikrs gSaA ;s fgUnh i<+ jgs gSa] mls le>us dh dksf’k’k dj jgs gSaA bu fo|kfFkZ;ksa dk ekuuk Hkh gS fd ;fn Hkkjrh; lekt dks le>uk gS rks fgUnh dks xgjs :i ls le>uk gksxkA ,d Hkk"kk dks tkuus dk eryc Hkk"kk tkuuk gh ugha cfYd mlds lekt dks Hkh tkuuk gksrk gSA Hkkjr dh Hkk"kk fgUnh laxhre; gSA vxj vki Hkk"kk dks tkurs gSa rks mlds lekt dks Hkh tku ikrs gSaA Hkk"kkvksa dks tkudj ge ns’k] jkT; dh nhokj rksM+ ldrs gSaA gesa ;g tkuuk pkfg, fd gaxjh dk fo|kFkhZ v;ks/;k fookn ij Fkhfll fy[krk gS rks ;g mldh ftKklk gSA gekjs ns’k dh Hkk"kkvksa esa nqfu;k dh :fp gSA ;g lkspus dk fo"k; gS fd D;k gesa Hkh ,slh gh :fp gS\ Jh tks’kh us fons’kh fo|kfFkZ;ksa ls dgk fd vkt ftl fgUnh dks vki lh[kuk] tkuuk pkgrs gSa ml [kM+hcksyh fgUnh dk mn~xe LFkku esjB gh gSA ml :i esa Hkh ;g dk;ZØe egRoiw.kZ gks x;k gSA 
       iz[;kr lkfgR;dkj fo".kq izHkkdj ds iq= vrqy izHkkdj th us dgk fd esjB gekjk ?kj gS] gekjs iwoZt o"kksZa igys ;gk¡ ls pys x,A viuk ?kj lcdks vPNk yxrk gSA ;gk¡ ls fgUnh dh ’kq:vkr gqbZ ;g vkuUn dk fo"k; gSA ;gk¡ dh laLd`fr] lkfgR;] iwoZtksa dks ;fn dksbZ tkuuk pkgrk gS rks ;g gekjs fy, xkSjo dh ckr gSA 
       bl volj ij fgUnh foHkkxk/;{k izks0 uohu pUnz yksguh us lHkh dk vkHkkj O;Dr fd;kA mUgksaus dgk fd nqfu;ka esa vaxzsth ds vykok fgUnh dks Hkh opZLo fey jgk gSA fgUnh nqfu;k izkbosV laLFkkvksa] Ldwyksa] ljdkjh laLFkkvksa ds ek/;e ls vyx fn[kkbZ ns jgh gSA vkt gesa ;g tkuuk gS fd nqfu;k¡ esa fgUnh lh[kus okyksa] v/;;u v/;kiu dh D;k fLFkfr gS \
       dk;ZØe ds ckn fo’ofo|ky; esa ekuuh; dqyifr th ls eqykdkr ds volj ij Nk=&Nk=kvksa us vius xhrksa] dforkvksa] rFkk Hkkjrh; laLd`fr] bfrgkl] Hkk"kk ds laca/k esa rFkk Hkkjr ;k=k ds laLej.k lquk,aA 

dqyifr th ds lkFk Nk=&Nk=kvksa us lfefr d{k esa feydj vius vuqHko ck¡Vs vkSj fgUnh esa jpuk,a Hkh lqukbZA 
ekuuh; dqyifr us Nk=&Nk=kvksa ls feyus ij mudk Lokxr fd;k rFkk mUgsa O;kdjf.kd rkSj ij 'kq) fgUnh cksyus ds fy, lk/kqokn fn;kA mUgksaus dgk fd Nk=&Nk=kvksa dks vius thou rFkk dk;Z{ks= esas vPNh fgUnh iz;qDr djuh pkfg,A mUgksaus dgk fd Hkkjr ns’k vkxs c<+ jgk gS vkSj fo’o vc ifjokj cu x;k gS] blfy, Hkkjrh; euh"kk dh mfDr ^olq/kSo dqVqEcde~* dks Lohdkj fd;k tk jgk gSA dqyifr th us Nk=&Nk=kvksa ls fgUnh gh ugha fo’o dh vU; Hkk"kk,a lh[kus] tkuus o iz;ksx djus ds fy, izsfjr fd;kA
       dk;ZØe dk lapkyu yfyr dqekj lkjLor] fjlpZ QSyks] mRd`"V v/;;u dsUnz us fd;kA bl volj ij Jh ckyd`".k] j?kqchj 'kekZ] g"kZ o)Zu] lfpu vkfn us Hkh vius fopkj O;Dr fd,A dk;ZØe esa MkW0 vkj0 ds0 lksuh] MkW0 johUnz dqekj MkW0 lhek 'kekZ] vatw] vywih jk.kk] vkjrh] foosd] r:.k] xhrk] eksuw flag] lat;] dkS’ky] vfer] fiUVw] nyhi] iou Hkkjrh] f’kokuh] e/kq] fiz;dka] vuqjk/kk] la/;k iksloky] fefyUn] vk;w"kh] fodkl rksej eksUVw vkfn Nk=&Nk=k,a mifLFkr jgsA



















आप सभी का मंथन विचार पत्रिका के इन्टरनेट संस्करण में स्वागत है..

"कैमरे के फ़ोकस में - मंथन पत्रिका और विभागीय गतिविधियाँ " को ब्लॉग के बायीं ओर लिंक सूची में देखें .......