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Tuesday, September 14, 2010

"जब हिन्दी बोले, गर्व से बोले........., हीन भावना से न बोलें "

‘‘देश को आजाद हुए वर्षो बीत गये, हिन्दी के भविष्य लेकर आज हम बहस करेें यह बेतुका लगता है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी का भविष्य खतरे मेें है’’ यह विचार हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी विभाग में आयोजित संगोष्ठी ‘‘हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी’’ में दिल्ली से आयी हिन्दी दुनियाँ की जानी मानी समीक्षक प्रो0 निर्मला जैन ने व्यक्त किये।
उन्होंने कहा कि भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में 550 से भी अधिक केन्द्रों पर वर्तमान में हिन्दी पढाई जा रही है। इसका श्रेय बाजारवाद को है। विज्ञापन की भाषा, मीडिया की भाषा, फिल्मों की भाषा आज हिन्दी है। यह पंडितों की भाषा नहीं है, बल्कि गली-बाजार की भाषा है, समाचार पत्रों की भाषा है। आज हिन्दी के पत्रों में वृद्धि हुई है। वे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं। उन्होनंे कहा जब हिन्दी बोले, गर्व से बोले हीन भावना से न बोलें।


संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 एन0 के0 तनेजा ने कहा कि भारत की प्राचीनतम भाषा हिन्दी की अभिवृद्धि में उसकी वैश्विक पहचान बनाने में योगदान करें। यह सौभाग्य का विषय होगा। वास्तव में पराधीनता के वर्षों में हिन्दी की जो वृद्धि होनी चाहिए थी वह अवरूद्ध हुई। परन्तु वैश्वीकण के युग में यह मानव पूंजी है और विश्व में मानव पूंजी का स्थान बढ़ रहा है। इससे हिन्दी के मान सम्मान और पहचान में वृद्धि होगी।


कला संकायाध्यक्ष प्रो0 अर्चना शर्मा ने हिन्दी विभाग के प्राध्यापकों एवं छात्र-छात्राओं का उत्साहवर्द्धन करते हुए कहा कि सतत् संघर्षशील रहें और हिन्दी को एक नई पहचान दिलाने का प्रयास करें। उन्होंने राष्ट्रमंण्डल खेलों में हिन्दी प्रयोग की पहल हिन्दी विभाग से होने के कारण विभाग कोे बधाई दी।


विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त किया और कहा कि राजभाषा अधिनियमों के तहत हम क्या-क्या उन्नति कर पाये इस बात पर आज विचार किया जाना चाहिए। राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग की बात की गई तो बुद्धिजीवी वर्ग ने इसका समर्थन किया है। हमारी इस शुरूआत से आज राष्ट्रमण्डल खेलों के सारे बैनर, होर्डिग आदि हिन्दी में लगाये गए हैं। ये हमारी उपलब्धि है। पाठ्यक्रम में भी इस वर्ष बदलाव किए गए और कौरवी साहित्य तथा प्रवासी साहित्य को पाठ्यक्रम में जोड़ा गया है। हिन्दी दुनियाँ में जो कुछ अच्छा होगा तो हमें खुशी होगी।


इससे पूर्व दिनांक 13 सितम्बर 2010 को हिन्दी विभाग में कविता प्रतियोगिता तथा आशु भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया तथा प्रतियोगिताओं में विजेता छात्र-छात्राओं को आज पुरूस्कार प्रदान किए गए। पुरूस्कार प्राप्त छात्र-छात्राओं की सूची संलग्न हैं।


संगोष्ठी का संचालन आरती राणा ने किया। इस अवसर पर डॉ0 अशोक मिश्र, कु0 नेहा पालनी, कु0 सीमा शर्मा, ईश्वर चन्द गंभीर, डॉ0 रवीन्द्र कुमार, विवेक सिंह, अंजू, ममता, अंचल, अमित, मोनू, कौशल, शिवानी, रजनी, ललित सारस्वत, आदि प्राध्यापक एवं छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।


हिन्दी दिवस 2010 के अवसर पर हिन्दी विभाग में आयोजित आषु भाशण एवं कविता प्रतियोगिता में पुरूस्कार प्राप्त छात्र-छात्राएं:-






कु0 कौशल  प्रथम स्थान कविता प्रतियोगिता


कु0 रजनी द्वितीय स्थान कविता प्रतियोगिता


कु0 ज्योति तृतीय स्थान कविता प्रतियोगिता


श्री नवीन सांत्वना पुरस्कार कविता प्रतियोगिता


कु0 शिवानी  सांत्वना पुरस्कार कविता प्रतियोगिता

 
श्री विवेक ंिसह प्रथम स्थान आशुभाषण प्रतियोगिता


श्री ललित सारस्वत द्वितीय स्थान आशुभाषणप्रतियोगिता


कु0 अंजू तृतीय स्थान आशुभाषण  प्रतियोगिता


श्री मोनू सिंह सांत्वना पुरस्कार आशुभाषण प्रतियोगिता


कु0 निवेदिता सांत्वना पुरस्कार आशुभाषण प्रतियोगिता






Monday, September 13, 2010

हिंदी दिवस पर हिंदी विभाग में आयोजित स्वरचित कविता और आशु भाषण प्रतियोगिता : कैमरे की नज़र से


 प्रतिभागी- कपिल
 प्रतिभागी- रजनी
 छात्र एवं  छात्राओं को संबोधित करते प्रो. नवीन चन्द्र लोहानी
 प्रतिभागी- मोनू सिंह
 प्रतिभागी- अंजू

( निर्णायक मंडल)

Thursday, August 19, 2010

‘हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता’ के विजेता ‘रूस’, ‘ब्रिटेन’, ‘बुलगारिया’, ‘हंगरी’ आदि देशों के छात्र-छात्राएं : हिन्दी विभाग में

हिन्दी विभाग
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में
दिनांक 20 अगस्त 2010 को
‘अक्षरम्’
द्वारा प्रत्येक वर्ष यूरोप में आयोजित होने वाली ‘हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता’ के विजेता ‘रूस’, ‘ब्रिटेन’, ‘बुलगारिया’, ‘हंगरी’ आदि देशों के छात्र-छात्राएं ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ द्वारा आयोजित भारत भ्रमण सांस्कृतिक यात्रा में हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में आ रहे है।


कार्यक्रम

अध्यक्षता - माननीय प्रो0 एस0के0 काक, कुलपति जी
सान्निध्य - प्रो0 अर्चना शर्मा, संकायाध्यक्ष कला
   - श्री अनिल जोशी, अध्यक्ष, अक्षरम्
          - श्री नारायण कुमार, सलाहकार विश्व हिन्दी सम्मेलन
                - प्रो0 विमलेश कांति, पूर्व प्रोफेसर हिन्दी, बुल्गारिया, फिजी
     - प्रो0 हरजेन्द्र चौधरी, प्रोफेसर हिन्दी, जापान, पोलेंड


समय - १२:00 बजे ( दिनांक 20 अगस्त 2010)
स्थान - संगोष्ठी कक्ष, हिन्दी विभाग



आपकी गरिमामयी उपस्थिति प्रार्थनीय है।



निवेदक:
प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी,
अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ फोन नं: 0121-2772455, 9412207200

Thursday, July 8, 2010

हिन्दी का इस देश में प्रभुत्व होगा

आज दिनांक 07 जुलाई, 2010 को चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ का बृहस्पति भवन राजभाषा समर्थन समिति के आयोजन की गर्मी से सराबोर रहा। वक्ताओं में पक्ष-विपक्ष में राष्ट्र मण्डल खेलों में हिन्दी प्रयोग को लेकर विचार रहे और अन्ततः प्रस्ताव पारित हुआ कि राष्ट्र मण्डल खेलों में अनिवार्यतः हिन्दी प्रयोग कराने के लिए सरकार और आयोजन संस्थाओं को कहा जाएगा। इसके लिए प्रधानमंत्री सहित राजभाषा विभाग तथा राष्ट्रपति से भी मिला जाएगा, संसद में सवाल उठेगे और दिल्ली में यहाँ के आन्दोलन की दमक पूरी शिद्दत के साथ पहुँचाई जाएगी।

मेरठ के सांसद तथा संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य राजेन्द्र अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में कहा कि वे पहले से ही राजभाषा समिति के समक्ष इस प्रश्न को ला चुके हैं और सरकार को इस पर कार्यवाही के लिए निर्देश भी जारी हुए हैं किन्तु प्रश्न केवल राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी तक नहीं है अपितु इससे आगे है। हमें विश्वास है कि आगामी दशक में हिन्दी का इस देश में प्रभुत्व होगा और अंग्रेजी जो कि अपने आप में अनुशासित भाषा नहीं है स्वयं ही हमारे आम व्यवहार से बाहर हो जाएगी। उन्होंने कहा कि देश को दूसरे देश से जो भाषा जोड़ सकती है वह केवल हिन्दी भाषा ही हो सकती है। मेरठ हिन्दी का मायका है। हिन्दी की इस मुहिम को हम मेरठ के अभिमान के रूप में लें ना कि राजनीतिक अभिमान के रूप में। देश को यदि एक भाषा चाहिए तो वह केवल हिन्दी हो सकती है। देश को जोड़ने के लिए अन्य प्रान्तों की भाषा का भी सम्मान करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए कितने भी प्रयास करने पड़ें, मैं करूँगा एवं जहाँ तक जाना पड़े मैं जाऊँगा।

कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो0 एस0 के0 काक, माननीय कुलपति ने कहा कि अगर आप अपनी भाषा का सम्मान करेंगे, गर्व करेंगे तो दूसरे भी करेंगे। हिन्दी को हमें इस प्रकार विकसित करना होगा कि हम इसे अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करें। हमें इसे अर्न्तराष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए, विस्तृत दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा। हिन्दी भाषा बोलने के लिए पहले अपनी भाषा में यकीन, अनुशासन, स्वयं का दृढ़निश्चय होना चाहिये। उन्होंने कहा कि मैं इस पूरे प्रस्ताव के साथ हूँ और इसके लिए जहाँ तक जाना होगा साथ दूँगा।

श्री एस0 पी0 त्यागी जी, सेवानिवृŸा न्यायाधीश ने कहा कि मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि हम अपने कार्यों के लिए दूसरी भाषा का सहारा क्यों लेते हैं? जो लोग हिन्दी के विरोधी हैं, वह जानबूझकर हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग हिन्दी को बदनाम करने के लिए करते हैं। उन्होंने कहा कि मैं इस समिति के साथ जुड़कर इसलिए गर्व का अनुभव कर रहा हूँ क्योंकि यह अपने देश की भाषा को स्थापित करने के लिए दृढ़ संकल्पित है और मैं इसके लिए पूरी तरह साथ हूँ।

रासना कॉलेज के प्राचार्य डॉ0 नन्द कुमार ने कहा कि पूर्व में सरकारों ने हिन्दी को आगे बढ़ाने में अपनी सही भूमिका नहीं निभाई है। हम हिन्दी की बात तो बहुत करते हैं लेकिन हिन्दी में कार्य नहीं करते हैं। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और राजभाषा समर्थन समिति ने जो संकल्प लिया है उससे हमारी भाषा का विकास होगा और हम विश्व के समक्ष गर्व करने की स्थिति में होंगे।

डॉ0 आर0सी0 लाल ने कहा कि हम ऐसे लोगों को तैयार करें, जो अच्छी हिन्दी बोलना जानते हों। यह हिन्दी के ही हित होगा।

शिक्षाविद् डॉ0 शिवेन्द्र सोती ने कहा कि हिन्दी प्रयोग भारत को उसकी अस्मिता से जोड़ता है और हमें याद रखना होगा कि हिन्दी का प्रयोग अहिन्दी भाषी लोगों ने अधिक किया और हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है, हिन्दी में शिक्षा अनिवार्य हो। खड़ी बोली हिन्दी खड़ी है एवं खड़ी ही रहेगी। उन्होंने मेरठ को क्रान्ति का शहर बताया और कहा कि हिन्दी की क्रान्ति भी यहाँ से लागू होगी।

पत्रकार हरि शंकर जोशी ने हिन्दी प्रयोग को लेकर कई प्रश्न उठाये और कहा कि हिन्दी वालों को अपने भीतर झांकना चाहिए क्योंकि घर में जब हिन्दी प्रयोग होगी तभी वह आगे बढ़ेगी। उन्होंने प्रश्न किया कि हिन्दी में लिखने से परहेज किसे है? हिन्दी के साथ अन्य भाषाओं का भी प्रयोग हो, इस पर किसी को कोई आपŸिा नहीं है। उन्होंने राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग को अनिवार्य ठहराया।

एडवोकेट मुनीष त्यागी ने कहा कि राजनीतिज्ञ नहीं चाहते कि हिन्दी लागू हो, क्योंकि हमारी मानसिकता गुलाम है। जब तक भाषाओं के लेन-देन की बात नहीं होगी तब तक हिन्दी आगे नहीं बढ़गी। हिन्दी के हिन्दीकरण-हिन्दुस्तानीकरण के लिए उसे सांस्कृतनिष्ठ नहीं बनाना चाहिए।

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय के संकायाध्यक्ष प्रो0 आई0 आर0 एस0 सिंधु ने कहा कि हिन्दी को लाने से हम अपने विकास की प्रक्रिया को कई गुना आगे बढ़ा सकते हैं। भाषा के विषय में कभी भी कट्टरता नहीं अपनानी चाहिए। हिन्दी को दौड़ाने के प्रयास करें लेकिन अंग्रेजी को टंगड़ मारकर गिरायें नहीं। प्रभात राय ने कहा कि भाषा की कट्टरता से काम चलने वाला नहीं है। बात बनेगी सही भाषा नीति से। डॉ0 असलम जमशेदपुरी ने कहा कि हिन्दी भारत की राजभाषा है यह उतना ही सत्य है, जितना कि सूरज का निकलना और उन्होंने कहा कि इसके लिए हमें दिल्ली में प्रदर्शन करना चाहिए।

कार्यक्रम की सहयोगी संस्थाओं के रूप में दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक अमर उजाला, फैज-ए-आम डिग्री कॉलेज, मेरठ, मानस सेवा संस्थान, सांस्कृतिक परिषद्, वरिष्ठ नागरिक मंच सहित कई संस्थाओं ने राजभाषा समर्थन समिति की इस पहल का समर्थन किया।

कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग के शोध छात्र रविन्द्र राणा एवं डॉ0 विपिन कुमार शर्मा ने किया। अतिथियों का आभार कार्यक्रम के संयोजक डॉ0 नवीन चन्द्र लोहनी ने किया। इस अवसर पर सुमनेश सुमन ने हिन्दी के समर्थन में कविता भी सुनाई। कार्यक्रम में डॉ0 रवीन्द्र कुमार, डॉ0 गजेन्द्र सिंह, सीमा शर्मा, नेहा पालनी, डॉ0 आशुतोष मिश्र, अंजू, अमित कुमार, ललित सारस्वत, विवेक, सहित हिन्दी विभाग के छात्र-छात्राओं तथा शहर के वरिष्ठ नागरिकों पत्रकारों, वकीलों, शिक्षकों तथा विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने भाग लिया।



डॉ0 गजेन्द्र सिंह/विवेक सिंह/अमित कुमार

राजभाषा समर्थन समिति



Saturday, July 3, 2010

राजभाषा समर्थन समिति

राजभाषा समर्थन समिति
(भारत में हिन्दी प्रयोग लागू कराने हेतु एकजुट लोगों की संस्था)

महोदय/महोदया,

हिन्दी विभाग द्वारा दिनांक 12-14 फरवरी 2010 को आयोजित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ था कि ‘‘राष्ट्र मण्डल खेलों में हिन्दी प्रयोग को विज्ञापनों/होर्डिंग्स/सरकारी प्रपत्रों तथा आयोजक संस्थाओं द्वारा बढ़ावा दिया जाए।’’ यह प्रस्ताव संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य तथा सांसद श्री राजेन्द्र अग्रवाल के द्वारा प्रस्तुत किया गया था। प्रस्ताव मंचस्थ तथा सम्मुख उपस्थित सभी प्रतिभागियों द्वारा समर्थन कर पारित किया था।

हिन्दी भारत की राजभाषा है और राष्ट्र मण्डल खेल के आयोजन स्थल के आस-पास प्रमुखता से बोली जाने वाली भाषा है। ऐसे में उक्त प्रस्ताव के आलोक में आयोजकों एवं सरकारी विभागों तथा अन्य संस्थाओं के संज्ञान में यह प्रस्ताव लाया जाना है। इस हेतु दिनांक 07 जुलाई 2010 को एक बैठक सायं 05 बजे चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय परिसर स्थित बृहस्पति भवन में आहूत की जा रही है। इसमें राजभाषा को अन्तरराष्ट्रीय आयोजनों में प्रमुखता से महत्व देने संबंधी विचार-विमर्श कर संगोष्ठी के मन्तव्य को आमजन एवं सरकार तक पहुँचाने का प्रयास किया जाएगा। कोई भी देश हमारी भाषा का तब तक सम्मान नहीं कर सकता जब तक हम स्वयं नहीं करेंगे। आवश्यकता है कि ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के समय में हम देश के बहुसंख्यक वर्ग की भाषा हिन्दी के महत्व को आमजन तक पहुचाएँ  ।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सहित देश के प्रमुख स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी इसलिए देश की भाषा का प्रश्न प्रमुखता से उठाते थे, स्पष्ट है कि राष्ट्रभाषा का प्रश्न जनभावना से जुड़ा है, अतः राजभाषा के इस प्रश्न को प्रस्ताव को क्रियान्वित करने के लिए ‘राजभाषा समर्थन समिति’ का गठन किया गया है। हमारा विचार है कि:-

1. जब चीन में ओलंपिक खेलों के दौरान चीनी भाषा का प्रयोग हो सकता है तो भारत में आयोजित खेलों की नियमावली और होर्डिंग्स हिन्दी में क्यों नहीं हो सकते।

2. आयोजन में आने वाले गैर हिन्दी भाषी खिलाड़ियों और प्रतिनिधियों को अनुवादक उपलब्ध कराये जा सकते हैं। जैसा कि प्रायः हर अन्तरराष्ट्रीय आयोजन में अन्य भाषा-भाषी लोग करते हैं।

3. राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग द्वारा हम भारत की छवि को पूरी दुनिया के सामने मजबूती के साथ स्थापित कर सकते हैं।

4. यदि हम राष्ट्रमण्डल खेलों में हिंदी प्रयोग करते हैं तो अनुवादकों की आवश्यकता पड़ेगी। इससे अनुवादकों को रोजगार प्राप्ति हो सकेगी।

5. राष्ट्रमण्डल खेल हिन्दी भाषा के लिए बड़ी संभावनाओं को खोल सकते हैं, अगर हम हिंदी का इन खेलों के दौरान अधिक से अधिक प्रयोग करेंगे। विदेशी लोगों  का भी हिन्दी के प्रति आकर्षण बढेगा। इससे हिंदी के शिक्षण, पठन-पाठन की विदेशों में भी संभावनाएं बढेंगी।

6. अनुच्छेद 344 के अनुसार राष्ट्रपति हिंदी भाषा की बेहतरी के लिए आयोग (भाषा आयोग) का गठन करेगें। जब राष्ट्रमंडल खेल भारत में हो रहे हैं, हिन्दी भाषा को संवर्धित करने के लिए संविधान में दी गई भाषा संबंधी व्यवस्था का पालन नहीं हो रहा है, ऐसे में जरुरी है जनजागृति द्वारा प्रबुद्ध नागरिक राष्ट्रमंडल खेलों में हिन्दी के प्रयोग को लेकर सरकार का ध्यान आकर्षित करें।

7. राष्ट्रमंडल खेल में हिन्दी के प्रयोग द्वारा हम उस रुढ़ मानसिकता पर भी चोट कर सकते हैं जो अंग्रेजी के प्रयोग द्वारा निज विशिष्टता सिद्ध करती रही है, यह हिंदी के भूगोल और मानसिकता को परिवर्तित करने का अवसर भी है।

आशा है आप हमारी बातों से सहमत होंगे। कृपया अपनी सहमति को अपने अधिकतम संसाधनों के माध्यम से सरकार तक पहुँचाने के लिए प्रयास करें और हमारे प्रयास में सहयोग कर राजभाषा प्रयोग के इस महत्वपूर्ण प्रश्न को सुलझाने में सहयोग करें। कृपया इस अभियान हेतु हमें अपना समर्थन पत्र भी प्रदान करें।

आपसे अनुरोध है कि इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने तथा विचार विमर्श करने तथा देश की भाषा हिन्दी के प्रति अपना सम्मान एवं देश के प्रति अपनी सांस्कृतिक एक जुटता प्रकट करने हेतु दिनांक  07/07/2010 को सायं 05:00 बजे, बृहस्पति भवन में पधारने का कष्ट करें। आशा है इस आयोजन में आपकी सक्रिय भागीदारी एवं सहयोग प्राप्त होगा।

शुभकामनाओं सहित।



                                         (प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी)

                                              एवं समस्त साथी
                                        ‘राजभाषा समर्थन समिति’


द्वारा:- हिन्दी विभाग, चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ सम्पर्क हेतु मो0 न0 : 9412207200 /9412885983 /9758917725 /9258040773 /9675899855
ई- मेल - rajbhashass.mrt@gmail.com

नोट: कृपया इस अवसर पर अपनी संस्था का बैनर भी लाएं जिसको आयोजन स्थल पर सहयोगी संस्थाओं के रूप में प्रदर्शित किया जा सके।

Friday, June 25, 2010

हिंदी विभाग में नया डिप्लोमा पाठयक्रम

आवश्यक सूचना

सभी छात्र-छात्राओं को सूचित किया जाता है कि इस वर्ष चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हिन्दी पत्रकारिता एवं जनसंचार में दो नए पाठ्यक्रम पी0 जी0 डिप्लोमा इन इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और पी0 जी0 डिप्लोमा इन प्रिन्ट मीडिया इसी वर्ष से शुरु हो रहे हैं। उपर्युक्त पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु शैक्षिक योग्यता स्नातक में 45 प्रतिशत है। प्रवेश हेतु 30 जून तक विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर अपना पंजीकरण अवश्य करा दें।





मुख्य सूचनाएं-
प्रवेश अंतिम तिथि - 30 जून
शैक्षिक योग्यता - स्नातक 45 प्रतिशत


प्रवेश सम्बन्धी अन्य जानकारी के लिए सम्पर्क करें-
कार्यालय हिन्दी विभाग, फोन नं0-0121-2772455।
डॉ0  गजेन्द्र सिंह - 9258040773
विवेक सिंह - 9027561713

Tuesday, May 18, 2010

खड़ीबोली के मूल क्षेत्र और उसका साहित्य विषयक संगोष्ठी और मंथन पत्रिका के 'खड़ी बोली के स्थान नामों' पर केन्द्रित अंक का विमोचन

दुनियाँ में जितने बड़े-बड़े काम है वे समुदाय द्वारा नहीं बल्कि व्यक्ति द्वारा ही किए जाते हैं, जैसे युद्ध समुदाय द्वारा किया जाता है जबकि शान्ति व्यक्ति द्वारा की जाती है और शान्ति का सबसे बड़ा लक्ष्य सृजनात्मक कार्य है। ये विचार केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली के निदेशक एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर गंगा प्रसाद ‘विमल’ ने चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के स्थापना दिवस समारोह के अवसर पर ‘‘खड़ीबोली के मूल क्षेत्र और उसका साहित्य’’ विषयक विशेष व्याख्यान में व्यक्त किए। भाषा का सन्दर्भ लेते हुए उन्होंने कहा कि अन्तरिक्ष में शान्ति की कल्पना की गई है, वेदों में इस कल्पना को सबसे बड़ा रूप देने वाली भाषा है। कुरू प्रदेश ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है और यहाँ बोली जाने वाली बोली ‘कौरवी’ नाम से जानी जाती है। इसे ही खड़ीबोली नाम से जाना जाता है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र से जो भाषा जन्मी वह खड़ी होकर चली, बैठकर नहीं। भारत में अगर आप कहीं भी संवाद करना चाहे, जिस शैली में करना चाहे उसी में आप इस बोली में बात कर सकते हैं। वस्तुतः इसका कारण कौरवी का विस्तार ही है, जिसे ‘लोक संपृक्ति’ के नाम से जाना जाता है अर्थात् कौरवी का लोक सम्पर्क बहुत घना है। यह भाषा कब जन्मी होगी यह शोध का विषय है क्योंकि भाषिक संरचनाओं के उदाहरण विन्यास के रूप में तथा संपृक्ति सूचक रूप में होते हैं। विमल जी ने अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा कि सांस्कृतिक रूप से ‘बांगरू’ (कौरवी से मिलता हुआ रूप जो हरियाणा में बोला जाता है) की देन अद्भुत है। हिन्दी पट्टी ने सबको बांधने की चीज का अविष्कार किया है। जो साहित्य यहां का था वही उपेक्षित था। अब समय आ गया है कि तात्विक दृष्टि का परिष्कार किया जाए क्योंकि यह दृष्टि संकुचित है। कौरवी के साहित्य का पुनरावलोकन होना चाहिए। जो साहित्य इस क्षेत्र में दो शताब्दियों से लिखा गया है, उसे संरक्षित किया जाए। हिन्दी, उर्दू का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि उर्दू लिपि भी अवश्य संरक्षित की जानी चाहिए तथा साथ ही अपने क्षेत्र की ओर भी लिपियों को संरक्षित किया जाना जरूरी है। कुरू प्रदेश की दो शताब्दी पुरानी पाण्डुलिपियों की खोज होनी चाहिए जब वे प्रकाशित होंगी तो लोगों को आश्चर्यचकित कर देंगी। इन तमाम चीजों को देखने का लक्ष्य यही है कि हम अपनी दिशा निर्धारित कर सकते हैं।इस अवसर पर ‘मंथन’ पत्रिका के खड़ी बोली के स्थान नामों पर केन्द्रित अंक का विमोचन भी किया गया तथा माननीय कुलपति प्रो0 एस0के0 काक ने ‘मंथन’ पत्रिका के ब्लॉग के अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण का उद्घाटन भी किया।कौरवी के विद्वान एवं के0डी0 कॉलेज, मवाना के पूर्व प्राध्यापक डॉ0 चन्द्रपाल सिंह ने कौरवी के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कौरवी का विकास कब हुआ ऐसा प्रश्न है जैसे कोई पूछे कि भाषा का विकास कब हुआ। मानव का सबसे पहला आविष्कार भाषा का आविष्कार है। जहां तक कौरवी का प्रश्न है तो यह आर्य भाषाओं के अन्तर्गत आती है। इसका विकास प्राचीन रूप से ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद में इस भाषा का मूल देखा जा सकता है। वैदिक काल में जो भाषा थी उसका विकास होते-होते धीरे-धीरे जो बोली सामने आई वह कौरवी थी। उन्होंने कहा कि भाषाओं का विकास नदी के जल की भांति होता रहता है। हिन्दी के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा द्वितीय प्राकृत जिसे अपभ्रंश भी कहा जाता है, से आज हमारी हिन्दी का विकास हुआ। कुछ लोग मानते हैं कि कौरवी का विकास ‘महाराष्ट्रीय’ अपभ्रंश से हुआ जबकि यह भ्रामक धारणा है। उन्होंने ‘कैकये’ अपभ्रंश से कौरवी का विकास माना। कौरवी के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि वैदिक काल से जो बोली थी वह निरन्तर बदलती जा रही है। उसे ही राहुल सांकृत्यायन ने ‘कौरवी’ कहा था। लल्लू लाल ने इसे ही ‘खरी’ बोली कहा था। जिसका इस क्षेत्र में ‘खड़ी’ बोली कर लिया गया। वस्तुतः यह कौरवी ही आज की खड़ी बोली है। इस खड़ीबोली के साहित्यिक रूप तथा लोकप्रचलित रूप दो रूप है। लोकप्रचलित रूप को सांकृत्यायन जी ने ‘कौरवी’ नाम दिया था। डॉ0 सिंह ने कहा कि भाषा और बोलियों की सीमा निर्धारित करना कठिन काम है। फिर भी सीमा निर्धारण की दृष्टि से उत्तर में देहरादून की सदर तहसील, पश्चिम में हरियाणनवी, पूर्व में बिजनौर व मुरादाबाद का पश्चिमी भाग तथा दक्षिण में स्याना से सिकंदराबाद को जो सड़क जाती है, तक के क्षेत्र तक कौरवी की सीमाएं निर्धारित की जा सकती है। मेरठ व मुजफ्फरनगर की बोली को उन्होंने मूल खड़ी बोली का क्षेत्र बताया। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र के चारों ओर ऐसी बेल्ट है जिनमें अन्य बोलियों का भी प्रभाव है, जो ‘बफर स्टेट’ कहे जा सकते हैं। जब तक कौरवी के क्षेत्र का कोई सर्वे नहीं किया जाता तब तक ठीक ढंग से सीमा निर्धारण भी नहीं किया जा सकता।विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो0 ए0के0 श्रीवास्तव ने समारोह के अवसर पर कहा कि आज हिन्दी विभाग आठ साल का बच्चा नहीं बल्कि उसकी प्रगति से ऐसा लगता है कि अठारह साल का बच्चा है। उन्होंने हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी को हिन्दी विभाग की प्रगति उत्तम शैक्षणिक एवं शोध परिणामों के विषय में जानकर बधाई दी।कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे माननीय कुलपति प्रो0 एस0के0 काक ने हिन्दी विभाग के स्थापना दिवस के अवसर पर सभी शिक्षकों, शोधार्थियों एवं छात्र-छात्राओं को बधाई दी और कहा कि इस क्षेत्र के पहले ‘कौरवी शब्दकोष’ को इन्टरनेट से जोड़ा जाए। ताकि अन्य भाषा भाषियों को भी हिन्दी सिखाने के लिए पहल हो सके। यही भाषा का विकास होगा, क्योंकि भाषा व्यवहार से बदलती है, कई शब्द विलुप्त हो जाते है और कई नए आ जाते हैं। उन्होंने हिन्दी विभाग को बधाई देते हुए कहा कि हिन्दी विभाग सिर्फ भाषा का ज्ञान नहीं देता बल्कि हम कैसे भाषा को उपयोगी बनाए? इस बात का ज्ञान भी देता है। इस क्षेत्र की पाण्डुलिपियों, भाषा, साहित्य, बोली गत रूपों का अगर अध्ययन होगा तो हम यहां संग्रहालय भी स्थापित कर सकेंगे। जिसके लिए आर्थिक स्थिति कभी आड़े नहीं आएगी। माननीय कुलपति जी ने हिन्दी विभाग के शोधार्थी मोनू सिंह, छात्र पुष्पेन्द्र, नेत्रपाल एवं सुशील को नेट परीक्षा उत्तीर्ण करने हेतु प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया।कार्यक्रम के प्रारम्भ में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने हिन्दी विभाग की 8वीं वर्षगांठ पर सभी अतिथियों का स्वागत किया और कहा कि जो चीजें लगातार विभाग में होती रही है, उस प्रगति को जानने का यह अवसर है। अल्प समय में ही हिन्दी विभाग ने जो कार्य किए है उनका श्रेय विश्वविद्यालय प्रशासन को जाता है। विभाग के छात्र-छात्राओं ने जो शोध कार्य किए उन्हें मीडिया द्वारा भी प्रचारित किया गया, बाहर से भी अच्छे कार्यों के लिए प्रशस्ति मिली है। इसके लिए हम सभी के आभारी है।कार्यक्रम का संचालन विपिन कुमार शर्मा ने किया। इस अवसर पर प्रो0 जे0के0 पुण्डीर, डॉ0 नंद कुमार, डॉ0 जे0पी0 यादव, डॉ0 मीना शर्मा, गजलकार किशनस्वरूप, ईश्वर चन्द्र ‘गम्भीर’, ज्वाला प्रसाद कौशिक ‘साधक’, डॉ0 अशोक कुमार मिश्र, महेश पालीवाल, डॉ0 रवीन्द्र कुमार, डॉ0 गजेन्द्र सिंह, नेहा पालनी, विवेक सिंह, अंजू, मोनू सिंह, राजेश चौहान, अमित, ललित, अजय, संजय कुमार, अंचल, मधु, रेखा, ममता, नीलू धामा, चरन सिंह, आदि विभाग के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

Saturday, April 17, 2010

भाषा विज्ञान और ध्वनि संरचना

भाषा वैज्ञानिक सैद्धान्तिक रूप में भाषा की लघुतम इकाई ‘ध्वनि’ है किन्तु प्रथम सहज ध्वनि ‘वाक्य’ है। ये विचार आज महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक के हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं प्रख्यात भाषा विज्ञानी प्रो0 नरेश मिश्र ने आज का विषय- ‘‘भाषा विज्ञान और ध्वनि संरचना ’’ के अन्तर्गत व्याख्यान देते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि ध्वनि संवहन प्रक्रिया में बच्चा प्रारम्भ में जब ध्वनि मुख से निसृत करता है तो उसके पीछे एक सम्पूर्ण सारगर्भित वाक्य छिपा होता है। आगे चलकर प्रत्येक ध्वनि बच्चा समाज में रहकर व्यवहार द्वारा सीखता है।प्रो0 मिश्र ने ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया की प्रेरक शक्तियों में मनुष्य की चेतना अर्थात् भाषाई चेतना का होना आवश्यक बताते हुए कहा कि जिस समाज में हम रहते हैं, उस समाज की चेतना होना भी आवश्यक है साथ ही बौद्धिक क्षमता तथा मन भी प्रेरक शक्तियाँ हैं। इन तीनों का समन्वय होना आवश्यक हैं। जिस प्रकार अध्ययन की गति के लिए छात्र तथा अध्यापक में समन्वय होना जरूरी है उसी प्रकार चेतना, बुद्धि तथा मन में भी समन्वय होना जरूरी है।भाषा चूंकि संश्लिष्टावस्था से विश्लिष्टावस्था की ओर जाती है। इसलिए उसमें परिपक्वता आवश्यक है। ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया में वाग्अवयव स्वर यंत्र आवरण, कंठ पिटक, मूर्द्धा, वर्त्स्य, अलिजिह्वा, ओष्ठ तथा नासिका का उन्होंने विस्तार से परिचय दिया।ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया प्रयोगात्मक रूप से समझाते हुए प्रो0 मिश्र ने स्थान तथा प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण प्रस्तुत करते हुए जिह्वा, हवा के नाक और मुंह के रास्ते निकलने के आधार, ओष्ठों की स्थिति, जिह्ना के उठने के आधार, प्रकृति के आधार, प्राणत्व महाप्राण तथा अल्पप्राण, संवृत्त-विवृत्त, घोषत्व-अघोषत्व, संघर्षी-स्पर्श संघर्षी, तालव्य, उत्क्षिप्त, लुंठित, दन्त्योष्ठय आदि भागों में विभक्त कर भाषा विज्ञान जैसे विषय को सरस, हृदयग्राही एवं मनोग्राही रूप में प्रस्तुत किया। प्रो0 मिश्र ने डायग्राम बनाकर वाग्अवयव के कार्यो पर प्रकाश डालते हुए स्थान तथा प्रयत्न के आधार पर ’क‘.वर्ग, ‘च‘ वर्ग, ‘ट’ वर्ग, ‘प‘ वर्ग की स्वर तथा व्यंजन ध्वनियों के विषय में बताते हुए कहा कि हिन्दी व्यंजनों के पहला और तीसरा अल्पप्राण तथा दूसरा और चौथा अक्षर महाप्राण होता है।उन्होंने छात्र-छात्राओं के भाषा विज्ञान सम्बन्धी प्रश्नों में ‘क्लिक‘ ध्वनि और ‘खंड्येतर‘ ध्वनि, क्या भाषा वैज्ञानिक स्थिति को जानने समझने के लिए ‘मन‘ जैसी प्रेरक शक्ति की आवश्यकता है अथवा नहीं ? आदि के संतोषपरक उत्तर दिए। साथ ही मुख के भीतर के अवयवों द्वारा उच्चारणगत स्थिति को भी स्वयं बोलकर समझाया। कार्यक्रम के अन्त में प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी, विभागाध्यक्ष हिन्दी, चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ने प्रो0 नरेश मिश्र का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर डॉ0 रवीन्द्र कुमार, डॉ0 गजेन्द्र सिंह, कु0 सीमा शर्मा, नेहा पालनी, विवेक सिंह, कु0 अंजू, दीपा और एम0ए तथा एम0फिल््0 के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

Friday, April 16, 2010

हिन्दी वर्तनी का मानक प्रयोग

वर्तनी की समस्या प्रायः किसी न किसी रूप में प्रत्येक भाषा में होती है। हिन्दी वर्तनी की समस्या का पहला पक्ष अनेकरूपता है तथा किसी भी भाषा के मानक रूप की दृष्टि से यह जरूरी है कि उसके अधिकांश शब्दों और रूपों की सुनिश्चित वर्तनी हो और उसके ही मानक या शुद्ध माना जाए। हिन्दी में इस दृष्टि से अनेक तरह की अनेकरूपताएं है तथा जब तक इन में एकरूपता की कोशिश नहीं की जाएगी, वर्तनी के स्तर पर एकरूपता नहीं आ सकती। ये विचार लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक प्रशिक्षण एकेडमी; मसूरी में आचार्य प्रो0 गीता शर्मा ने हिन्दी विभाग, चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में व्याख्यान श्रृंखला में दूसरे दिन आज का विषयः ‘हिन्दी वर्तनी का मानक प्रयोग’ में व्याख्यान देते हुए व्यक्त किए।प्रो0 गीता शर्मा ने कहा कि अशुद्धियाँ जो हिन्दी लेखन में विभिन्न क्षेत्रों में सामान्यतः मिलती है। इनमें शुद्ध वर्तनी क्या है, इसका विवाद नहीं है। बल्कि समस्या यह है कि वर्तनी के निश्चित होने के बावजूद अनेक लोग अनेक कारणों में तरह-तरह की अशुद्धियाँ कर देते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी वर्तनी की एकरूपता स्थिर करने के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, आगरा, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, नई दिल्ली, तकनीकी वैज्ञानिक शब्दावली आयोग तथा केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरों ने सराहनीय पहल की है। इनके द्वारा अहिन्दी भाषी राज्यों के शिक्षकों को हिन्दी सिखाना, मानक हिन्दी रूप का विकास तथा तकनीकी शब्दों के निर्माण एवं विकास का कार्य किया जा रहा है। राष्ट्रीय भाषा संस्थान, हैदराबाद तथा अनुवाद ब्यूरों अनुवाद के माध्यम से हिन्दी भाषा एवं साहित्य का अनुवाद अन्य भाषाओं तथा अन्य भाषाओं का हिन्दी में कर रहे हैं। जिससे भाषा विज्ञान भी समर्थ तथा सम्पन्न बना है।हिन्दी वर्णमाला की अल्पप्राण ध्वनियों एवं महाप्राण ध्वनियों के विषय में उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि भाषा सार्थक ध्वनियों का समूह है और समाज में रहने वाले व्यक्तियों के विचार विनिमय का प्रमुख आधार है। हिन्दी अत्यंत सरल भाषा है क्योंकि इसमें जैसा बोला जाता है, वही लिखा जाता है और संसार की अन्य भाषाओं की अपेक्षा वह अत्यधिक सुव्यवस्थित है किन्तु असावधानी एवं अज्ञानतावश प्रायः बड़े-बड़े अनुभवी अध्यापक भी इसके लिखने में भूल कर देते हैं। शिक्षित होने पर भी कुछ लोग प्रायः अशुद्ध लिखते और बोलते हैं। अतः वर्तनी की अशुद्धियों को दूर करने के प्रयास किए जाने चाहिए।प्रो0 गीता शर्मा ने प्रयोगात्मक रूप से समझाते हुए स्वर तथा मात्रा सम्बन्धी, संयुक्त व्यंजन संबंधी, सन्धि संबंधी, हलन्त् सम्बन्धी, शिरोरेखा सम्बन्धी, समास संबंधी, व्यंजनद्वित्व संबंधी, तथा व्यंजन संबंधी अशुद्धियाँ तथा उनके शुद्ध करने के नियमों पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि शिक्षित-अशिक्षित के बीच अन्तर यही है कि वह भाषा का ठीक उच्चारण करे तथा वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ न करें, तभी शिक्षा व ज्ञान की सार्थकता है।वर्तनी के सन्दर्भ में उन्होंने हिन्दी भाषा में कारक चिन्ह, योजक चिन्ह, परसर्ग, उपसर्ग, प्रत्यय तथा समास आदि की महत्ता तथा सार्थकता पर भी विचार रखें। प्रो0 शर्मा ने कहा कि सन्धि शब्द रचना के नियमों की जानकारी न होना, परंपरागत वर्तनी के ज्ञान का अभाव, शुद्ध उच्चारण के ज्ञान का अभाव, सर्व स्वीकृत रूप की कमी, अंग्रेजी वर्तनी का प्रभाव आदि कुछ समस्याएं हैं। जिनका निदान कर हिन्दी वर्तनी का मानक रूप स्थिर किया जा सकता है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने पंचम नासिक्य व्यंजन और अनुस्वार के प्रयोग को भी प्रयोगात्मक दृष्टि से विश्लेषित किया।कार्यक्रम के अन्त में डॉ. गजेन्द्र सिंह ने प्रो0 गीता का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी, डॉ0 रवीन्द्र कुमार, कु0 सीमा शर्मा, नेहा पालनी, विवेक सिंह, कु0 अंजू और एम0ए तथा एम0फिल््0 के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

‘हिन्दी का सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ शिक्षण अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर

भाषा, समाज और संस्कृति एक-दूसरे की पूरक है। यह एक व्यवस्था है जो समाज और संस्कृति का समर्थन करती है। आज दिनांक १५-०४-२०१० को विषयः ‘हिन्दी का सामाजिक एवं सांस्कृतिक सन्दर्भ शिक्षण अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर’ बोलते हुए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा करते हुए यह बात आज प्रो0 गीता शर्मा, लालबहादुर शास्त्री प्रशासनिक प्रशिक्षण एकेडमी, मसूरी ने चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में व्याख्यान देते हुए कही।प्रो0 शर्मा ने कहा कि एक समय था जब यूरोप में समाजवाद, साम्यवाद, शासन व्यवस्था थी और वहाँ बोलने की स्वतन्त्रता नहीं थी, लेकिन वहाँ पढ़ाई पर बल दिया जाता था और अनुवाद के माध्यम से विभिन्न देशों की संस्कृति के बारे में शिक्षार्थी जानकारी प्राप्त करते थे। उन्होंने बताया कि विदेशों में शिक्षा व्यवस्था वहाँ के पढ़ने वाले शिक्षार्थियों की मांग पर लागू होती है। प्रो0 गीता ने कहा कि विदेश में पढ़ने वाले बच्चे घुमक्कड़ प्रवृति के होने के कारण विभिन्न देशों की यात्रा करते है और वहाँ की भाषा और संस्कृति से सीधे जुड़ने का प्रयास करते हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अर्थ है यह पृथ्वी एक परिवार है और संस्कृति का मूल मंत्र है इस पृथ्वी का हर आदमी हमारा परिवार है। आज भी भारत में आत्महत्या और मानसिक रोगी अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। इसका मुख्य कारण है हमारे यहां के साहित्य का आशावादी और सकारात्मक दृष्टिकोण।उन्होंने अपने वक्तव्य में बताया कि बहुत कम लोग इस बात से परिचित होंगे कि ये हमारी संस्कृति कितने गहरे रूप से हमसे जुड़ी है। धर्म का आशय बताते हुए उन्होंने कहा कि धर्म वह नहीं है जिसकी हम पूजा करते है, धर्म वह होता है जो हमारे कर्म और कर्त्तव्य से जुड़ा होता है। धर्म के सन्दर्भ में रांगेय राघव की कविता ‘द्रौपदी’ के माध्यम से उन्होंने धर्म की स्थिति को स्पष्ट किया। प्रो0 गीता ने भाषा समाज और संस्कृति को एक दूसरे का पूरक बताते हुए कहा कि जो चीजें हमारे समाज और संस्कृति में है वह सभी भाषा में प्रयुक्त होती हैं। भारतीय संस्कृति का सकारात्मक पक्ष और दृष्टिकोण हमें अन्य संस्कृतियों से अलग करता है। हमारी संस्कृति सकारात्मक 101 वृद्धि तथा 99 ऋणात्मकता का प्रतीक है। हिन्दी विदेशी शब्दावली के प्रयोग के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि विदेश में ‘थैंक्यू’, ‘सॉरी’ और ‘एक्सक्यूज मी’ जैसे शब्दों का प्रयोग आम बोलचाल में किया जाता है। भारतीय समाज में जितना मोह विदेशी भाषाओं के प्रति है उतना अन्य किसी देश में नहीं है। साम्यवादी देशों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इन देशों में बोलने से ज्यादा पढ़ने पर जोर दिया जाता है।इस अवसर पर उन्होंने बताया कि अंग्रेजी के प्रति जितनी मोहमाया भारत में है उतनी मोहमाया अन्य किसी देश में नहीं है। आज यदि विश्व के 150 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है तो यह उनकी अपनी शिक्षा व्यवस्था है। कई बार यह शिक्षा व्यवस्था मांग के आधार पर और राजनयिक स्तर पर विभिन्न भाषाओं को सीखने के उद्देश्य से लागू की जाती है। वक्तव्य के अन्त में प्रो0 गीता ने छात्र-छात्राओं के प्रश्नों के उत्तर में कहा कि हिन्दी भविष्य में उत्तरोत्तर बढ़ेगी। इसका कारण है कि भारत की संस्कृति, भाषा और समाज परस्पर गहन रूप से जुड़े हुए हैं।कार्यक्रम के अन्त में डॉ रवीन्द्र कुमार ने प्रो0 गीता का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी, कु0 सीमा शर्मा, नेहा पालनी, विवेक सिंह, कु0 अंजू, कु0 अंचल, सुमन, दीपा और एम0ए तथा एम0फिल््0 के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

Monday, April 12, 2010

हिंदी विभाग की नई उपलब्धियां :मोनू सिंह, पुष्पेन्द्र और नेत्रपाल

हिन्दी विभाग हिंदी परिषद् चौ 0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठप्रेस विज्ञप्ति दिनांक 12।04।२०१०
चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय,मेरठ के हिन्दी विभाग में छात्रों ने अपने अभूतपूर्व उपलब्धियों को निरन्तर जारी रखा है। 27 दिसम्बर, 2009 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा ली गई नेट एवं जे0आर0एफ0 परीक्षा में विभाग के तीन विद्यार्थी सफल हुए है इनमें दो छात्रों को जे0आर0एफ0 एवं एक को नेट में उत्तीर्ण घोषित किया गया है।हिन्दी विभाग में आज इन उपलब्धियों के लिए छात्रों को प्रोत्साहन देने हेतु सम्मानित किया गया। हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुए कार्यक्रम में प्रो0 लोहनी ने जे0आर0एफ0 उत्तीर्ण एम0फिल0 के छात्र नेत्रपाल सिंह एवं पुष्पेन्द्र कुमार तथा नेट उत्तीर्ण पीएच0डी0 शोधार्थी मोनू सिंह को बधाई दी तथा विभाग के अन्य छात्र-छात्राओं से इसी प्रकार श्रेष्ठ उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए कहा। प्रो0 लोहनी ने कहा कि आठ वर्षों में विभाग के छात्र-छात्राओ ने प्रतिवर्ष अपनी उपलब्धियाँ निरन्तर जारी रखी है उनमें शैक्षणिक और अकादमिक उपलब्धियों में आए सुधार के लिए विद्यार्थियों की मेहनत तथा शिक्षकों का योगदान है। प्रो0 लोहनी ने विभाग के छात्र-छात्राओं के वर्षभर विभाग द्वारा आयोजित किए गए कार्यक्रमों में सहयोग की भी सराहना की और कहा कि इस वर्ष के अच्छे शोध कार्यों पर आधारित पुस्तकों का प्रकाशन भी किया जाएगा। प्रो0 लोहनी ने यह भी घोषणा की कि इन छात्र-छात्राओं को स्थापना दिवस के अवसर पर 14 मई २०१० को माननीय कुलपति जी द्वारा भी सम्मानित कराया जाएगा। इस अवसर पर विभाग के शिक्षकों एवं छात्र-छात्राओं ने उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को बधाई दी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2009 में जून तथा दिसम्बर की परीक्षा में मिलाकर अब तक कुल छः छात्र-छात्राओं ने नेट की परीक्षा उत्तीर्ण की जिनमें दो जे0आर0एफ0 भी है।पूर्व के वर्षों में भी हिन्दी विभाग के छात्र-छात्राओं ने निरन्तर नेट परीक्षाओं में बेहतर परिणाम प्रदर्शित किया है। इनमें सीमा शर्मा, राजेश कुमार, सुनील कुमार, रमेश कुमार, सुमन रानी, रूबी देवी, कमल लता, अलका, पुष्पेन्द्र तथा सुशील शामिल है। विश्वविद्यालय परिसर में हिन्दी विभाग वर्ष 2002 में प्रारम्भ हुआ और विभाग का पहला एम0फिल0 सत्र 2005 में सम्पन्न हुआ। तब से निरन्तर प्रतिवर्ष नेट उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं की संख्या विभाग में बढ़ती गई है। इसी प्रकार हिन्दी शोध से जुड़े हुए अनेक विद्यार्थी कई शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन कार्य कर रहे है जबकि अनेक छात्र-छात्राएँ व्यवसायिक हिन्दी, पत्रकारिता एवं जनसंचार पाठ्यक्रम उत्तीर्ण होने के बाद कई टेलीविजन चैनलों समाचार-पत्रों में कार्यरत हैं।विभाग के हिन्दी परिषद द्वारा आयोजित आज के कार्यक्रम में परिषद ने अपनी ओर से सभी छात्र-छात्राओं को बधाई दी। हिन्दी परिषद के अध्यक्ष संजय कुमार, सचिव अजय कुमार सहित सभी पदाधिकारियों ने भी भविष्य में विशेष उपलब्धियों वाले छात्र-छात्राओं को सम्मानित करने की घोषणा की। कार्यक्रम का संचालन अजय कुमार ने किया। इस अवसर पर विभाग के रवीन्द्र कुमार, सीमा शर्मा, नेहा पालनी, विवेक सिंह, अंजु, ममता, रेखा, संजय, राजेश ढांडा, राहुल कुमार, राजेश चौहान, अमित कुमार, नीलू धामा सहित शिक्षक एवं अन्य छात्र-छात्राएं मौजूद रहे।

Thursday, April 8, 2010

हिंदी देश का हाईवे है।

हिन्दी इस देश का हाईवे है जो पूरे देश को एक दूसरे से जोड़ने का कार्य करता है।यह बात आज गुरू नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं ख्यात आलोचक प्रो0 हरमहेन्द्र सिंह बेदी ने चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में व्याख्यान देते हुए कही।उन्होंने कहा कि हिन्दी केवल भाषा नहीं है, बल्कि हिन्दी का अर्थ है, भारत, भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन। प्रो0 हरमहेन्द्र सिंह बेदी ने हिन्दी के अन्तरराष्ट्रीय सरोकार के सन्दर्भ में बताते हुए कहा कि दुनियाँ का हर तीसरा व्यक्ति हिन्दी भाषी है। यूएनओ के महासचिव ने न्यूयॉर्क में विश्व हिन्दी सम्मेलन के सन्दर्भ में कहा था कि हिन्दी प्राचीनतम लिखित भाषाओं में से एक है। हिन्दी सरल और संवाद की भाषा बनने के योग्य है और हिन्दी भाषा में वह भी क्षमताएं है। जिससे कोई भी भाषा भविष्य की भाषा बन सकती है। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा का उदाहरण देखते हुए उन्होंने कहा कि ओबामा ने हाल में अपने वक्तव्य में कहा कि मैं हिन्दी सीखना चाहता हूँ। उन्होंने बताया कि अमेरिका में 114 संस्थाओं में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन का कार्य हो रहा है और दुनियाँ के प्रत्येक देश में ‘एशियन स्टडीज’ के अन्तर्गत हिन्दी के संस्थान है। प्रो0 बेदी ने कहा कि आने वाले कुछ वर्षों में सार्क देशों की बैठकों की कार्यवाही की भाषा भी हिन्दी ही होगी। विदेशों में 120 से अधिक समाचार पत्र-पत्रिकाएं हिन्दी में प्रकाशित हो रही है। अब हिन्दी की वैश्विक पहुंच को देखते हुए न्छव् ने अकेले प्रेमचन्द के ‘गोदान’ का 300 भाषाओं में अनुवाद कराया है। प्रो0 बेदी ने हिन्दी के राष्ट्रीय सरोकारों के सन्दर्भ में कहा कि भारतीय साहित्य वह सब है जो 24 भारतीय भाषाओं में लिखा जाए और हिन्दी का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक अन्य भारतीय भाषाओं का विकास नहीं होगा। उन्होंने बताया आज लगभग हजारों समाचार पत्र-पत्रिकाएं निकल रहे हैं।हिन्दी के अन्तरराष्ट्रीय सन्दर्भ का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी बहुत तेजी से बढ़ी है। अकेले कनाडा से ही 7 अखबार हिन्दी में निकलते हैं, जिनमें लगभग 80 पृष्ठ होते हैं। हिन्दी भारत ही नहीं वरन् विश्व की संपर्क भाषा है। हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीयता के सन्दर्भ में उन्होंने आगे कहा कि विश्व के 60 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी जानते, बोलते, पढ़ते और समझते हैं। हिन्दी का अन्तरराष्ट्रीय सन्दर्भ तुलनात्मक साहित्य को भी जन्म दे रहा है। इस प्रकार भारतीय भाषाओं को जोड़ने का काम हिन्दी कर रही है।इस अवसर पर उन्होंने पंजाब के लेखकों का हिन्दी साहित्य के विकास में योगदान भी रेखांकित किया। प्रो0 बेदी ने कहा कि हिन्दी के आदिकाल से लेकर अब तक के सैकड़ों लेखक हिन्दी में हुए है जिनमें चंदबरदाई, गुरू गोविन्द सिंह, अज्ञेय, भीष्म साहनी, मोहन राकेश सहित सैकड़ों रचनाकार है। जिनको हिन्दी दुनियाँ प्रमुख लेखकों के रूप में जानती है। उन्होंने बताया गुरू ग्रन्थ साहिब में हिन्दी कवियों का उल्लेख है। छात्र-छात्राओं के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा कि हिन्दी भविष्य में उत्तरोत्तर बढ़ेगी। इसका कारण है कि आज हिन्दी मण्डी की भाषा बन चुकी है और जो भी भाषा बाजार में कब्जा कर लेती है उसका भविष्य उज्ज्वल होता है।हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने प्रो0 बेदी का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर कु0 सीमा शर्मा, डॉ0 गजेन्द्र सिंह, नेहा पालनी, डॉ0 रवीन्द्र कुमार, विवेक सिंह तथा एम0ए तथा एम0फिल0 के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

Monday, March 8, 2010

हिंदी मंथन विकास पथ पर

मित्रों,
आप सभी का हिंदी मंथन और संगोष्ठी में सहयोग के लिए धन्यवाद । आशा है आप सभी हमें इसी तरह अपने सुझावों और प्रतिक्रियाओं के माध्यम से सहयोग करते रहेंगे ! इसी तरह से हिंदी विभाग और मंथन पत्रिका से जुड़े रहें । अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार सम्बन्धी विस्तृत जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंकों का भी प्रयोग कर सकते हैं । ........... (साभार सहित )
http://hindi-khabar.hindyugm.com/2010/02/globlization-and-hindi-3-days-seminar.html
http://hindibharat.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
http://yomatra.blogspot.com/

Monday, February 22, 2010

विश्व पटल पर हिंदी : हिंदी विभाग, चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।

प्रेस विज्ञप्ति
हिंदी विभाग
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।
तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी ‘भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी’

इन दिनों जब देश में महाकुंभ का आयोजन हो रहा है, जिसमें देश-विदेश के लोग भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव और जिज्ञासा रखते हुए भारत में आ रहे हैं। इसी तरह से चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय के ‘बृहस्पति भवन’ में हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में देश-विदेश से आए हुए हिन्दी विद्वानों का समागम हुआ। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 एस0के0 काक ने कहा कि भाषा सिर्फ एक माध्यम है, एक दूसरे से जुड़ने का, उसे आपस में बाँटने का माध्यम न बनाया जाए। हर भाषा को अपना विकास करने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। उनका कहना था कि भाषा का प्रयोग हमें विश्व स्तर पर निजी पहचान और अस्मिता को प्रमाणित करने के लिए करना चाहिए और हिन्दी की अभिवृद्धि के लिए प्रयास की ओर अग्रसर होना होगा, यदि हम सरकार के भरोसे रहे तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में 62 साल तो बीत गए और भी कई साल ओर लगेंगे।कार्यक्रम में उद्घाटन वक्तव्य देते हुए हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार श्री हिमांशु जोशी ने कहा कि आज हिन्दी दुनियाँ के 157 विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है और आँकड़े बताते है कि आज हिन्दी ने अंग्रेजी भाषा को बहुत पीछे छोड़ दिया है। उन्होंने कहा कि भारत आज एक अजीब संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा है। एक ओर हम विकास के नए आँकड़ों को तो छू रहे हैं लेकिन नैतिकता के स्तर पर पिछड़ते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी जो आज विश्व के 132 देशों में फैली हुई है और 3 करोड़ अप्रवासी जिसे बोलते हैं, उस बोली का विकास मेरठ के गली कूचों में हुआ है। उन्होंने आँकड़े प्रस्तुत करते हुए बताया कि फीजी, मॉरीशस, गयाना, सूरीनाम, इंग्लैण्ड, नेपाल, थाईलैण्ड जैसे देशों में हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है। उन्होंने कहा कि हिन्दी का सोया हुआ शेर अब जाग रहा है और इसकी दहाड़ पूरी दुनियाँ सुन रही है। उन्होंने कहा कि हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक है और हिन्दी की शब्द संख्या भी अंग्रेजी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। अंग्रेजी में केवल 10 हजार शब्द है जबकि हिन्दी की शब्द सम्पदा 2.50 लाख है। उन्होंने कहा कि अतीत हमारा था, वर्तमान हमारा है और भविष्य भी हमारा होगा। इजरायल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी समाज को अपनी आत्मालोचना करनी चाहिए कि हम आज तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित नहीं कर पाए हैं। आज वक्त आ गया है कि सरकारों के भरोसे न रहकर अपने भरोसे हिन्दी का दीपक जलाएं। काका कालेलकर का उद्धरण देते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘जो जितना अ-सरकारी वो उतना असरकारी’’। इस अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए मेरठ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग को धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि कैंची वालों के शहर ने वो किया है जो दिल वालों का शहर दिल्ली नही कर पाया।विशिष्ट अतिथि इजरायल से आए हिन्दी विभागाध्यक्ष, प्रो0 गेनाडी स्लाम्पोर ने आर्थिक उदारीकरण के दौर में हिन्दी की ताकत के बारे में बताते हुए कहा कि हिन्दी के कारण बहुत से लोगों को रोजगार मिलने लगा। हिन्दी पढ़ाते हुए मुझे काफी उपलब्धि हुई। अक्षरम् और भारत सरकार द्वारा भी पुरस्कृत किया गया लेकिन मैं उन सभी पुरस्कारों को मिलने के पश्चात् न तो अक्षरम् और न भारत सरकार के प्रति कृतज्ञ हूँ बल्कि मैं तो अपने छात्रों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिनकी वजह से मुझे रोजगार मिला हुआ है और इस काम से मुझे आत्मसंतुष्टी मिलती है। उनका यह भी कहना था कि अंग्रेजी में हम दिमाग की बात तो कह सकते हैं लेकिन दिल की बात नहीं। हिन्दी के अनेक रूपों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि भगवान शिव की तरह हिन्दी के भी कई सारे रूप हैं। मेरे जैसे विदेशी की समझ में नहीं आता कि मैं अपने बच्चों को मानक हिन्दी पढाऊँ या बोलचाल की हिन्दी। इन दोनों में इतना अधिक अन्तर है कि मानो यह दो भाषाएं हो। भारतीयों के सामने ये चुनौती है कि वह इन दोनों के बीच की कोई भाषा हमें बताएं जिसे हम दुनियाँ भर में पढ़ा सके।मेरठ के सांसद और संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य श्री राजेन्द्र अग्रवाल ने कहा कि अभिव्यक्ति, सामर्थ्य और साहित्य की दृष्टि से हिन्दी विश्व की सर्वाधिक समर्थ भाषा है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है आज भी इस देश के कार्यालयों में राजभाषा की स्थिति की समीक्षा करने के लिए किसी समिति की आवश्यकता पड़ती है यह हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व की कमजोरी की ओर संकेत करता है। हमारे नेतृत्व में इच्छा शक्ति का अभाव है। अंग्रेजी में भाषण देने वाले सांसदों को चुनौती देते हुए उन्होंने कहा कि जो सांसद संसद में भाषण देते हैं वे अपने चुनाव क्षेत्र में अंग्रेजी में भाषण देकर दिखाए। आज तन्त्र की भाषा गण की भाषा से अलग हो गई है। इससे जनता और सरकार के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। मैं हिन्दी के विश्व भाषा बनने के प्रति शत-प्रतिशत आश्वस्त हूँ। बाजार के साथ-साथ हिन्दी का भी निरन्तर विकास होगा। उन्होंने कहा कि हिन्दी देश की तो माँ है लेकिन मेरठ की बेटी है इसलिए हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के लिए मेरठ के लोगों को विशेष प्रयास करना होगा।लंदन से आए वरिष्ठ हिन्दी लेखक श्री नरेश भारतीय ने कहा कि मैं 1964 से विदेश में रह रहा हूँ और 46 वर्षों से पश्चिम के झरोखे से भारत को देखने का अभ्यस्त हो चुुका हूँ। अंग्रेजों की नजर में आज भी भारत सपेरों और जादूगरों का देश है। भूमण्डलीकरण का श्रेय भी अं्रग्रेज खुद को ही लेते है जबकि वे भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति सदा से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श का पालन करती आई है। जिसका एक संक्षिप्त स्वरूप आज का वैश्वीकरण है। उन्होंने हिन्दी को अंग्रेजी की दासी बनाने की आलोचना करते हुए कहा कि हिन्दी भाषा को अंग्रेजी का पल्लू छोड़कर स्वावलम्बी रूप से विकसित होना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा निश्चित रूप से हिन्दी को होना चाहिए लेकिन क्या उससे पहले हिन्दी को सच्चे अर्थों में राष्ट्र भाषा नहीं बनना चाहिए। मैं जब युवाओं से हिन्दी के अध्ययन के बारे में पूछता हूँ तो वो कहते हैं कि इससे ज्ञानार्जन तो कर सकते है किन्तु धनार्जन नहीं। आज हिन्दी को अपने ही देश में परायेपन का शिकार होना पड़ रहा है। पहले हमें स्वयं स्वाभिमानपूर्वक हिन्दी का सम्मान करना होगा। फिर देश के बाहर विदेशों में हिन्दी को स्थापित करने का प्रयास स्वतः ही सफल होता चला जायेगा। उन्होंने प्रवासी, अप्रवासी और अनिवासी शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति जताते हुए कहा कि हम आज भी हृदय से भारतवासी है। इन शब्दांें के प्रयोग से हमें पराया करने की जगह हमें भारतवंशी कहकर अपनी जड़ों से जुड़े रहने का सौभाग्य प्रदान करना चाहिए। आज हिन्दी भारतीय संस्कृति की संवाहिका बन चुकी है। अगर हम अपने देश में ही संस्कृति की दुर्गति दिखाई देगी तो अपने देश में हम क्या संदेश लेकर जायेंगे और अपनी युवा पीढ़ी को क्या आदर्श प्रदान करेंगे?कनाडा से प्रकाशित होने वाली ‘वसुधा’ पत्रिका की सम्पादक श्रीमती स्नेह ठाकुर ने श्री नरेश भारतीय की बात का समर्थन करते हुए कहा कि हम भारतवंशी लोगों को वनवास दे दिया गया है। राजा रामचन्द्र तो 14 वर्ष बाद वनवास से लौट आये थे लेकिन हमें आज तक लौटने का मौका नहीं दिया गया है। उन्होंने कहा कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के समय महात्मा गाँधी से लेकर सुभाषचन्द्र बोस तक सब ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मानने का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि अब हम सभी को अपनी कथनी को अपनी करनी बनाने का दायित्व निभाना है। अगर हम अकेले-अकेले भी चले तो अनेक ऐसे लोग जुड़ जायेंगे कि उनका एक समुदाय बन जायेगा। हिन्दी के उत्थान का दायित्व हम सभी का है और सभी को इसे आगे बढ़ाना होगा, भारतवंशियों को भी और भारतीयों को भी। अगर अपने देश में हिन्दी आगे नहीं बढ़ेगी तो हम बाहर इसका प्रचार-प्रसार कैसे करेंगे, हम एकदिन शिखर अवश्य छू लेंगे। कर्म पर डटे रहकर ही हम संशय को दूर कर सकते हैं।वरिष्ठ साहित्यकार श्री से.रा. यात्री ने हिन्दी के विश्व भाषा बनने के मार्ग की बाधाओं का जिक्र करते हुए कहा कि मेरठ खड़ीबोली का गढ़ है और इसी गढ़ के विश्वविद्यालय में 36 वषों तक हिन्दी का पाठ्यक्रम प्रारम्भ नहीं हुआ। हमें इसके कारणों की पड़ताल करनी होगी। बात दरअसल यह है कि हमनें राजनीतिक स्वतन्त्रता तो प्राप्त कर ली लेकिन सांस्कृतिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की। हम अपनी संस्कृति की अच्छी बातों को बाहर के देशों द्वारा पहचानी जाने के बाद ही स्वीकार करते हैं। आज हमारे देश में आदमी क्षेत्र भाषा और अपने स्वार्थों में बंटा हुआ है। जिसके कारण हिन्दी सही मायनों में राष्ट्रभाषा नहीं बन पा रही है। उन्होंने कहा कि हिन्दीभाषी लोगों में भी किसी अन्य भारतीय भाषा को सीखने के प्रति उत्सुकता नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि थर्डग्रेड भाषा होने के बाद भी हिन्दी आज राज्य के कार्यों की भाषा बनी हुई है। हिन्दी वालों को स्वयं को बदलना चाहिए। अंग्रेजी को अन्य प्रदेश इसलिए स्वीकार करते हैं कि हिन्दी वाले उनके परिवेश, उनकी भाषा को उस तरह से स्वीकार नहीं करते हैं। आज स्थिति यह है कि हिन्दी के अध्यापक भी अपने बच्चों को ऊँचे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। हमें यह मानसिकता बदलनी होगी। ब्रिटेन में पूर्व हिन्दी अताशे तथा वर्तमान में राजभाषा में सहायक निदेशक श्री राकेश दुबे ने प्रोजेक्टर प्रजेन्टेशन के माध्यम से हिन्दी की निरन्तर होती वृद्धि को दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत किया। श्री दुबे ने हिन्दी की दुनियाँ के व्यापक परिप्रेक्ष्य को दर्शाते हुए लगभग 150 देशों में हिन्दी प्रयोग पर तथ्यात्मक प्रस्तुती दी। देश में हिन्दी भाषी राज्यों तथा पत्रकारिता एवं मीडिया जगत् में हिन्दी की स्थिति पर भी उन्होंने विस्तृत विवरण प्रस्तुत किए।उद्घाटन सत्र के अन्त में चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने समस्त अतिथियों और आगंतुकों को धन्यवाद ज्ञापित किया।‘गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी’ नामक द्वितीय सत्र की अध्यक्षता प्रो0 गंगाप्रसाद ‘विमल’ ने की। विशिष्ट वक्ताओं और अतिथियों में प्रो0 ललितम्बा, अखिल कर्नाटक साहित्य अकादमी, बंगलौर, प्रो0 वी0के0 मिश्रा, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला, डॉ0 नजमा मलिक, हिन्दी विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय, गुजरात, डॉ0 गुरमीत, डॉ0 अशोक कुमार, हिन्दी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंड़ीगढ़, प्रो0 देवराज, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल तथा डॉ0 प्रवीणा, हिन्दी विभाग, चेन्नई विश्वविद्यालय, हैदराबाद ने सहभागिता की।प्रो0 देवराज ने हिन्दी भाषा और भूूमण्डलीकरण के अखिल भारतीय स्वरूप को लेकर कहा कि जिस नवजागरण के दम पर हम आजादी पाने का दम्भ भरते हैं उसमें सम्पूर्ण भारत की अवधारणा थी और हमें उसे स्वीकार करना होगा। हिन्दी के जिस विकास पर हम गर्व कर रहे हैं। उसको बनाने में देशीय भाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। कोई भी भारतीय परम्परा तब तक भारतीय नहीं है जब तक उसमें असम और कन्याकुमारी नहीं हैं। गैर हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि हम उन लोगों के बारे में क्या धारणा रखते हैं? भूमण्डलीकरण की अवधारणा को लेकर उनका कहना था कि भूमण्डलीकरण एक आर्थिक अवधारणा है, मूलतः बाजार की अवधारणा। वैश्वीकरण का अर्थ एक मायने में अमेरिकी बाजार का प्रसार है। हिन्दुस्तान में तो वैश्वीकरण एक मायने में पहले ही आ चुका था। एक समग्रता की कल्पना भारत में पहले ही रही है। यदि हम भक्ति आन्दोलन को भी देखे तो पूर्वोत्तर को समझे बिना हम भक्ति आन्दोलन को नहीं समझ सकते। अगर हिन्दी के विकास को आप आगे बढ़ाना चाहते हैं तो तुलनात्मक अध्ययन पद्धति को अपनाना होगा। इस अवसर पर प्रो0 देवराज ने कहा कि भूमण्डलीकरण के दौर में भाषाओं की स्थिति को लेकर हिन्दी भाषा के सामने चुनौतियाँ तो हैं पर संकट नहीं। प्रौद्योगिकी और बाजार के साथ हिन्दी जितना सामंजस्य स्थापित करेगी उतनी ही तीव्र गति से वृद्धि करेगी। उन्होंने कहा कि हिन्दी के मठाधीश पूर्वोत्तर क्षेत्रों की पूर्ण रूप से उपेक्षा करते हैं और जब तक पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति का सम्यक् विश्लेषण नहीं किया जाएगा तब तक हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण समझ विकसित नहीं हो सकती।गुजरात विश्वविद्यालय से आयी हुई डॉ0 नजमा मलिक ने गुजरात में हिन्दी की भूमिका और संत काव्य परम्परा में गुजरात के योगदान की ओर इंगित किया। उनका मानना था कि गुजरात का भक्ति आन्दोलन में बहुत बड़ा योगदान है और हमें इसे समझना होगा, नहीं तो हमारी समझ हिन्दी को लेकर अधूरी रह जाएगी। चीजों को सम्पूर्णता में समझने की आवश्यकता है।डॉ0 गुरमीत, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्ड़ीगढ का कहना था कि आज वैश्वीकरण के युग में हम अंग्रेजी के बिना अपना जीवन नहीं चला सकते। अंग्रेजी को भी भारतीय भाषाओं के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। अंग्रेजी के लडने के बहाने हम क्षेत्रीय भाषाओं से भी दूर हो गए हैं। भारतीय भाषाओं के लेखकों को भी हिन्दी में शामिल किया जाए। पंजाबी और हिन्दी को भी हमें एक साथ समझना होगा। हिन्दी को परंपरागत आधारों से आगे बढ़ना होगा अर्थात सूर, कबीर, तुलसी पर हम ज्यादा दिन तक टिके नहीं रह सकते। आज हिन्दी तब बढ़ेगी जब वह बाजार की भाषा बनेगी। बहुविविधता और बहुलता की आज अत्यन्त आवश्यकता है। हमें हिन्दी के आकाश को अनिवार्य रूप से विस्तार देना होगा। नहीं तो हिन्दी दायरों में सिमट कर रह जाएगी। मुक्तिबोध के साथ अवतार सिंह पास को भी पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता है और दक्षिण से भी नए कवियों को शामिल कर हम हिन्दी को महत्वपूर्ण रूप दे सकते हैं। उनका कहना था कि भाषाओं में अखिल भारतीयता का पुट होना अत्यंत आवश्यक है। वक्त की जरूरत के अनुसार भाषा को बाजार से भी जोड़ना होगा। हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में अखिल भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट अनुवाद को भी शामिल किया जाना चाहिए।डॉ0 अशोक कुमार, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने कहा कि आज जो हिन्दी का अस्तित्व है वह इस बात पर निर्भर करता है कि उसको आगे तक ले जाने वाले लोग कितने हैं? हमें दायरों से बाहर निकलना होगा। आज जो हिन्दुस्तान एशिया का नेतृत्व कर रहा है उसमें हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने आधुनिक युग में कबीर की जरूरत की ओर ध्यान दिलाया। अन्त में वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ग्लोबलाइजेशन के युग में हिन्दी बनी रहेगी यदि प्राणपन से लगे रहें।अन्य विशिष्ट वक्ताओं में प्रो0 वी0के0 मिश्रा, (हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला) ने कहा कि पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी की स्थिति उत्साहजनक है। अरूणाचल प्रदेश में हिन्दी में काफी काम हो रहा है। यदि हमें अखण्ड भारत की कल्पना करनी है तो हम किसी एक प्रदेश के दायरों से बाहर निकलकर सम्पूर्ण भारत को एक नजरिये से देखना होगा और हमें एक यात्री की तरह होना होगा। हिन्दी सरकारी मशीनरी से आगे न बढ़ी है और न बढ़ पाएगी बल्कि यह तो श्रमवीरों की भाषा है और श्रम से ही आगे बढ़ पाएगी। उन्होंने कहा कि हिन्दी भाषा इस वजह से आगे नहीं बढ़ रही है कि सरकार इसके प्रचार-प्रसार में योगदान दे रही है बल्कि यह तो दूरदराज के क्षेत्रों में फैले हुए मनीषियों की साधना का परिणाम है।विशिष्ट वक्ता प्रो0 ललितम्बा (अखिल कर्नाटक हिन्दी साहित्य अकादमी, बेंगलुरू) का कहना था कि मैं हिन्दी की पक्षधर इसलिए हूँ कि भारतीय संस्कृति को हिन्दी ने जोड़ा है। एक अखिल भारतीय समाज हिन्दी में व्याप्त है। अंग्रेजी का इतिहास गुलामी के इतिहास से जुड़ा हुआ है और यह एक दूरागत भाषा है। दक्षिण में हिन्दी की स्थिति बेहतर है और तमिलनाडु आदि को भी इसी नजरिए से समझ सकते हैं। दक्षिण की हिन्दी बिल्कुल वक्त के साथ चल रही है। आधुनिक विषयों पर साहित्य में शोध हो रहा है। कोई रचना यदि इस वर्ष प्रकाशित होती है तो अगले वर्ष हिन्दी में उस पर शोध करा दिया जाता है। लेकिन हमें इस बात को भी समझना होगा कि रामचन्द्र शुक्ल के बाद कोई बड़ा इतिहास ग्रन्थ हिन्दी में नहीं लिखा गया, जिसमें समग्रता हो। हमें हिन्दी को आधुनिक दृष्टिकोण से देखना होगा।डॉ0 प्रवीणा (हिन्दी विभाग, चेन्नई विश्वविद्यालय, हैदराबाद) का मानना था कि हिन्दी पट्टी से अलग हिन्दी में काम करने वाले लोगों को कई समस्याओं से जूझना पड़ता है। मेरा मानना है कि हिन्दी से बैर मत करो हिन्दी अपनी भाषा है यदि उत्तर और दक्षिण भारत के बीच बैर मिटाना है तो जोड़ने वाली भाषा का प्रयोग करो और यह कनेक्टिंग भाषा हिन्दी हो सकती है।सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रसिद्ध कहानीकार (भूतपूर्व प्राध्यापक, जे0एन0यू0, दिल्ली) का मानना था हिन्दी को हिन्दी पट्टी की संकीर्णता से मुक्त करना होगा। हमें भाषा को लचीला रखना होगा और यह भी ध्यान रखना होगा कि अन्य देशों की हिन्दी को भी उनकी निज पहचान के साथ स्वीकार करें क्योंकि सूरीनामी हिन्दी और मॉरीशस की मॉरीशसी हिन्दी को मेरठ की हिन्दी के पैमानों से नहीं समझा जा सकता।हमें तुलनात्मक साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन को बढ़ावा देना होगा। अनुवाद इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ग्लोबल आधार पर अनुवाद रोजगार का बड़ा माध्यम है और हम अंग्रेजी का भी विरोध नहीं कर सकते। अंग्रेजी आज यंत्र माध्यम और विश्व की भाषा है। हमें अंग्रेजी के मैकनिज्म को समझना होगा। भाषाओं का अपना मिजाज होता है और भाषाएं दबाव के द्वारा नहीं फैलती बल्कि जनभावनाओं के द्वारा आगे बढ़ती है और हमें हिन्दी पट्टी के बाहर उन जनभावनाओं को उत्पन्न करना होगा जो हिन्दी की स्वीकार्यता को संभव बना सके।धन्यवाद ज्ञापन देते हुए इस संगोष्ठी के संयोजक और हिन्दी विभागाध्यक्ष, चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि मेरठ विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप का ध्यान रखा है और संत गंगादास जैसे कवियों को भी शामिल किया है जो अपने स्वरूप में अखिल भारतीय है।न केवल क्षेत्रीय साहित्य बल्कि प्रवासी साहित्य को भी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में समाहित किया गया है और ग्लोबलाइजेशन के दौर में रोजगार की दृष्टि से जनसंचार के पाठ्यक्रम को भी चलाने की योजना है। उन्होंने सभी देश-विदेश से आयें अतिथियों का आभार व्यक्त किया।सत्र का संचालन डॉ0 अशोक मिश्र ने किया। सत्र का संचालन करते हुए उन्होंने वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी की स्थिति को उत्साहवर्धक बताया क्योंकि हिन्दी आज बाजार की भाषा है और हिन्दी को बाजार बहुत आगे लेकर जाएगा।इस सत्र में लगभग 250 प्रतिभागी और विभिन्न छात्रों और शोधार्थियों ने हिस्सा लिया। जिनमें विपिन शर्मा, अजय, मोनू, राजेश, अंचल, अँन्जू, गजेन्द्र, ललित, अमित आदि विद्यार्थी शामिल थे।इसी दिन सायं 6ः00 बजे ‘बृहस्पति भवन’ में ‘कवि गोष्ठी’ का आयोजन किया गया। जिसमें श्रीमती जय वर्मा, स्नेह ठाकुर, प्रो0 ललितम्बा, प्रो0 देवराज, डॉ0 सिद्धेश्वर तथा मेरठ के कवियों में श्री ओंकार ‘गुलशन’, डॉ0 रामगोपाल ‘भारतीय’, शिवकुमार शुक्ल, डॉ0 मौ0 असलम सिद्दीकी आदि ने अपना काव्य-पाठ कर श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। कवि गोष्ठी का संचालन ‘अमित भारतीय’ ने किया।13 फरवरी 2010 को अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रातः 09ः30 बजे तृतीय सत्र ‘वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी’ विषय पर केन्द्रित रहा। सत्र की अध्यक्षता अमेरिका से आए कहानीकार और मीडिया विशेषज्ञ श्री उमेश अग्निहोत्री ने की। बीज वक्तव्य देते हुए सर्जनात्मक लेखन महात्मा गांधी केन्द्र मोकान, मॉरीशस के अध्यक्ष श्री हेमराज सुन्दर ने कहा की मॉरीशस में प्रकाशन गृहों के अभाव के कारण हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधा उत्पन्न हो रही है। यद्यपि वहाँ के विद्यार्थी भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा में अत्यंत रूचि लेते हैं। वहाँ विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी में शोध की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। लंदन से आई कवयित्री और ब्लॉग संपादक सुश्री कविता वाक्चनवी ने कहा की भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी में विकास की अपार संभावनाएं हैं। भारत के बाहर हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक लेखन गुण की दृष्टि से मॉरीशस में तथा संख्या की दृष्टि से यू0के0 में हो रहा है। आज जिस वैश्वीकरण की बात हो रही है वह बाजर से प्रेरित है। जबकि भारतीय परंपरा में भी सदियों से ‘वसुधैव कुटूम्बकम’ के रूप में यह प्रक्रिया जारी रही है। लेकिन हमारी परंपरा एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को जोड़ने वाली है, व्यक्ति को अलगाव में डालने वाली नहीं है। ब्रिटेन से पधारे कवि श्रीराम शर्मा ‘मीत’ ने कहा की इंग्लैड में आबादी का 04 प्रतिशत हिस्सा अप्रवासियों का है जिनमें भारतीयों की सबसे ज्यादा संख्या है। हिन्दी की स्थिति पर विचार करते हुए उन्होंने कहा की विदेशों में रहने वाले भारतीय खुद की मातृभाषा पंजाबी, बंगाली आदि बताते हैं; हिन्दी नहीं। हिन्दी को विश्व भाषा बनाने से पहले हमें सच्चे अर्थोे में पहले उसे राष्ट्रभाषा बनाना होगा। ब्रिटेन से आई कवयित्री श्रीमती जया वर्मा ने भी ब्रिटेन में हिन्दी की स्थिति पर प्रकाश डाला उन्होंने आशा प्रकट की कि अपने प्राण एवं जीवन शक्ति के बल पर हिन्दी शीघ्र ही विश्वभाषा के स्थान पर आसीन होगी। श्री हरजेन्द्र चौधरी ने कहा कि यदि देश ऊपर उठेगा तो भाषा भी ताकतवर होगी। ‘अक्षरम्’ संस्था के अध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने कहा कि आज विश्व की बड़ी भाषाएं व्यावसायिक होती जा रही हैं। आज हिन्दी के क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रान्ति यह होगी कि हिन्दी को इन्टरनेट की भाषा बनाया जाए। सत्र की अध्यक्षता करते हुए अमेरिका से आए श्री उमेश अग्निहोत्री ने कहा की हिन्दी ऐसी भाषा है जो कभी मर नहीं सकती। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि अंग्रेजी न होती तो हिन्दी संपर्क भाषा होती। चतुर्थ सत्र ‘सूचना प्रौद्योगिकी एवं हिन्दी’ की अध्यक्षता बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति प्रो0 एस0वी0एस0 राणा ने की। बीज वक्तव्य देते हुए इग्नू के हिन्दी एवं मानविकी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो0 वी0रा0 जगन्नाथन ने कहा की मशीन आधुनिक समय में काफी परिवर्तन और क्रांतिकारी अवधारणाओं को संभव बना सकती है। इसका उपयोग हम हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कर सकते हैं। हिन्दी को हमें सूचना प्रौद्योगिकी से जोड़ना होगा। आज भारत में अनेक ऐसी संस्थाएं कार्यरत हैं जो इस कार्य को अत्यंत निष्काम भाव से संपन्न कर रही हैं। प्रसिद्ध प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ श्री विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा की आज कम्प्यूटर के व्यापक प्रयोग के बावजूद हिन्दी वाले उससे वंचित हैं। हिन्दी में साहित्य से इतर अन्य विधाओं तथा पत्रकारिता, विज्ञान आदि का जिक्र न के बराबर होता है। उन्होंने बताया कि आज ऐसे अनेक कम्प्यूटर प्रोग्राम एवं कम्प्यूटर सॉटवेयर माजूद हैं जो हिन्दी में कार्य करने में पूर्णतः सक्षम हैं। उन्होंने अपने प्रस्तुतीकरण के माष्यम से लोगों की ऑंखे खोल दी ।ब्रिटेन में भारत के पूर्व संस्कृति एवं हिन्दी अताशे श्री राकेश दुबे ने कहा कि संस्कृत का तिरस्कार करके हमने उसे पीछे डाल दिया है जबकि वह कम्प्यूटर के लिए उपर्युक्त भाषा है। इसको भविष्य में अपनाना ही होगा जिससे कि पूरे भारतीय भाषाओं के लिए हमें एक विशिष्ट भाषा रूप मिल सकेगा ।सत्र के अध्यक्ष प्रो0 एस0वी0एस0 राणा ने उम्मीद जताई की जैसी सुविधाएं कम्प्यूटर आदि सूचना तंत्र में अंग्रेजी में मौजूद हैं शीघ्र ही हिन्दी में भी यही स्थिति होगी। पंचम सत्र ‘अनुवाद और हिन्दी’ की अध्यक्षता प्रसिद्ध भाषाशास्त्री एवं एम0डी0यू0, रोहतक से पधारे के प्रो0 नरेश मिश्र ने की। बीज वक्तक्य देते हुए कुमायूं विश्वविविद्यालय से पधारे डॉ0 सिद्धेश्वर ने कहा कि हिन्दी में अनुवाद और अनुवादक को वह महत्व नहीं मिलता जो एक मूल रचनाकार को मिलता है। जबकि अनुवाद भी एक रचनात्मक कार्य हैं। दूसरी भाषाओं के साहित्य से हम अनुवाद के माध्यम से ही परिचित हो पाते हैं। उन्होंने अनुवादक की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा की यदि हिन्दी की अनुवादित पुस्तकों में कहीं अनुवाद का नाम दिया भी जाता है तो वह अत्यंत छोटे शब्दों में होता है। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के साहित्य संकायाध्यक्ष प्रो0 सूरज पालीवाल ने अनुवाद साहित्य में किए गए कार्याें प्रकाश डालते हुए कहा कि आज हिन्दी साहित्य में एक लाख पृष्ठों का साहित्य इन्टरनेट पर उपलब्ध करा दिया गया है। हम अनुवाद को दोयम दर्जे का कार्य मानते हैं जिसके कारण विस्तृत पैमाने पर अनुवाद नहीं हो पा रहा है। लेखिका एवं प्रख्यात लेखक खुशवन्त सिंह की रचनाओं का अनुवादक श्रीमती उषा महाजन ने कहा कि बिना संवेदनाओं को पकडे़ किसी भी साहित्यिक कृति का सच्चे अर्थों में अनुवाद नहीं हो सकता। अनुवादक को मूल भाषा और स्रोत्र भाषा की छोटी-छोटी बारीकियों का ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने अपने अनुवाद संबंधी संस्मरणों को साझा किया तथा भाषा एवं भाव के अनुवाद पर प्रभावों की भी विस्तृत चर्चा की ।महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक की हिन्दी के आचार्य एवं सत्र के अध्यक्ष प्रो0 नरेश मिश्र ने कहा की यदि अनुवादक में उस विधा को पकड़ने की सहृदयता नहीं है तो अनुवाद व्यर्थ हो जाता है। अनुवाद दो भाषाओं का संगम और समागम है। अनुवाद का कार्य एक तपस्या का कार्य है उसे दो भषाओं में डूबना पड़ता है। जो अनुवादक दोनों भाषाओं में जीकर अनुवाद करता है वही श्रेष्ठ अनुवादक होता है।संगोष्ठी में देश विदेश से आए अनेक विद्वान/शिक्षक/विषय विशेषज्ञों/शोधार्थियों/छात्र-छात्राओं की सहभागिता रही। 14 फरवरी 2010 को अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के अंतिम दिन षष्ठ सत्र ‘हिन्दी में विधाओं का विकास’ को लेकर अलग-अलग विधाओं को लेकर वक्ताओं ने अपने विचार रखें। सत्र में बीज व्याख्यान देते हुए पटना विश्वविद्वालय में हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो0 महेन्द्र मधुकर ने हिन्दी में कविता के विकास को लेकर अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के एक समारोह का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘‘हिन्दी की बात तो हम करते हैं किन्तु हिन्दी में बात नहीं करते।’’ भूण्डलीकरण को उन्होेंने अमेरिका जैसे कुछ देशों के द्वारा मुनाफे के लिए बनाया गया एक तंत्र बताया जो पूंजीवादियों के लिए मुनाफे का माध्यम है। उन्होंने भूमण्डलीकरण को ही उत्तर आधुनिकता के जन्म का कारण बताया। जिसने उपभोक्तावाद को जन्म दिया। उन्होंने बताया कि भूमण्डलीकरण उत्तर आधुनिकता का एक बौद्धिक कक्ष हैं। उन्होंने कविता को मानव समाज की देन कहा जो समाज की कोख से पैदा होती है। भूमण्डलीकरण की जड़ें उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति में खोजी और कहा की हमारी संस्कृति ‘वसुधैव कुटम्बकम’ को अपने अन्दर समाहित करके ही सदा से चली है इसलिए भूमण्डलीकरण भारत में कोई नहीं संकल्पना नई है अपितु यह बहुत प्राचीन पद्धति है। उन्होंने उत्तर आधुनिकाता का जन्म भी प्राचीन काव्य सिद्धांतों में खोजने की बात कही। अन्त में उन्होंने कविता पर वक्तव्य देते हुए कहा कि कविता सर्वकाल से समकाल की ओर जाती है तथा आज की कविता व्यंजनात्मक है। महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ0 रोहिणी अग्रवाल ने उपन्यास विधा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मैं अपनी बात वहाँ से शुरू करूंगी जहाँ पर इतिहास की किताबें रूक जाती हैं। उपन्यास विधा में उन्होंने कथ्य के स्तर को जोड़ते हुए उपन्यास में परिवर्तन बिन्दुओं को रेखांकित किया। उन्होंने कमलेश्वर के उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ को संर्दभित करते हुए कहा कि उपन्यास में पुराने वर्णनात्मक और किस्सागो शैली तनाव संघर्ष को अभिव्यक्त करने में नाकाफी है। इसीलिए कमलेश्वर ने अपने उपन्यास में फैंटैसी, कल्पना, पटकथा, रिपोर्ट का एक अद्भुत प्रयोग करते हुए इतिहास को विश्लेषित किया। उन्होंने आज के उपन्यासकारों को रेंखांकित करते हुए कहा कि अब उपन्यासकार केवल वक्त पर ही टिप्पणी नहीं करते अपितु उन्हें निर्मित करने वाले कारकों और उनके पीछे छिपे तथ्यों की भी पड़ताल करते हैं। कमलेश भट्ट ‘कमल’ ने ‘हाइकू’ पर अपने विचार रखते हुए कहा कि ‘हाइकू’ दुनियाँ की सबसे छोटी कविता है। जिसका जिक्र 1916 ई0 में गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पहली बार ‘हिन्दुस्तान’ पत्र में किया। हिन्दी में ‘हाइकू’ की शुरूआत करने वाले अज्ञेय हैं। जिन्होंने ‘अरी ओ करूणा प्रभामय’ में 1959 में ‘हाइकू’ के नूतन प्रयोग किए। आज ‘हाइकू’ दुनियाँ की हर भाषा में लिखे जा रहे हैं तथा इन्टरनेेट पर इसकी हजारो वेबसाइटें मौजूद हैं। उन्होनंे ‘हाइकू’ और ‘गजल’ के समानान्तर विकास की बात भी कही। हिन्दी में दो सौ पचास संकलन ‘हाइकू’ को लेकर आ चुके हैं। ‘हाइकू’ सत्रह शब्दों में जीवन की किसी गंभीर या शाश्वत सत्य को रेखांकित करने का सशक्त माध्यम है। उन्होंने ‘हाइकू’ के अनेक उदाहरण देकर इस विधा की गंभीरता को भी रेखांकित किया यथा:समुद्र नहीं/परछाई खुद की/लांघों तो जानेकौन मानेगा/सबसे कठिन है/सरल होनायह विधा केवल साहित्यिक विधा तक ही सीमित नहीं है अपितु यह व्यावसायिक, श्रमिक उद्योग, कांच उद्योग आदि को भी सटीक ढंग से अभिव्यक्त करने में सक्षम है। दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के आचार्य प्रो0 गोपेश्वर सिंह ने आलोचना पर अपना वक्तव्य केन्द्रित करते हुए कहा कि आलोचना का संबंध विश्वविद्यालय से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है क्योंकि इसका जन्म यहीं से होता है किन्तु हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने आलोचना को उपेक्षित दृष्टि से देखा। राजेन्द्र यादव, वाजपेयी आदि लेखकों ने इसे प्राध्यापकीय/विश्वविद्यालीय आलोचना कहकर इस विधा का मजाक उड़ाया है। अन्तोन चेखव ने भी आलोचना को घोड़े की टांग की मक्खी बताया है तथा यशपाल ने भी आलोचना को गाड़ी के नीचे चलने वाला एक कुत्ता बताया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधा का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है किन्तु प्रो0 गोपेश्वर सिंह का मानना है कि आलोचना हिन्दी साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण विधा है जो किसी भी कृति के गुणदोषों का सम्यक् मूल्यांकन कर पाठकों को परिचित कराती है तथा यह लेखक और पाठक के बीच सेतु का कार्य भी करती है। आलोचना के बिना हिन्दी साहित्य की सही दिशा का निर्धारण करना संभव नहीं है। उन्होंने स्वतंत्रता पूर्व की आलोचना को परिपाटीबद्ध बताया जो अपने-अपने सीखचों में बन्द थी किन्तु आज की आलोचना खेमेबाजी से युक्त प्रगतिशील आलोचना है। जो साहित्य का बिना किसी पूर्वाग्रह, बिना किसी खलनायक, बिना किसी की हत्या किए अपना पक्ष रखती है। उन्होने स्वतंत्रता पूर्व की आलोचना को बंद मन की मानसिकता जो स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, जनजातीय विमर्श को स्पेस नहीं देती जबकि आज की आलोचना इन सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त है। उन्होंने दूधनाथ सिंह की पुस्तक ‘महादेवी एक अध्ययन’ का उदाहरण भी अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए रखा। सत्र की अध्यक्ष एवं युद्धरत ‘आम आदमी’ पत्रिका की सम्पादक रमणिका गुप्ता ने सभी के विचारों का समन्व्यय करते हुए अन्त में साहित्य में स्त्री दलित, आदिवासी की संवेदनाओं को समझने एवं अभिव्यक्त करने पर बल दिया। उन्होनंे कहा उत्तर आधुनिकता कहती है कि विचार का, साहित्य का, इतिहास का अन्त हो गया। जबकि यह पश्चिम का राग है। इतिहास मे दर्ज हाशिए के लोग तो अब केन्द्र में आए हैं जबकि यह इतिहास के अन्त की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य अब तक व्यक्तिगत कुंठाओं की बानगी था किन्तु आज परिदृश्य बदला, मूल्य बदले तथा हाशिए के लोगों को भी अपनी बात करने का साहित्य में मौका मिला। उन्होंने आलोचना को खेमेबंदी से दूर रखकर पूर्वागृहों से मुक्त होकर सम्यक् दृष्टि से विश्लेषित करने पर बल दिया। साहित्य में अब तक चारण, चापलूसी आदि की प्रवृत्ति हावी रही किन्तु आज साहित्य इन संकिर्णताओं से मुक्त होकर लिखा जा रहा है। अंत में उन्होंने हिन्दी साहित्य में स्त्री आत्मकथा तथा दलित आत्मकथाओं को एक नई शुरूआत बताया और कहा कि साहित्य जितना सरल लिखा जाएगा उतना ही पाठकों के करीब पहुँचेगा।संगोष्ठी के समापन सत्र में कार्यक्रम अधिशासी दूरदर्शन, नई दिल्ली डॉ0 अमर नाथ ‘अमर’ ने भूमण्डलीकरण के दौर में भाषाओं, बोलियों पर केन्द्रित अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम से पहले की पत्रकारिता पूर्णतः आजादी से संबद्ध रही किन्तु आजादी के बाद यह एक व्यवसाय बन गई। साथ ही साथ उन्होंने समय-समय पर भाषा और बोलियों के परिवर्तन के कारणों की भी पड़ताल की। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान की निदेशक डॉ0 सविता मोहन ने कहा कि हम हिन्दी साहित्य की बात करते हुए प्रायः पाठक को विस्मृत कर देते हैं जबकि वही साहित्य जीवित रहता है जो जनमानस को केन्द्र में रखकर रचा जाता है। उन्होंने साहित्य को दलित, स्त्री आदि खेमों में न बांट कर सम्रगता में देखनें की आवश्यकता जताई।भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के निदेशक हिन्दी तथा गगनांचल पत्रिका के संपादक डॉ0 अजय गुप्ता ने हिन्दी भाषा को राजनीतिक स्पोर्ट करने पर तथा संसद में इस आवाज को बुलन्द करने पर जोर दिया तथा उन्होंने मणिपुर के विधायकों का उदाहरण देते हुए कहा कि यह कार्य वे संसद में भलिभांति कर रहे हैं। अंत में उन्होंने कहा कि यह साहित्य का कंुभ सफल रहा तथा यदि इस सभागार में शेक्सपीयर भी आया होता तो वह भी हिन्दीमय होकर जाता। सूचना विभाग के पूर्व महादिनदेशक डॉ0 श्याम सिंह ‘शशि’ ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा कि यह विश्वकुंभ है तथा मुझे यहाँ बहुत ही सुखद आश्चर्य अनुभव हुआ। उन्होंने कहा की हिन्दी भाषा को लेकर जो कार्य हमने शुरू किए थे उसे प्रो0 लोहनी और उनकी पीढ़ी आगे ले जाएगी। उन्होंने हिन्दी के क्षेत्रीय रूपान्तरण को लेकर भी अपने विचार रखें तथा क्षेत्रीय भाषाओं को हिन्दी के लिए खतरे की घंटी बताया तथा हिन्दी के बिगडते स्वरूप को लेकर, समाचार पत्रों, टीवी चैनलों आदि पर चिन्ता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि भाषा का अपना निज स्वरूप होता है। उसे इस कद्र नहीं बिगाड़ा जाना चाहिए कि उसका संतुलन ही बिगड़ जाए। उन्होनंे हिन्दी के विकास में गैर हिन्दी भाषियों तिलक, दयानन्द सरस्वती, के.एम. मुंशी, राजगोपालाचारी आदि के योगदान की भी चर्चा की तथा हिन्दी अनुवाद में गुणवत्ता पर भी जोर दिया तथा कहा कि तभी यह भाषा विश्व भाषा बनेगी और विश्व हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जा सकेगा। इन सत्रों का संचालन विभाग के शोधार्थी विपिन कुमार शर्मा ने किया।अंत में विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी अतिथियों को प्रतीक चिह्न देकर सभी का आभार व्यक्त किया तथा अन्त में माननीय कुलपति प्रो0 एस0के0 काक ने धन्यवाद ज्ञापन देते हुए इस संगोष्ठी से एक सफल मुहिम और हिन्दी के प्रचार-प्रसार की संभावना को व्यक्त किया। माननीय कुलपति, प्रो0 एस0के0 काक ने कहा कि हिन्दी तभी अपना समुचित विकास कर सकेगी जब यह क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को भी अपनाए। संगोष्ठी में उपस्थित प्रतिभागियों/श्रोताओं से खचाखच भरे सभागार को देखकर माननीय कुलपति ने संगोष्ठी के सफल आयोजन पर विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी को बँधाई दी।प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि इस संगोष्ठी को सफल बनाने में विभाग के शिक्षकों, कर्मचारियों, छात्र-छात्राओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं।

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