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Saturday, April 5, 2025

‘संत गंगादास का साहित्यक अवदान’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

दिनांक 21 फरवरी 2025 को हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में ‘संत गंगादास का साहित्यक अवदान’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। 

उद्घाटन सत्र - कौरवी लोक साहित्य और संत गंगादास

सत्र की अध्यक्षता प्रो॰ वेदप्रकाश वटुक ने की। उन्होंने कहा कि सुमन जी ने संत गंगादास पर महत्वपूर्ण कार्य किए। लोक परंपरा का ही लोक है। यदि लोक साहित्य मौखिक हो तो क्या वह लोक साहित्य नहीं रहेगा। हमने लोक साहित्य के टैक्स्ट तो बहुत इक्ट्ठे किए है लेकिन उनसें संदर्भित प्रसंगों को विस्मृत कर दिया है। यदि हमंे पहेलियों पर काम करना हो तो उसका व्यवहारिक अनुप्रयोग होना चाहिए। लोक साहित्य भी संदर्भ के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। उदाहरण के लिए विवाह में गाये जाने वाली गालियाँ। आर्य समाज के प्रभाव से यह सब खत्म हुआ। फिर गुरूकुल से संबंधित गीत गाये जाने लगे। आखिरकार फिल्मों का प्रभाव पड़ा और लोक गीत गायब होने लगे। अंत में उन्होंने कहा कि जब तक लोक समाज रहेगा तब तक लोक साहित्य रहेगा।

प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने कहा कि हिंदी विभाग में कौरवी लोक साहित्य को लेकर महत्वपूर्ण काम किए गए। कौरवी बोली के साहित्य को सामने लाने के लिए व्याकरण एवं शब्दकोश की आवश्यकता पड़ती है। कौरवी बोली के शब्दकोश को प्रकाश में लाने में हिंदी विभाग का योगदान रहा है। विभाग ने कौरवी लोक साहित्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया तथा अध्ययन-अध्यापन में कौरवी को स्थान दिलाया। वर्तमान में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में कौरवी लोक साहित्य पर कई महत्वपूर्ण शोध कार्य हो रहे हैं। संत गंगादास जी की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में लिखी हुई रचनाएँ हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। हिंदी विभाग के भवन का नाम संत गंगादास भवन रहा गया है। 

प्रो॰ नीलम राठी ने बीजवक्ता के रूप में कहा कि कुरू प्रदेश का साहित्य जिसकी पहचान कुरू वंश से है। जिसका स्थान मेरठ रहा है। जब हम भारतीय ज्ञान परंपरा एवं क्षेत्रीय व जनपदीय साहित्य की बात करते हैं तब संत गंगादास जी की चर्चा महत्वपूर्ण हो जाती है। आज जो हायतोबा मची हुई है उसमें संत साहित्य महत्वपूर्ण हो जाता है। चरित्र निर्माण एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए यह कार्य अति महत्वपूर्ण है। लोक नाटकों में जैसे शिव-पार्वती विवाह संत गंगादास जी की महत्वपूर्ण कृति है। जो सदियों से लोक में प्रचलित था उसको समाज में पहुँचाने का कार्य संत गंगादास जी ने किया। संत गंगादास जी ने अंग्रेजो को भी राजधर्म की याद दिलाई। झांसी की रानी को भी संत गंगादास राजधर्म की याद दिलाते हैं और उन्हें यह भी कहते हैं कि आपको आगे बढ़कर नेतृत्व करना होगा। उन्होंने अपना काव्य लोक समाज तक पहुँचाना चाहा। सत गंगादास जी गंगा मैया के दिल के बहुत करीब थे। वे श्री गंगाशेष महिमा लिखते हैं। हमें नदियों को नदियों से नहीं जोड़ना चाहिए बल्कि लोगों को नदियों से जोड़ना चाहिए।

श्री कर्मवीर सिंह ने कहा कि कौरवी क्षेत्र में जितने महत्वपूर्ण कवि एवं संत हुए हैं उन्हें संत गंगादास जमीन तैयार करके देते हैं। गंगादास जी ने भारतीय संस्कृति में गंगा को अति महत्वपूर्ण माना। उन्होंने दो सौ से अधिक पद गंगा पर लिखे। बक्सर (बिहार) के उदासी पंथ से भी गंगादास जी का जुड़ाव था। संत गंगादास का साहित्य स्वयं में विविध विषयों को समेटता है। लोक साहित्य के लेखकों पर शोध कार्यों को बढ़ावा मिलना चाहिए। जब तक हम अपनी भाषा में खडे़ नहीं होंगे तब राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता। गंगादास जी पर जितना काम होगा उतना ही नए नए विषय शोध के लिए उभरकर आएंगे।

  डॉ॰ हरिसिंह पाल - मुख्यधारा के साहित्य में लोक साहित्य को स्थान नहीं मिला। हिंदी साहित्य के इतिहास में भी यही बात हुई। यदि हम अपनी बोली भाषाओं को लिपिबद्ध नहीं करेंगे तो यह दुनिया से गायब हो जाएगी। लगभग 6000 स्थानीय भाषाओं का साहित्य विलुप्त प्राय है। 8 कोस पर वाणी बदल जाती है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर लोक साहित्य को संग्रहित करने की जरूरत है। नई शिक्षा नीति 2020 में भी यह बात है कि आपको बोली भाषाओं का संरक्षण करना है। संत कबीर की परंपरा संत गंगादास तक पहुँची है। कविता की भाषा ब्रजभाषा थी। तुलसी तक को कवितावली और गीतावली लिखनी पड़ी। कोई विद्वान जब तक ब्रजभाषा में नहीं लिखता तब तक उसको विद्वान नहीं माना जाता। संत गंगादास जी हमारी लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए इनका अध्ययन जरूरी है।

उद्घाटन सत्र में उपस्थिति अतिथियों द्वारा ‘भारतीय मातृभाषाओं का भविष्य’ सं॰ डॉ॰ रामातक्षक की पुस्तक का लोकापर्ण हुआ।

उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ॰ आरती राणा ने किया।


द्वितीय सत्र - लोक भाषा, लोक काव्य और संत गंगादास

प्रो॰ सुचित्रा मलिक ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि गंगादास जी की कविता जनमानस मंे गायी जाती थी। लोक संस्कृति पर नागरी संस्कृति की प्रभाविता के चलते लोक गायब हो गया। वृंदावनलाल वर्मा ने जनमानस को बताया कि गंगादास जी रानी लक्ष्मीबाई के गुरू थे। संत गंगादास जी ने लोक को परलोक से जोड़ा। लोक का जो लालित्य जनन्नाथदास के साहित्य में देखने को मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है।   

प्रो॰ कविता त्यागी ने कहा कि ग्रियर्संन ने कौरवी को देशज हिंदी (कौरवी) और राहुल सांकृत्यायन ने जनपदीय भाषा (कुरू) कहा। स्थानीय स्तर पर जो खुशियाँ मनाते हैं वही लोक है और उससे संबंधित साहित्य लोक साहित्य है। लोक साहित्य जन्म, विवाह, मृत्यु से संबंधित है। लोक से संबंधित पांच खम्भे हैं - लोक भाषा, लोक गीत, लोक कथा, लोक नाट्य, प्रर्कीण लोक साहित्य। विद्यार्थी अम्बेदास, फूल सिंह, घासीराम, दीवानदास आदि पर भी शोध कार्य कर सकते हैं।  देहि लोकम् - ऋवेद में आया।

अशोक के शिलालेख में प्रजा के लिए लोक प्रयुक्त हुआ है। लोक साहित्य प्रवृति का एक ऐसा उद्यान है जो संतो ंके उद्यान का फूल नहीं है। लोक साहित्य का संदर्भ लोक से आनुवांशिक रूप से जुड़ा है। लोक कवि आज जन से ही होते हैं- संत गंगादास/गंगा। आरंभिक दौर मंे गंगादास जी उदासी संप्रदास से जुडे़। उनके गुरू ने उन्हें बनारस भेजा। वे लगभग 20 वर्षों तक बनारस में शिक्षा ग्रहण करते रहे। 19 वीं सदी धार्मिक संप्रदायों का बोलबाला था लेकिन गंगादास जी कभी ने वेद आदि पंरपरा की अवहेलना नहीं की। 1855 में वे ग्वालियर चले गए। रानी लक्ष्मी बाई ने उनसे प्रश्न किया, बाबा स्वराज की स्थापना कैसे होगी ? बाबा का जवाब था, तुम एक पत्थर (स्वराज) लगा दो, आंशिक सफलता मिल जाएगी। लक्ष्मीबाई की मृत्यु के पश्चात बाबा ने उनका दाह संस्कार किया। निर्गुण पंरपरा से संबद्ध संत गंगादास ने सामाजिक आचार व्यवहार पर खूब बात की।

प्रो॰ राजेन्द्र बड़गूजर ने कहा कि रागिनी के प्रवर्तक संत गंगादास जी थे। लोक नाट्य लिखने की उदीर्ध परंपरा गंगादास जी ने प्रचलित की। पं॰ शंकरदास जी ने संत गंगादास को लेकर खोज की थी। रागिनी लिखते समय अंतिम कड़ी में अपना नाम जोड़ना गंगादास जी से ही शुरू होती है, जिसे ‘छाप’ कहते हैं। रागिनी का लेखन 04 कड़ियों का होता है। जिसकी शुरूआत गंगादास जी ने की थी। स्त्री पुरूष के संबंध को लेकर गंगादास जी ने रागिनी लिखी। परस्त्री को देखनेवाले नरकगामी होते हैं। ये कवि हमारे शिक्षक भी होते थे। कौरवी लोकभाषा में गंगादास जी से पहले न इतनी सुंदर कुंडलियाँ लिखी गई न ही उसके बाद। संत गंगादास ने कबीर के अंदाज में हिंदू और मुसलमान दोनों को लताडते हैं। उच्च जाति में जन्म लेने वाला श्रेष्ठ नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ कर्म करने वाला ही उच्च वर्ग है। रैदास के बेगमपुर के बरक्श ये अनुभवपुर की कल्पना करते हैं। कबीर के यहाँ अमरदेशवा है।

श्री कौशल कुमार ने कहा कि पुरानी रागिनी को इक्ट्ठा किया जाना चाहिए। चंद्रहास के सांग में लोक समाज की मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। कौरवी संतों में संत गंगादास - शंकरदास - नत्थूमावी - मांगेराम इत्यादि हैं। खड़ी बोली में सर्वाधिक काम श्री राधेश्याम ने किया है। 

सत्र का संचालन डॉ॰ प्रवीण कटारिया ने किया।


समापन सत्र - 

डॉ॰ रामातक्षक ने कहा कि हमने जो नहीं लिखा, उस पर शोध होना जरूरी है। यदि इसे संतत्व की दृष्टि से देखें तो जन्म की तैयारी के साथ-साथ मृत्यु की तैयारी भी कर सकते हैं। संत गंगादास जीवन को समझने के लिए दो बातों पर बल देते हैं- एक स्वीकारभाव और दूसरा साक्षीभाव। यही संतत्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस जगत में दूसरे का होना और आपका होना दो बातें हैं। स्वयं को जानों। संत गंगादास ने कहा है कि शांत मन के तल पर ही परमात्मा का स्थल है। जीवन के सत्य को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि आप मांद से बाहर नहीं आ जाते। तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना ही पडेगा। संत कहता है कि उस राह चले जाओ जहाँ तुम सम्राट बन सको अथवा ज्ञान की राह पकड़ लो।

सत्र का संचालन डॉ॰ यज्ञेश कुमार ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ॰ आरती राणा ने किया।

इस अवसर पर डॉ॰ यज्ञेश कुमार, डॉ॰ अंजू, डॉ॰ विद्यासागर सिंह, डॉ॰ योगेन्द्र सिंह, विनय, पूजा, रेखा, सचिन, अरशदा, एकता, आयूषी, मोनिका, विक्रांत, शिवा, साजिद आदि उपस्थित रहे।
























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