साहित्येत्तर हिंदी लेखन पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठीप्रस्तुति : प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी
हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
प्रो० रामशरण जोशी ने कहा कि हिन्दी को लेकर एक आम धारणा बन गई है कि यह केवल कविता, कहानी, उपन्यास आदि साहित्यिक विधाओं की भाषा है, इसमें ज्ञान-विज्ञान नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर ही इसमें साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त भी लेखन होता रहा है। अन्य विषयों में भी हिन्दी लेखन काफी समय से हो रहा है। यह विचार आज चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के बृहस्पति भवन में हिन्दी विभाग की ओर से आयोजित ’साहित्येतर हिन्दी लेखन‘ विषय पर दो दिवसीय संगोष्ठी के उद्घाटन भाषण में प्रो० रामशरण जोशी ने व्यक्त किए। संगोष्ठी का उद्घाटन विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय प्रो० एस० के० काक और मुख्य अतिथि केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष प्रो० रामशरण जोशी ने माँ सरस्वती के चित्र पर मार्ल्यापण एवं दीप प्रज्ज्वलित कर किया।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र ’समाज विज्ञान और हिन्दी‘ का विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो० रामशरण जोशी ने कहा कि हिन्दी को लेकर एक आम धारणा बन गई है कि यह केवल कविता, कहानी, उपन्यास आदि साहित्यिक विधाओं की भाषा है, इसमें ज्ञान-विज्ञान नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर ही इसमें साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त भी लेखन होता रहा है। सरस्वती के संपादक और हिन्दी के उन्नायक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सम्पत्तिशास्त्र पर एक किताब लिखी थी। उससे भी पहले स्त्री समस्या आदि विभिन्न विषयों पर इक्का-दुक्का लेख लिखे जा चुके थे। इसके बाद हंस, प्रताप, दिनमान, दैनिक हिन्दुस्तान व धर्मयुग आदि पत्र-पत्रिकाओं में समाज विज्ञान के विषयों पर अनेक लेख लिखे गए। प्रो० जोशी ने कहा कि इस सब के बावजूद उस समय हिन्दी पाठक की मानसिकता साहित्यिक होने के कारण इस प्रकार की किताबें नहीं बिकी। इसका प्रभाव यह हुआ कि आज भी हिन्दी में समाज विज्ञान के विषयों में मौलिक लेखन का आभाव है और हिन्दी में समाज विज्ञान का लेखन मुख्य धारा नहीं बन पाया। उन्होंने कहा कि आजकल साहित्येतर पाठकों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है। इस समय लघु पत्रिकाओं में साहित्येतर विषयों पर काफी सामग्री प्रकाशित की जा रही है, इससे मौलिक लेखकों को प्रोत्साहन मिल रहा है। आज मीडिया को लेकर मौलिक लेखन हाथों हाथ बिक रहा है। कोई भी भाषा आज केवल शुद्ध साहित्य केन्द्र पर टिकी नहीं रह सकती। हिन्दी के लेखकों और बुद्धिजीवियों को नई दृष्टि से नये परिप्रेक्ष्य में हिन्दी को लिखने की प्रवृत्ति विकसित करें।
अध्यक्षीय वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कुलपति माननीय प्रो० एस० के० काक ने कहा कि हिन्दी में विज्ञान, तकनीक, इलैक्ट्रोनिक्स आदि विषयों में भी लिखना होगा। काशी हिन्दी वि०वि० में १९८० से विज्ञान विषय के शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा रहे हैं। यहाँ भी हमें इसी प्रकार का प्रयास करना चाहिए। हमारी कोशिश हो कि हिन्दी का विकास सिर्फ भारत में ही नहीं वरन् पूरी दुनिया में होना चाहिए।
संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए प्रो० कमल नयन काबरा ने कहा खुद को आम आदमी से जोड़े बिना कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती। हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि हम अपना काम अपनी भाषा में क्यों नहीं करते। हमें जनता के सरोकारों को समझना होगा। ऐसा कोई भी विषय नहीं है चाहे वह समाज विज्ञान हो या प्राकृतिक विज्ञान उसके सार तत्व को हिन्दी के माध्यम से समझाया जा सकता है उन्होंने कहा कि आज के दौर में हमारे देश में वैज्ञानिक परिवर्तन तो आया है लेकिन मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ। हम आज भी उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं और अँग्रेजी में लिखने बोलने को लेकर श्रेष्ठता ग्रंथि से पीड़ित हैं। उन्होंने कहा कि हमें खुद को वैचारिक रूप से स्वतन्त्र बनाना होगा और समाज के सवालों को उठाकर उन्हें जनता के दृष्टिकोण से देखना होगा। इसके लिए भाषा को जनता से जोड़ना जरूरी है। उन्होंने आग्रह किया कि साहित्येत्तर हिन्दी लेखन कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो भी लिखा जा रहा है सब साहित्य है।
सामायिक वार्ता के संपादक डॉ० प्रेम सिंह ने कहा कि हिन्दी भाषी बौद्धिक समाज हिन्दी भाषा के साथ न्याय नहीं कर पा रहा है। भाषा का सवाल सरोकारों ���ा सवाल है। आज विभिन्न जनान्दोलनों के माध्यम से एक विशेष प्रकार की हिन्दी का विकास हो रहा है। इसका अपना अलग साहित्य है, जिसके दो भाग हैं :- पहला गंभीर लेखन और पर्चे व पुस्तिकाएँ जिसमें आम लोगों की भाषा में गंभीर चीजें समझाने की कोशिश की जा रही है। इस सब को पाठ्यक्रम में शामिल करने से हिन्दी की भूमिका बढ़ेगी।
डॉ० प्रेम सिंह ने कहा कि हिन्दी में जो भी साहित्य लिखा जा रहा है वह तो मान्यता प्राप्त करता गया परंतु किसी भी साहित्यकार ने कोई गंभीर साहित्येतर लेखन भी किया तो उसे आलोचकों ने गंभीरता से नहीं लिया। इससे हिन्दी का नुकसान हुआ।
कार्यक्रम में प्रो० अर्चना शर्मा ने कहा कि राजनीति विज्ञान सहित समाज विज्ञान के विषयों में लेखन जो हो रहा है वह महत्वपूर्ण है मैंने गत दिनों में कई भारतीय प्रकाशकों की हिन्दी में प्रकाशित सूचियों को देखा तो उसमे प्रर्याप्त हिन्दी लेखन सामग्री दिखाई दी। उन्होंने यह भी कहा आज भी कई विद्यार्थी जब हिन्दी मीडियम छोड़ते हैं तो उन्हें भारी दिक्कत होती है परन्तु उन्हें दुविधा होती है जिसका कोई समाधान भी नहीं हैं।
इस अवसर पर वक्ताओं के अतिरिक्त डॉ० एस० के० कालरा, डॉ० गुरमीत सिंह, डॉ० अशोक कुमार, वेदप्रकाश ’वटुक‘ तथा साधक कौशिक ने भी विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी ने किया। इस अवसर पर डॉ० नवीन चन्द्र लोहनी द्वारा लिखित खड़ी बोली के प्रमुख रचनाकार तथा रचनाएँ (सन्दर्भ मेरठ मण्डल) पुस्तक का विमोचन किया गया।
संगोष्ठी का द्वितीय सत्र ’विज्ञान और हिन्दी” पर केन्द्रित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता भारत के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष प्रो० के० विजयकुमार और संचालन प्रो० वाई० विमला ने किया।
सत्र के अध्यक्ष के० विजय कुमार ने कहा कि लोगों में एक भ्रांत धारणा विद्यमान है कि हम सोचते हैं किसी और भाषा में हैं और बोलते हैं दूसरी भाषा में। ऐसा नहीं है अपने आसपास के वातावरण से जो कुछ हम सीखते हैं उसे ही बोलते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी के माध्यम से विज्ञान की कुछ चीजें लोगों के सामने आ रही हैं। हिन्दी में तकनीकी शब्दावली बहुत कठिन नहीं है। हमें धीरे-धीरे अँग्रेजी को हटाने और हिन्दी को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। प्रो० के० विजय कुमार ने कहा कि भाषाओं के विकास में हमें यह ध्यान जरूर देना है कि सभी चीजें भाषा की प्रकृति के अनुसार तैयार हों। जब तक हम किसी शब्द के परिवेश को नहीं जानते तब तक उसके बारे में अभिव्यक्ति तैयार करना उचित नहीं होता। उन्होंने कई उदाहरण देकर अपने विषय को रखा और दावा किया कि भारतीय भाषाएँ और हिन्दी का विकास तीव्रता से हो रहा है।
इस सत्र का विषय प्रवर्तन करते हुए मुख्य अतिथि नारायण कुमार ने कहा कि आधुनिक भारत के निर्माण में बौद्धिक, सांस्कृतिक और वैचारिक विकास की उपेक्षा कर सिर्फ आर्थिक विकास पर जोर दिया गया, इसका खामियाजा हमें बाद में भुगतना पड़ा। अँग्रेजी आज विज्ञान की भाषा बनी हुई है। उन्होंने कहा कि जब तक हम अपनी मातृभाषा में अध्ययन नहीं करते तो वैश्विक स्तर पर मौलिक अनुसंधान नहीं पाएँगे। बिना भारतीय भाषा में ज्ञान-विज्ञान के विकास के हम अपने देश का विकास नहीं कर सकते। उन्होंने बताया कि तकनीकी शब्दावली आयोग ने सरल शब्दों का निर्माण किया ताकि हिन्दी में भी विज्ञान लेखन किया जा सके।
विज्ञान लेखन के लिए कई वैज्ञानिक पुरस्कारों से पुरस्कृति सुभाष चन्दर ने कहा कि आज विज्ञान लेखन में रोजगार की व्यापक संभावनाएँ है। हिन्दी में विज्ञान लेखन की आज अत्याधिक आवश्यकता है। उन्हने कहा कि हिन्दी के छात्र-छात्राओं को विज्ञान लेखन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए जिसमें रोजगार की प्रयाप्त संभावना है।
रेलवे बोर्ड के संयुक्त सचिव तथा वैज्ञानिक लेखन के लिए प्रसिद्ध डॉ० प्रेमपाल शर्मा ने हिन्दी में विज्ञान लेखन की वर्तमान दशा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जब अपनी भाषा में चिंतन मनन कम होने लगता है तो हम आगामी पीढ़ी को कुछ नया नहीं दे पाते। आज बढ़ते हुए अंधविश्वास पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे मध्यवर्ग की वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे ज्योतिष की भी बढ़ोत्तरी हो रही है। जो कि वैज्ञानिक चिंतन और सोच के लिए अच्छा नहीं है।
वैज्ञानिक विपिन शुक्ला ने कहा कि आने वाला समय हिन्दी का होगा। देश में केवल ५ प्रतिशत लोगों को ही अँग्रेजी की समझ है। बाकी लोग हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में सोचते व बोलते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी में विज्ञान के क्षेत्र में काफी काम हुआ है और हमें उसका उपयोग करना चाहिए। उन्होंने खुशी जताई कि हिन्दी में पर्याप्त वैज्ञानिक लेखन हो रहा है लेकिन इससे संतुष्ट होने की बात नहीं है।
विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के तकनीकी बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ० शिशर गोयल ने बताया कि आज हिन्दी में काफी विज्ञान लेखन किया जा रहा है। आज के बाजारीकरण के दौर में जो चीज बिकती है उसका प्रचार होने लगता है। देश की ८० प्रतिषत जनता हिन्दी भाषा को समझती है। अतः इसी भाषा में विज्ञान लेखन करना चाहिए। उन्होंने जोर दिया कि हिन्दी को रोजगार और बाजार की भाषा बनाना चाहिए।
दिनांक ३० सितम्बर २००८
भविष्य की हिन्दी ब्लॉग और इन्टरनेट के माध्यम से अपनी पहचान बना रही है। यह विचार प्रो० हरिमोहन ने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी “साहित्येतर हिन्दी लेखन” दूसरे दिन “सूचना प्रौद्योगिकी एवं मीडिया में हिन्दी” नामक तृतीय सत्र में कहे।
कार्यक्रम में हिन्दी विभाग द्वारा प्रकाशित विभागीय पत्रिका ’मंथन‘ के इन्टरनेट संस्करण (ब्लॉग) का विमोचन किया गया। “सूचना प्रौद्योगिकी एवं मीडिया में हिन्दी” विषय पर बोलते हुए दूरदर्शन से आये डॉ० अमरनाथ ’अमर‘ ने कहा कि दूरदर्शन अपनी स्थापना से अब तक व्यापक रूप धारण कर लिया है। उन्होंने कहा कि दूरदर्शन सदैव साहित्यिक गतिविधियों में अग्रणी रहा है और भविष्य में भी यह साहित्य और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम दर्शकों तक पहुँचाता रहेगा।
उपेन्द्र सिंह ने अपनी वक्तव्य में कहा कि हम यह मानकर नहीं चल सकते की हिन्दी की चुनौतियाँ खत्म हो गई है। बल्कि इसके प्रचार-प्रसार से हिन्दी की चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं। हिन्दी की विदेशी दूतावासों में अपनी अलग पहचान है। वहाँ कई दूतावासों से हिन्दी-पत्रिका भी प्रकाशित होती हैं। जिन्हें मीडिया द्वारा भी पूरा सहयोग मिलता है।
डॉ० स्वतन्त्र कुमार जैन ने कहा कि हिन्दी संचार की भाषा है और मीडिया में हिन्दी भाषी अखबारों की बहुत महत्ता होती है। उन्होंने कहा कि समाज में हिन्दी को लेकर बहुत सी कठिनाईयाँ भी आती हैं। उन्होंने कहा कि आप व्यवसाय कुछ भी हो लेकिन आधार हिन्दी ही होना चाहिए। हमें हिन्दी दिवस को ज्ञान दिवस के रूप में मनाना चाहिए। डॉ० जैन ने बताया कि हिन्दी के तीन रूप होते हैं :- भक्तिकाल, गद्यकाल और आधुनिक काल। पूरा हिन्दी साहित्य इन्हीं रूपों में समाहित है। अन्त में उन्होंने कहा कि हमें हिन्दी को आवश्यकता के रूप में लेकर संकल्प करके हिन्दी का विकास करना चाहिए।
श्री अनिल जोशी ने प्रो० लोहनी को आयोजन की बधाई देतु हुए बताया कि आज हिन्दी में अन्य भाषाओं की अपेक्षा कम सतर पर ब्लॉग बनाये जा रहे हैं। जहाँ अँग्रेजी के ३० करोड़ ब्लॉग इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं वहीं हिन्दी ब्लागों की संख्या लगभग पाँच हजार तक सीमित है। उन्होंने कहा कि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है जिसको १२ से १६ घन्टों के अभ्यास के बाद कम्प्यूटर पर टाईप किया जा सकता है।
हिन्दी ब्लॉग के बारे में बताया कि ब्लॉग के लिए पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है। ब्लॉग मुफ्त में इन्टरनेट पर बनाये जा सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि समाज में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य को होती है लेकिन कई बार उसे अभिव्यक्ति के लिए साधन नहीं मिल पाते। परन्तु वर्तमान में इन्टरनेट और ब्लॉग ने इस कमी को भलीभाँति पूरा किया है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि उसे हर कोई समझ सके।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो० हरिमोहन ने कहा कि ब्लॉग और इन्टरनेट के माध्यम से कोई भी योगदान तीव्र गति से पाठक तक पहुँच जाता है। दुनिया के सभी कोनों से हिन्दी के ब्लॉग लिखे जा रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र. में भारत अभी बहुत पीछे नज़र आता है। हमें ब्लॉग को कैसे रचनात्मक बनाया जा सकता है इसकी कोशिश करनी चाहिए। अन्त में उन्होंने अपने वक्तव्य में जोड़ते हुए कहा कि आज ब्लॉग अभिव्यक्ति का सरल और स्वतन्त्र वाहक है।
इस सत्र में डॉ० अमर नाथ ’अमर‘ की पुस्तक का विमोचन किया गया। यह टेलीविजन पर पहली पुस्तक है जो पहली बार प्रकाशित हुई है। साथ ही इस अवसर पर हिन्दी विभाग की पत्रिका ’मंथन‘ के इन्टरनेट ब्लॉक का भी विमोचन किया गया।
तीसरे सत्र की अध्यक्षता प्रो० जे० के० पुण्डीर ने की तथा संचालन डॉ० अशोक मिश्र ने किया।
संगोष्ठी के चौथे तथा समापन सत्र “विधि, बैंकिग, रेलवे, शासन-प्रशासन आदि क्षेत्रों में हिन्दी के विषय में मुख्य वक्ता प्रो० वेदप्रकाश ’वटुक‘ ने कहा कि समाज में नारियों की स्थिति बहुत ही नाजुक है। आज भी समाज नारी को पैर की जूती समझते हैं। उन्होंने अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए “An Advance Hindi Reader” पुस्तक के बारे में बताया कि पहले समय के रहन-सहन, खान-पान और वर्तमान में किस तरह के बदलाव हुए हैं। अन्त में उन्होंने कहा कि आतंकवाद का सफाया नहीं किया तो न तो हिन्दी कुछ कर सकती है और न ही साहित्य।
बैंकिग के क्षेत्र में हिन्दी प्रयोग पर बोलते हुए डॉ० राजेन्द्र सिंह ने कहा कि बैंक में आज हम हिन्दी और अँग्रेजी दोनों ही भाषाओं में कार्य करते है। बैंकिग सुविधाओं ने आज गाँव के लोगों में यदि स्थान पाया है तो हिन्दी भाषा के महत्वपूर्ण योगदान है। एस० पी० त्यागी ने कानून में हिन्दी भाषा के प्रयोग पर बोलते हुए कहा कि हर भाषा, सभ्यता का एक अलग महत्व होता है। उन्होंने बताया कि पहले न्यायालय में सभी कार्य अँग्रेजी में होता था परन्तु आज परिस्थितियाँ धीरे-धीरे बदल रही हैं, उन्होंने आगे कहा कि वर्तमान में हिन्दी का विकास तेजी से हो रहा है। मध्यप्रदेश में २० प्रतिशत निर्णय हिन्दी भाषा में देना अनिवार्य है।
कानूनी हिन्दी विकास के लिए अपने विवेक को बहुत महत्व है। आगे उन्होंने कहा कि कानून की जानकारी नहीं होने का अर्थ है कि आपका डिफेन्स नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भाषा में कानून का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।
एस० प० त्यागी ने कहा कि गैर परम्परावादी साहित्य का सीधा संबंध साहित्य से है। हिन्दी में माँ सरस्वती का सर्वोत्तम उपहार है। उन्होंने कहा कि मातृभाषा और भाषा को समझने में काफी अन्तर है। एस० पी० त्यागी ने हिन्दी का विधि और प्रशासन में महत्व को बताते हुए कहा कि मातृभाषा का एक मूल तत्व है कि अपनी बात अपनी भाषा में अपन ढंग से कही जाये। वक्तव्य के अन्त में उन्होंने कहा कि देश का दुर्भाग्य यह है कि हमने आजादी तो प्राप्त कर लिया है पर राष्ट्रीयता अभी तक प्राप्त नहीं कर पाये हैं।
विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति माननीय प्रो० एस० वी० एस० राणा ने सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि जब हम ब्रिटेन में जाते हैं तो वहाँ हिन्दु और हिन्दी एक हो जाते हैं। उन्होंने अपने विदेश भम्रण के अनुभव अपने अध्यक्षीय भाषण में बाँटे। उन्होंने कहा कि लोक सेवा आयोग, विज्ञान आदि के प्रश्न पत्रों की भाषा माध्यम अँग्रेजी थी किन्तु अब हिन्दी में भी प्रश्नपत्र बनाये जाते हैं।
मंच का संचालन डॉ० प्रज्ञा पाठक ने किया तथा कार्यक्रम के अन्त में प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी वक्ताओं का धन्यवाद देते हुए संगोष्ठी का समापन किया।
संगोष्ठी में डॉ० सूरजपाल शर्मा, अशोक मिश्र, रवीन्द्र कुमार, राजेश, अरुण, बिल्लू, विवेक, जोगिन्दर, गजेन्द्र सिंह, अंजू, कनिका, रश्मि, अनिल, सुनील, ललित, मोनू तोमर आदि छात्र-छात्राएँ उपस्थित रहे। इस सत्र में डॉ० अमर नाथ ’अमर‘ की पुस्तक का विमोचन किया गया। यह टेलीविजन पर पहली पुस्तक है जो पहली बार प्रकाशित हुई है। साथ ही इस अवसर पर हिन्दी विभाग की पत्रिका ’मंथन‘ के इन्टरनेट ब्लॉक का भी विमोचन किया गया।
संगोष्ठी में डॉ० विरेन्द्र शर्मा, कौशल कुमार, डॉ० सूरजपाल शर्मा, डॉ० प्रज्ञा पाठक, डॉ० प्रवेश सोती, डॉ० एस० के० दत्ता, डॉ० असलम जमशेदपुरी, डॉ अशोक कुमार मिश्र, ईश्वर चन्द्र गंभीर, ज्वाला प्रसाद कौशिक, ब्रह्मप्रकाश यादव, ललित तारा, डॉ० असलम खान, कुलदीप, गजेन्द्र, ऋतु सिंह, सीमा शर्मा, दीपा, अलका, वर्षा, नीलम राठी, नीलू धामा, अंजू, संजय, विवेक, मोनू, बिल्लू, अंचल, ममता, जोगिन्द्र, राजेश ढाडा, ललित सहित विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालयों के शिक्षक, छात्र-छात्राएँ तथा साहित्यकार उपस्थित रहे।
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