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Saturday, April 5, 2025

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एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 'हिंदी का प्रवासी साहित्य' का आयोजन

दिनांक 22 फरवरी 2025 को हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 'हिंदी का प्रवासी साहित्य' का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में कार्यक्रम अध्यक्ष प्रोफेसर मृदुल कुमार गुप्ता, प्रतिकुलपति, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ, मुख्य अतिथि संकायाध्यक्ष कला, प्रोफेसर संजीव कुमार शर्मा, विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर परिन सोमानी, सीईओ एवं निदेशक एल ओ एस डी लंदन यूके रही, बीज वक्ता, डॉ राकेश बी दुबे, वरिष्ठ सलाहकार, हिंदी क्यूसीआई भारत सरकार नई दिल्ली रहे। विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर सत्यकेतु संकृत, अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर विश्वविद्यालय नई दिल्ली रहे। आयोजन के संयोजक प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी, अध्यक्ष हिंदी में आधुनिक भारतीय भाषा विभाग एवं संचालन डॉ अंजू सहायक आचार्य, हिंदी में आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने किया।

 कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर मृदुल कुमार गुप्ता  ने कहा कि प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी ने हिंदी को आगे ले जाने में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। विदेशी विश्वविद्यालय से एमओयू किए जाने चाहिए। जिससे छात्र-छात्राओं को आपसी मेल मिलाप का लाभ मिलेगा। विश्वविद्यालय 10 विद्यार्थियों को विदेश में शिक्षा प्राप्ति के लिए छात्रवृत्ति प्रदान कर रहा है। हमें इसका लाभ लेना चाहिए।

प्रोफेसर संजीव कुमार शर्मा ने कहा कि विश्वविद्यालय में ऐसे पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनसे प्रवासी साहित्य का अध्ययन हो रहा है। प्रवासी साहित्य पर दो राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किए जाते हैं। संगोष्ठियां विद्यार्थियों, शोधार्थियों, शिक्षकों के आपसी मेल मिलाप को मंच प्रदान करती है और अध्ययन अध्यापन को उच्च आयाम प्रदान करती है।

 प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी ने कहा कि प्रवासी साहित्य को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय ने पहली बार पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया और विभाग ने प्रवासी साहित्य के पाठ्यक्रम की नींव रखी। हिंदी अब दुनिया की भाषा है। इसमें प्रवासी साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत की विश्व स्तर पर भागीदारी भले चाहे वह सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक किसी भी स्तर पर हो इससे भारत की और हिंदी की वैश्विक स्थिति सुनिश्चित होती है। 

डॉक्टर राकेश भी दुबे ने कहा कि जो हमारे बीच से प्रवास में गए हैं, वह प्रवासी है प्रवासी कोई नया शब्द नहीं है। प्रवासी केवल अंतर्देशीय नहीं होता अतः देशीय भी होता है। अतः देशीय प्रवास में घर रह गई महिलाओं के लोकगीत मानव हृदय को झकझोर देते हैं। प्रवास किसी भी रूप में हो अपने क्षेत्र अपने देश सभी की स्मृति में रहता है और प्रवास का दर्द भी रहता है। साहित्य लोक अनुभूति पर भी आधारित रहता है। प्रवास में पली बड़ी पीढ़ी के अनुभव ज्यादा प्रामाणिक और यथार्थ हैं। शोध के लिए पत्रिकाएं ज्यादा महत्वपूर्ण है।

 प्रोफेसर परीन सोमानी ने कहा कि ब्रिटिश काल में बिहार और उत्तर प्रदेश से बहुत से गिरमिटिया मजदूरों को ले जाया गया। हमारा प्राचीन साहित्य हमारी भाषा को दिशा देता है और सांस्कृतिक जमीन तैयार करता है। हमारी पूरी दुनिया एक हो रही है। आज के समय में कौशल विकास का समय है। सभी जगह स्किल्ड लोगों की जरूरत है। प्रवासी साहित्य में प्रवास का दर्द, प्रवास की हृदयगत भावनाएं अभिव्यक्त होती है। हर कोई शाहरुख और कैटरीना बन सकता है, हमें अपनी काबिलियत के अनुसार कार्य करने की जरूरत है। हिंदी बहुत सुंदर और मीठी भाषा है। साहित्य क्षेत्रीय सीमाओं को तोड़ देता है।

प्रोफेसर सत्यकेतु ने कहा कि जब प्रवासी साहित्य को अकादमी में जोड़ा गया है तो उससे प्रवासी साहित्य में जो भी भ्रम उत्पन्न हुआ है हमारा दायित्व है कि हम प्रवासी साहित्य के क्षेत्र को खोले और भ्रम की स्थिति से विद्यार्थियों को बाहर निकाले। प्रवासी साहित्य को विमर्श से जोड़ने की जरूरत नहीं है। प्रवासी साहित्य में जन्मना नहीं होना चाहिए इसलिए प्रवासी साहित्य के लिए आवश्यक नहीं है कि उसके लिए उसे प्रवासी होना जरूरी है। विदेशियों में प्रवासीपर नहीं है। प्रवासन में विस्थापन होना जरूरी है। प्रवासी साहित्य में सबसे भयानक चीज़ यह हुई है कि रचनाकार और आलोचक एक हो गए। साहित्य के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण चीज प्रवृत्ति होती है। प्रवासी साहित्य पर बात करनी है तो उसे विकास करना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि का अर्थ होता है की चीजों को खाके के रूप में तैयार करना ताकि चीजों को स्पष्ट रूप से समझ सके। जितना भी गिरमिटिया साहित्य है उनमें प्रवासी साहित्य का हृदय ही विदेश में बसता है। विदेश की विसंगतियां, भाव, संस्कृति तथा दर्द है। भोगा हुआ यथार्थ प्रवासी साहित्य की विशेषता है। आर्थिक संपन्न होने के बावजूद स्त्री कहीं की भी हो उसके आंसू एक ही है। हिंदी का साहित्य चाहे जहां भी रचा हो चाहे किसी ने लिखा हो चाहे जंगल में लिखा हो उसकी अपनी अनुभूतियों जो हिंदी भाषा में कलात्मक रूप देता है।

संगोष्ठी के प्रथम सत्र, प्रवास में हिंदी शिक्षण एवं शोध की संभावनाएं में अध्यक्ष प्रोफेसर वेद प्रकाश बटुक, वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व निदेशक फोकलर, अमेरिका, विशिष्ट अतिथि श्री रामतक्षक प्रवासी साहित्यकार, नीदरलैंड और डॉ वेद प्रकाश सिंह, ओसाका विश्वविद्यालय, जापान रहे। सत्र का संचालन अंकित तिवारी, सहायक आचार्य, बी डी जैन गर्ल्स कॉलेज, आगरा रही।

 कार्यक्रम अध्यक्ष, प्रोफेसर वेद प्रकाश बटुक ने कहा कि मैं अमेरिका में 25 सालों तक हिंदी का अध्यापन किया। जहां 20000 से ज्यादा विद्यार्थियों ने अमेरिका में हिंदी पढ़ी आज अमेरिका में 50 लाख भारतीय बसते हैं हिंदी के सबसे बड़े दुश्मन ही हिंदी के सबसे बड़े लीडर हैं। हिंदी में सबसे बड़े पूजक महात्मा गांधी जी हैं। मैं ना ही अमेरिका का नागरिक बना न ही ब्रिटिश नागरिक बना हूं। सिवाय तिरंगे के मैं किसी को सलाम नहीं किया। सन 2000 से पहले किसी ने प्रवासी साहित्य नहीं कहा। लेखक प्रवासी हो सकता है लेकिन साहित्य प्रवासी नहीं हो सकता। हिंदी के जो विद्यार्थी हैं भारतीय मूल के होकर भी हिंदी को विदेश में विदेशी भाषा के रूप में पढ़ते हैं।

 डॉ रामातक्षक ने कहा गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस पर नीदरलैंड में सबसे ज्यादा संख्या भारतीय दूतों की होती है। नागरी लिपि की जो ध्वनियां है, वह प्रवीण है। कोविड में हर महीने ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। तथा 600 से अधिक रचनाकारों को जोड़ा गया। टेक्नोलॉजी ने बहुत कुछ संभावनाएं बना दी हैं इसलिए छात्राओं को अपने विषय का चयन करने में बहुत आसानी होगी।

 डॉक्टर वेद प्रकाश ने कहा फ्रांस में हिंदी साहित्य का पहला इतिहास मिला। जर्मनी में हिंदी और गुजराती का पहला शिक्षण प्राप्त हुआ। जापान में हिंदी शिक्षण की जो रुचि दिखाई वह भारत के प्रति भी थी। पूरी दुनिया में ज्ञान की जो किताबें लिखी गई वह जापानी में अनुवाद करना चाहते थे। 1908 में टोक्यो में हिंदी और तमिल का विज्ञापन हुआ। शोध की संभावनाएं ज्ञान से बनती है। जापान और हिंदी का जो पुल है उसे अच्छे से विकसित करने की आवश्यकता है। गांधी जी ने जापान पर लिखा है। ओसाका में कम से कम 100 विद्यार्थी हिंदी में पढ़ रहे हैं। लक्ष्मीधर मालवे ने काफी लंबे समय तक हिंदी का अध्यापन किया और इसमें आगे काम करने की जरूरत है।

कार्यक्रम के तृतीय सत्र में पुस्तक परिचर्चा सुधा ओम ढींगरा का साहित्य: महत्व मूल्यांकन, प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी एवं डॉक्टर योगेंद्र सिंह तथा प्रवासी मन श्री तरुण कुमार जी की पुस्तकों पर परिचर्चा एवं शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ राकेश पांडे, संपादक, प्रवासी संसार, दिल्ली, मुख्य अतिथि श्री तरुण कुमार, लेखक एवं पूर्व अताशे हिंदी एवं संस्कृति लंदन, भारतीय उच्चायोग, वक्ता डॉक्टर विद्यासागर सिंह, सहायक आचार्य, डॉ योगेंद्र सिंह, पूर्व शोधार्थी, पूजा यादव शोधार्थी हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग रहे। कार्यक्रम का संचालन कुमारी रेखा सोम, शोधार्थी हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने किया।

 डॉ योगेंद्र सिंह ने कहा की सुधा ओम ढींगरा का रचना संसार मानव संवेदनाओं के विभिन्न पड़ाव हैं। साहित्य का अंत: लोक और उनकी रचना दृष्टि महत्वपूर्ण है। प्रवासी साहित्यकारों पर शोध अपने आप में विशिष्ट कार्य है क्योंकि इनमें प्रवासन का जो दर्द और पीड़ा है वह मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला होता है। प्रवासी हमारी ही मिट्टी से जन्मे हैं, हमारी ही मिट्टी के भाग है, हमारी ही संस्कृति को साझा करते हैं इसलिए उनके अनुभव भी हमारे अनुभवों से जुड़े हुए हैं। इसलिए यह पुस्तक विद्वान जनों के लिए और हिंदी के विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण है। डॉ विद्यासागर सिंह ने पुस्तक समीक्षा में कहा कि यह पुस्तक प्रवासी साहित्य को समझने और उसकी संवेदनाओं से जुड़ने का बड़ा माध्यम है। यह पुस्तक शोधार्थी और विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण है। प्रवासी साहित्य की दर्द पीड़ा और वर्तमान संस्कृति को समझने में यह पुस्तक लाभदायक है।

 श्री तरुण कुमार जी ने कहा कि प्रवासी अपने परिवेश को नहीं समझ पाए। प्रवासी साहित्य की आलोचना पर पुरानेपन की छाप है प्रवासी मन पुस्तक में ब्रिटेन के जीवन को दर्शाया गया है।

 पूजा यादव ने पुस्तक की समीक्षा करते हुए कहा की यह पुस्तक प्रवासी मन की गहराइयों, अनुभूतियों और संवेदनाओं को समझने का माध्यम है। संबंधों का ढांचा और सांस्कृतिक उठा पठक जो इस समय प्रवासी के मन में है वह इस पुस्तक में दिखाई देती है। इस पुस्तक की जो मूल चेतना है वह एकाकीपन है, जो आधुनिक भौतिकतावादी संस्कृति ने हमें दी है और जिससे न केवल भारत बल्कि विश्व की संस्कृति जूझ रही है। 

सत्र में डॉक्टर सुमित नागर, अरशदा रिजवी, मोनी चौधरी, शिवानी, अंजू ललित आदि शोधार्थियों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किये।

डॉ राकेश पांडे ने कहा यदि हम प्रवासी साहित्य को बार-बार एक ही तरफ से उठाने लगते हैं तो इसका मतलब है कि प्रवासी साहित्य की समझ उतनी विकसित नहीं हुई है जितनी कि अभी तक हो जानी चाहिए थी। रचनाकार प्रवासी होने से साहित्य प्रवासी नहीं हो जाता। मूल्यांकन रचना के प्रति करना चाहिए ना की रचनाकार के प्रति। खाड़ी देशों में जब युवा कमाने जाता है तो उसे जिन परिस्थितियों का सामना करता करना पड़ता है वह प्रवासी साहित्य में अभिव्यक्त होता है। प्रवासी साहित्य कितने संघर्षों से होकर गुजरता है इसे समझने की जरूरत है। सुधा ओम ढींगरा अमेरिका में रह रही है लेकिन पंजाब की है तो उन्होंने अपनी साहित्य में संघर्षों को उकेरा है। प्रवासी लेखक को लेखक न मानकर उन्हें हिंदी का प्रचारक मानना चाहिए। प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी को मैं बधाई देता हूं कि उन्होंने  प्रवासी साहित्य पर विचार विमर्श के लिए एक मंच प्रदान किया।

संगोष्ठी के समापन सत्र में अध्यक्ष प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी, मुख्य अतिथि प्रोफेसर वाई विमला, कुलपति, माँ शाकुम्भरी विश्वविद्यालय सहारनपुर, विशिष्ट अतिथि डॉक्टर वेद प्रकाश सिंह ओसाका विश्वविद्यालय जापान डॉक्टर राकेश भी दुबे रहे। सत्र का संचालन पूजा यादव शोधार्थी, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने किया।

 मुख्य अतिथि प्रोफेसर वाई विमला ने कहा कि मातृभाषाएं हमेशा जीवित रहेंगी। भाषा सदैव अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है और पुस्तकों में, मानव हृदय और व्यवहार में हमेशा जीवित रहती हैं। इस तरह की संगोष्ठियां भाषाओं को समृद्ध करने का काम करती है और वैश्विक स्तर पर भाषाओं की ताकत को दर्शाती है। उन्होंने प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी को बधाई दी और कहा कि प्रोफेसर लोहनी ने सदैव हिंदी के प्रचार प्रसार में महती भूमिका निभाई है।

 कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी ने कहा कि भाषा जन अभिव्यक्ति का माध्यम है। यह न केवल मन के भावों को अभिव्यक्त करती है बल्कि विचारों को ताकत के साथ प्रस्तुत करती हैं इसलिए जो भाषा जितनी सशक्त होगी उसको बोलने वाले भी उतने ही मजबूत होंगे। साहित्य भारत भूमि पर लिखा जाए या प्रवास में लिखा जाए उसकी संवेदनाएं मानव को छूती है इसलिए साहित्य साहित्य है और उसका महत्व उसके साहित्य होने में है ना कि वह कहां रचा गया इसमें। इसलिए प्रवासी साहित्य भी हिंदी साहित्य का हिस्सा है। हमें उसे प्रवासी कहकर हिंदी से अलग नहीं करना चाहिए। अन्य वक्ताओं ने भी इस अवसर पर अपने विचार रखें। इस अवसर पर डॉ सुनीता मौर्य, डॉक्टर मंजू शुक्ला, डॉक्टर गजेंद्र सिंह, आरती राणा, डॉक्टर विद्यासागर सिंह, डॉक्टर प्रवीण कटारिया, डॉक्टर यज्ञेश कुमार, डॉ सुमित नगर डॉ अंचल कुमारी  निर्देश चौधरी, विनय, विपिन कुमार, आयुषी, एकता, नेहा ठाकुर, रिया सिंह ,विक्रांत, शौर्य, राजकुमार, प्रिंसी आदि छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।






























'कवि गोष्ठी' का आयोजन

  दिनांक 21 फरवरी 2025 को हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग एवं साहित्यिक सांस्कृतिक परिषद्, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा कवि गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें मेरठ में डॉ॰ हरिओम पवार, श्री ईश्वर चन्द गंभीर, श्री सत्यपाल सत्यम, श्री सुमनेश सुमन, श्री ओंकार गुलशन, श्री रामतक्षक, श्रीमती तुषा शर्मा ने काव्य पाठ किया। गोष्ठी की विशिष्ट अतिथि डॉ॰ हरिओम पंवार रहे।

सुश्री तुषा शर्मा ने सरस्वती वंदना की। 

श्री रामातक्षक की कविता - मैं भारत का राजदूत, मैं पत्थर इसी इमारत का सुनाई।

श्री सुमनेश सुमन की कविता - हमारी राह में भी नफरतों के मोड़ आए हैं, फिर भी मुहब्बत की निशानी छोड़ आए हैं। 

कवि गोष्ठी का संचालन सुमनेश सुमन ने किया।

इस अवसर पर डॉ॰ यज्ञेश कुमार, डॉ॰ आरती राणा, डॉ॰ प्रवीण कटारिया, डॉ॰ अंजू, डॉ॰ विद्यासागर सिंह, डॉ॰ योगेन्द्र सिंह, विनय, पूजा, रेखा, सचिन, अरशदा, एकता, आयूषी, मोनिका, विक्रांत, शिवा, साजिद आदि उपस्थित रहे।











‘संत गंगादास का साहित्यक अवदान’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

दिनांक 21 फरवरी 2025 को हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में ‘संत गंगादास का साहित्यक अवदान’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। 

उद्घाटन सत्र - कौरवी लोक साहित्य और संत गंगादास

सत्र की अध्यक्षता प्रो॰ वेदप्रकाश वटुक ने की। उन्होंने कहा कि सुमन जी ने संत गंगादास पर महत्वपूर्ण कार्य किए। लोक परंपरा का ही लोक है। यदि लोक साहित्य मौखिक हो तो क्या वह लोक साहित्य नहीं रहेगा। हमने लोक साहित्य के टैक्स्ट तो बहुत इक्ट्ठे किए है लेकिन उनसें संदर्भित प्रसंगों को विस्मृत कर दिया है। यदि हमंे पहेलियों पर काम करना हो तो उसका व्यवहारिक अनुप्रयोग होना चाहिए। लोक साहित्य भी संदर्भ के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। उदाहरण के लिए विवाह में गाये जाने वाली गालियाँ। आर्य समाज के प्रभाव से यह सब खत्म हुआ। फिर गुरूकुल से संबंधित गीत गाये जाने लगे। आखिरकार फिल्मों का प्रभाव पड़ा और लोक गीत गायब होने लगे। अंत में उन्होंने कहा कि जब तक लोक समाज रहेगा तब तक लोक साहित्य रहेगा।

प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने कहा कि हिंदी विभाग में कौरवी लोक साहित्य को लेकर महत्वपूर्ण काम किए गए। कौरवी बोली के साहित्य को सामने लाने के लिए व्याकरण एवं शब्दकोश की आवश्यकता पड़ती है। कौरवी बोली के शब्दकोश को प्रकाश में लाने में हिंदी विभाग का योगदान रहा है। विभाग ने कौरवी लोक साहित्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया तथा अध्ययन-अध्यापन में कौरवी को स्थान दिलाया। वर्तमान में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में कौरवी लोक साहित्य पर कई महत्वपूर्ण शोध कार्य हो रहे हैं। संत गंगादास जी की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में लिखी हुई रचनाएँ हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। हिंदी विभाग के भवन का नाम संत गंगादास भवन रहा गया है। 

प्रो॰ नीलम राठी ने बीजवक्ता के रूप में कहा कि कुरू प्रदेश का साहित्य जिसकी पहचान कुरू वंश से है। जिसका स्थान मेरठ रहा है। जब हम भारतीय ज्ञान परंपरा एवं क्षेत्रीय व जनपदीय साहित्य की बात करते हैं तब संत गंगादास जी की चर्चा महत्वपूर्ण हो जाती है। आज जो हायतोबा मची हुई है उसमें संत साहित्य महत्वपूर्ण हो जाता है। चरित्र निर्माण एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए यह कार्य अति महत्वपूर्ण है। लोक नाटकों में जैसे शिव-पार्वती विवाह संत गंगादास जी की महत्वपूर्ण कृति है। जो सदियों से लोक में प्रचलित था उसको समाज में पहुँचाने का कार्य संत गंगादास जी ने किया। संत गंगादास जी ने अंग्रेजो को भी राजधर्म की याद दिलाई। झांसी की रानी को भी संत गंगादास राजधर्म की याद दिलाते हैं और उन्हें यह भी कहते हैं कि आपको आगे बढ़कर नेतृत्व करना होगा। उन्होंने अपना काव्य लोक समाज तक पहुँचाना चाहा। सत गंगादास जी गंगा मैया के दिल के बहुत करीब थे। वे श्री गंगाशेष महिमा लिखते हैं। हमें नदियों को नदियों से नहीं जोड़ना चाहिए बल्कि लोगों को नदियों से जोड़ना चाहिए।

श्री कर्मवीर सिंह ने कहा कि कौरवी क्षेत्र में जितने महत्वपूर्ण कवि एवं संत हुए हैं उन्हें संत गंगादास जमीन तैयार करके देते हैं। गंगादास जी ने भारतीय संस्कृति में गंगा को अति महत्वपूर्ण माना। उन्होंने दो सौ से अधिक पद गंगा पर लिखे। बक्सर (बिहार) के उदासी पंथ से भी गंगादास जी का जुड़ाव था। संत गंगादास का साहित्य स्वयं में विविध विषयों को समेटता है। लोक साहित्य के लेखकों पर शोध कार्यों को बढ़ावा मिलना चाहिए। जब तक हम अपनी भाषा में खडे़ नहीं होंगे तब राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। गंगादास जी पर जितना काम होगा उतना ही नए नए विषय शोध के लिए उभरकर आएंगे।

  डॉ॰ हरिसिंह पाल - मुख्यधारा के साहित्य में लोक साहित्य को स्थान नहीं मिला। हिंदी साहित्य के इतिहास में भी यही बात हुई। यदि हम अपनी बोली भाषाओं को लिपिबद्ध नहीं करेंगे तो यह दुनिया से गायब हो जाएगी। लगभग 6000 स्थानीय भाषाओं का साहित्य विलुप्त प्राय है। 8 कोस पर वाणी बदल जाती है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर लोक साहित्य को संग्रहित करने की जरूरत है। नई शिक्षा नीति 2020 में भी यह बात है कि आपको बोली भाषाओं का संरक्षण करना है। संत कबीर की परंपरा संत गंगादास तक पहुँची है। कविता की भाषा ब्रजभाषा थी। तुलसी तक को कवितावली और गीतावली लिखनी पड़ी। कोई विद्वान जब तक ब्रजभाषा में नहीं लिखता तब तक उसको विद्वान नहीं माना जाता। संत गंगादास जी हमारी लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए इनका अध्ययन जरूरी है।

उद्घाटन सत्र में उपस्थिति अतिथियों द्वारा ‘भारतीय मातृभाषाओं का भविष्य’ सं॰ डॉ॰ रामातक्षक की पुस्तक का लोकापर्ण हुआ।

उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ॰ आरती राणा ने किया।


द्वितीय सत्र - लोक भाषा, लोक काव्य और संत गंगादास

प्रो॰ सुचित्रा मलिक ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि गंगादास जी की कविता जनमानस मंे गायी जाती थी। लोक संस्कृति पर नागरी संस्कृति की प्रभाविता के चलते लोक गायब हो गया। वृंदावनलाल वर्मा ने जनमानस को बताया कि गंगादास जी रानी लक्ष्मीबाई के गुरू थे। संत गंगादास जी ने लोक को परलोक से जोड़ा। लोक का जो लालित्य जनन्नाथदास के साहित्य में देखने को मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है।   

प्रो॰ कविता त्यागी ने कहा कि ग्रियर्संन ने कौरवी को देशज हिंदी (कौरवी) और राहुल सांकृत्यायन ने जनपदीय भाषा (कुरू) कहा। स्थानीय स्तर पर जो खुशियाँ मनाते हैं वही लोक है और उससे संबंधित साहित्य लोक साहित्य है। लोक साहित्य जन्म, विवाह, मृत्यु से संबंधित है। लोक से संबंधित पांच खम्भे हैं - लोक भाषा, लोक गीत, लोक कथा, लोक नाट्य, प्रर्कीण लोक साहित्य। विद्यार्थी अम्बेदास, फूल सिंह, घासीराम, दीवानदास आदि पर भी शोध कार्य कर सकते हैं।  देहि लोकम् - ऋवेद में आया।

अशोक के शिलालेख में प्रजा के लिए लोक प्रयुक्त हुआ है। लोक साहित्य प्रवृति का एक ऐसा उद्यान है जो संतो ंके उद्यान का फूल नहीं है। लोक साहित्य का संदर्भ लोक से आनुवांशिक रूप से जुड़ा है। लोक कवि आज जन से ही होते हैं- संत गंगादास/गंगा। आरंभिक दौर मंे गंगादास जी उदासी संप्रदास से जुडे़। उनके गुरू ने उन्हें बनारस भेजा। वे लगभग 20 वर्षों तक बनारस में शिक्षा ग्रहण करते रहे। 19 वीं सदी धार्मिक संप्रदायों का बोलबाला था लेकिन गंगादास जी कभी ने वेद आदि पंरपरा की अवहेलना नहीं की। 1855 में वे ग्वालियर चले गए। रानी लक्ष्मी बाई ने उनसे प्रश्न किया, बाबा स्वराज की स्थापना कैसे होगी ? बाबा का जवाब था, तुम एक पत्थर (स्वराज) लगा दो, आंशिक सफलता मिल जाएगी। लक्ष्मीबाई की मृत्यु के पश्चात बाबा ने उनका दाह संस्कार किया। निर्गुण पंरपरा से संबद्ध संत गंगादास ने सामाजिक आचार व्यवहार पर खूब बात की।

प्रो॰ राजेन्द्र बड़गूजर ने कहा कि रागिनी के प्रवर्तक संत गंगादास जी थे। लोक नाट्य लिखने की उदीर्ध परंपरा गंगादास जी ने प्रचलित की। पं॰ शंकरदास जी ने संत गंगादास को लेकर खोज की थी। रागिनी लिखते समय अंतिम कड़ी में अपना नाम जोड़ना गंगादास जी से ही शुरू होती है, जिसे ‘छाप’ कहते हैं। रागिनी का लेखन 04 कड़ियों का होता है। जिसकी शुरूआत गंगादास जी ने की थी। स्त्री पुरूष के संबंध को लेकर गंगादास जी ने रागिनी लिखी। परस्त्री को देखनेवाले नरकगामी होते हैं। ये कवि हमारे शिक्षक भी होते थे। कौरवी लोकभाषा में गंगादास जी से पहले न इतनी सुंदर कुंडलियाँ लिखी गई न ही उसके बाद। संत गंगादास ने कबीर के अंदाज में हिंदू और मुसलमान दोनों को लताडते हैं। उच्च जाति में जन्म लेने वाला श्रेष्ठ नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ कर्म करने वाला ही उच्च वर्ग है। रैदास के बेगमपुर के बरक्श ये अनुभवपुर की कल्पना करते हैं। कबीर के यहाँ अमरदेशवा है।

श्री कौशल कुमार ने कहा कि पुरानी रागिनी को इक्ट्ठा किया जाना चाहिए। चंद्रहास के सांग में लोक समाज की मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। कौरवी संतों में संत गंगादास - शंकरदास - नत्थूमावी - मांगेराम इत्यादि हैं। खड़ी बोली में सर्वाधिक काम श्री राधेश्याम ने किया है। 

सत्र का संचालन डॉ॰ प्रवीण कटारिया ने किया।


समापन सत्र - 

डॉ॰ रामातक्षक ने कहा कि हमने जो नहीं लिखा, उस पर शोध होना जरूरी है। यदि इसे संतत्व की दृष्टि से देखें तो जन्म की तैयारी के साथ-साथ मृत्यु की तैयारी भी कर सकते हैं। संत गंगादास जीवन को समझने के लिए दो बातों पर बल देते हैं- एक स्वीकारभाव और दूसरा साक्षीभाव। यही संतत्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस जगत में दूसरे का होना और आपका होना दो बातें हैं। स्वयं को जानों। संत गंगादास ने कहा है कि शांत मन के तल पर ही परमात्मा का स्थल है। जीवन के सत्य को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि आप मांद से बाहर नहीं आ जाते। तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना ही पडेगा। संत कहता है कि उस राह चले जाओ जहाँ तुम सम्राट बन सको अथवा ज्ञान की राह पकड़ लो।

सत्र का संचालन डॉ॰ यज्ञेश कुमार ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ॰ आरती राणा ने किया।

इस अवसर पर डॉ॰ यज्ञेश कुमार, डॉ॰ अंजू, डॉ॰ विद्यासागर सिंह, डॉ॰ योगेन्द्र सिंह, विनय, पूजा, रेखा, सचिन, अरशदा, एकता, आयूषी, मोनिका, विक्रांत, शिवा, साजिद आदि उपस्थित रहे।
























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