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Thursday, December 8, 2011

साहित्य को ’एन्ज्वाय’ करना होगा तब जाकर कहीं लगेगा कि हम साहित्य को जी रहे हैं- तेजेन्द्र शर्मा



दिनांक 8 दिसम्बर 2011। ’लेखक प्रवासी हो सकता है, साहित्य प्रवासी नहीं हो सकता।’ साहित्य किसी विचारधारा के दबाव में नहीं लिखा जाए। साहित्य के लिए विचार जरुरी है विचारधारा जरुरी नहीं क्यांेकि आम आदमी का दर्द किसी विचारधारा का मोहताज नहीं। आपको लेखक होने के लिए संवेदनशील होना जरूरी है। जहाँ आप रहते हैं वहाँ के विचार आपकी कहानियों में परिलक्षित होते हैं। ये विचार आज चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के हिन्दी विभाग में आयोजित संगोष्ठी ’’प्रवासी हिन्दी साहित्य एवं कहानी पाठ’’ में ब्रिटेन में रह रहे हिन्दी के कहानीकार श्री तेजेन्द्र शर्मा ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि जब हिन्दी में प्रवासी साहित्य नाम की संज्ञा बनाई गई तो मैंने जिज्ञासावश पूरी दुनियां की भाषाओं को खंगाला तो पाया कि दुनियां की किसी भाषा में प्रवासी साहित्य जैसी कोई बात है ही नहीं। हिन्दी वालों को कंपार्टमेंट बनाने का शौक है हम साहित्य को साहित्य नहीं रहने देना चाहते। उसे दलित साहित्य, महिला लेखन आदि खानों में बांटते हैं। साहित्य अमरीका, कनाडा, खाड़ी देशों में भी लिखा जा रहा है यह सारा प्रवासी साहित्य है। क्या प्रवासी साहित्य जो इन देशों में लिखा जा रहा है यदि एक है तो पूरा है क्योंकि जिस देश-परिवेश में हम रहते हैं तो यदि वह हमारे साहित्य में लक्षित नहीं होता तो वह साहित्य नहीं। श्री तेजेन्द्र ने कहा कि अगर मैंने लन्दन, ब्रिटेन को जाना तो मेरी कोशिश होगी कि ब्रिटेन व लन्दन मेरे पन्नों पर बिखर जाए। मेरी कहानी का औचित्य तभी है जब पाठक को लगे कि मैंने कोई नई चीज सीखी। उन्होंने बम्बई का जिक्र करते हुए कहा कि बम्बई के साहित्य में बंबई जिन्दा क्यों नहीं है वह इसलिए कि बम्बई मंे एक भी हिन्दी लेखक नहीं जो बम्बई में जन्मा हो। जो कवि हैं उन्हें आजमगढ़-नैनीताल याद आता है, जो कहानीकार हैं वे उसे ही अभिव्यक्त करते हैं जहाँ से उठकर आए। अपने शब्दों को वाणी देते हुए तेजेन्द्र शर्मा ने पंक्तियाँ पढी -
’’बहुत दिन से मुझे अपने से ये शिकायत है
वो बिछडा गांव मेरे सपनों में नहीं आता
वो बैलों की घंटी, नदी का किनारा याद नहीं आता।’’
उन्होंने टिप्पणी करते हुए भारत से जाने के बारे में कहा कि रात को सोया तो सपनों में गांधी जी आए कि बेटा भारत छोडों, मैंने छोडा और वहाँ जाकर देखा कि हिन्दी की क्या स्थिति है और एक इच्छा जागी कि हिन्दी के लिए कुछ कँरु। प्रवासी शब्द पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में रहते हुए मेरे तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे, वे मुझसे पूँछते है कि हमारा क्या कसूर, हम क्यों प्रवासी हो गए, जो लेखन भारत के लिए हुआ था वह भी प्रवासी हो गया।  मैं जब रात को सोता हूँ तो इंग्लैण्ड मुझसे सवाल करता है-
’’जो तुम ना मानों मुझे अपना हक तुम्हारा है
यहाँ जो आ गया एक बार बस तुम्हारा है
तरह-तरह के परिंदे बसे है आकर यहाँ
सभी का दर्द यहाँ आकर संवारा है।
नदी की धार बहे आगे मुड़कर ना देखे
न समझो इसको भंवर यही किनारा है।’’
उन्हांेने कहा कि कोई भी लेखक कितना ही गंभीर क्यों न हों वह बिना सोचे नहीं लिख सकता। भारत में हिन्दी के छोटी कथाओं में पढाने पर तंज करते हुए कहा कि जब भारत में युवा पीढी को हिन्दी पढ़ाने में दिक्कत है तो इग्लैण्ड में कैसा होगा ? ’हिन्दी साहित्य इज ए पार्टटाइम एक्टीविटी’ टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि हर हिन्दी लेखक खाकर लिखता है, लिखकर कोई नहीं खाता। हिन्दी के लेखक को बताना पड़ता है कि मेरी किताब छपी है। ऐसे में हम यह लड़ाई इग्लैण्ड में लड़ रहे हैं। वहाँ कोई राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, संजीव को नहीं जानता। हमे अभी बहुत कुछ करना है और युवा पीढी से बहुत सी आशा है।
श्री शर्मा ने कहा कि साहित्य हमारा ’इनबिल्ट’ हिस्सा बनना चाहिए। साहित्य को ’एन्ज्वाय’ करना होगा तब जाकर कहीं लगेगा कि आप साहित्य को जी रहे हैं। उन्होंने कहा कि जिस लेखक की पाठ्यक्रम में रचना लगी है उसकी कम से कम दो किताब पढ़नी चाहिए तब उस लेखक को समझा जा सकता है। मेरी पंजाबियत की चासनी मेरी कहानियों को जीवंत बनाती है। हमें उधार की भाषा की जरुरत नहीं। हर लेखक को अपनी एक अलग भाषा बनानी चाहिए। आज का पाठक कहानी को ’लॉजिकली’ समझना चाहता है। कहानी बहुत कठिन विधा हो गई है क्योंकि बहुत सारे आन्दोलनों ने कहानी को कठिन कर दिया। कहीं रोचकता गायब है कही कुछ कहानी में से कहानीपन कहीं खो गया है। आज हमें नामवर सिंह की तरफ नहीं देखना। हमें अपने आलोचक खुद बनाने होंगे। पुराने आलोचकों के पास नया सीखने की इच्छा नहीं, वे आदरणीय हैं। आदरणीय की वजह से काम न रूके। हमें नई पीढी के आलोचक चाहिए। अजय नावरिया, सुशील सिद्धार्थ जैसे नवयुवा हमारी आलोचना का हिस्सा बनेंगे। ये खुले दिमाग के है। आज तक नामवर सिंह कविता के मानदण्डों से कहानी को नापते रहे। नई पीढ़ी आगे आकर नये सिद्धान्त बनाए। उन्होंने कहा कि कुछ करोड़ लोग तो हिन्दी पढ़ते होंगे। हजार-पन्द्रह सौ ’हंस’, ’कथादेश’ भी पढ़ते होंगे, हिन्दी की सबसे बड़ी पत्रिका कितने हिन्दीभाषियों तक पहुँचती होगी। हमें मुख्यधारा के द्वार खोलने होंगे। जो युवा लेखक आए हैं वे ’वाद’ के दबाव में लेखन नहीं करते, वे कहते हैं कि हम दलित लेखक नहीं है। लेखन को लेखन माना जाए। अगर मन्नू भण्डारी का लेखन अच्छा है तो इसलिए अच्छा है या खराब, इस कारण नहीं है कि वह महिला है। 
श्री तेजेन्द्र ने बताया की महुवामाजी के मैं ’बोरीसाइल्ला’ व प्रमोद तिवारी के ’डर हमारी जेबों में’ उपन्यासों को इग्लैंण्ड में इसलिए सम्मानित किया गया कि इन उपन्यासों में बंग्लादेश बनने, उस समय का बिहार कैसा था , आदि मुद्दों पर व्यापक शोध किया गया है। हिन्दी साहित्य को शोध करने की प्रवृŸिा विकसित करनी होगी। नई पीढ़ी को नए मुहावरे गढ़ने हैं जब आप ये काम करेंगे तो हिन्दी साहित्य की ’सीरियस’ सेवा करेंगे। 
इस अवरसर पर श्री तेजेन्द्र ने अपनी कहानी ’कब्र का मुनाफा’ का कहानी पाठ भी किया। अंग्रेजी विभाग के प्रो0 अरुण कुमार ने इस कहानी पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा लग रहा था जैसे हम मंच पर कोई नाटक देख रहे हो। प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि कहानी का प्लाट प्रशंसनीय है और तेजेन्द्र जी स्वंय ही पात्रों की बखूबी भूमिका निभा रहे थे। कहानी में कही भी क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ। 
कहानीकार अजय नावरिया ने तेजेन्द्र शर्मा के विचारांे पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मैं इनकी कुछ बातों से असहमत हूँ, मैं अप्रिय सत्य बोलने के लिए बदनाम हूँ। उनकी कहानियों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने कहा कि प्रश्नाकूलता की जगह हो दूसरे इस पर विचार करें। उन्होंने मुख्य धारा वाली बात पर सवाल उठाते हुए कहा कि कहा कि इस मुख्यधारा से बहुत से लोग त्रस्त है। मुख्यधारा मिथ ज्यादा है यथार्थ कम। स्त्रियों के सच हम कैसे बता सकते हैं ? प्रवासी लेखन की बात देखे तो निर्मल वर्मा की दो कहानियाँ ’परिदे तथा ’लन्दन की एक रात’ से प्रवासी लेखन की शुरूआत मानी जाए। ’परिंदे कहानी में एक शब्द ’होमसिकनेस’ आता है। यह भारत के पहाडी प्रदेश की कहानी है। डॉ मुकर्जी जो बर्मा से प्रवास करके भारत आए उनकी ख्बाहिश है कि मै एक बार बर्मा फिर जाऊँ। ’होमसिकनेस’ एक बीमारी है। ’नास्ट्रेजिया’ बीमारी नहीं। बल्कि एक राग है, घर से दूर जाने का राग है। इसमें दुख भी है सुख भी है रोना सुख की प्रक्रिया का एक हिस्सा है। उन्होंने ’लन्दन की एक रात’ का हवाला देते हुए कहा कि अगर निर्मल वर्मा लन्दन न रहते तो वहाँ का दुख नहीं जान पाते। नावरिया ने कहा कि निर्मल वर्मा से लेकर अब तक उस खाई को तेजेन्द्र शर्मा भरते हैं। शर्मा जी की कहानियों के तीन हिस्से हैं एक भारत की समस्याओं पर, दूसरा आवागमन के बीच की यादों पर जैसे ’काला सागर’, ’देह की कीमत’ आदि मार्बल्स कहानियाँ है। तेजेन्द्र शर्मा वहाँ की मनोूभूमि-परेशानियों पर लिखते हैं। हिन्दी साहित्य में तेजेन्द्र अपनी कहानी ’कल फिर आना’ के लिए काफी लांक्षित हुए। कहानी में तेजेन्द्र ने एक स्त्री को सामान्य स्त्री के रूप में देखा। अगर उसकी नैसर्गिक जरूरते पूरी न हो तो कैसे विकार पैदा होते हैं।  
प्रो0 लोहनी ने श्री तेजेन्द्र की पत्रिका ’रचना संसार’ से कुछ उदाहरण देते हुए बताया कि ’इनकी समकालीन कहानी भारत का आधा गांव है।’ अब इनकी कहानियों को लेकर मूल्यांकन हो रहा है। आज हिन्दी बड़ी हो रही है। शर्मा जी जिस परिवेश को जगा रहे हैं उससे हम वहाँ की समस्याओं, विडम्बनाओं को समझेंगे। वे मनुष्य में बची हुई संवेदनशीलता पर कहानियाँ लिखते है। सहमति-असहमति हमारी निजी भी हो सकती है। 
मेरठ के साहित्यकार एवं फोकलोर वर्कले में प्रोफेसर रहे प्रो0 वेद प्रकाश ’वटुक’ ने कहा कि सन् 90 तक मुझे किसी ने नहीं कहा कि तुम्हारा प्रवासी लेखन है। हिन्दी का हर लेखक प्रवासी है जो गाँव से उठकर शहर आता है वो प्रवासी है। आज तक किसी भी अंग्रेजी के भारतीय लेखक ने अपने को प्रवासी लेखक नहीं कहा। सन् 60 में मैंने जो भी लिखा अमेरिकन आन्दोलनों के बारे में लिखा। जो भारतीय विदेशों में जाते है वे भारतीयों की ही बात करते हैं। वे किसी आन्दोलन में शामिल नहीं हुए। अगर हम मॉरीशस के साहित्य को प्रवासी साहित्य कहे तो अमरीका का पूरा साहित्य प्रवासी साहित्य है क्योंकि 200 वर्ष पुराना यह भी है और वह भी है। 
कला संकाय के डीन प्रो0 आर0एस0 अग्रवाल ने कहा कि साहित्यकारों ने ’कल्चरल बोंडस’ को मजबूत बनाने के लिए अच्छा प्रयास किया। हिन्दी के ’कैनवास’ को बड़ा करने के लिए उनके प्रयास प्रशंसनीय हैं। समाज के ’कानफ्लिक्ट’ को रोचक वे में प्रस्तुत किया। हम उससे सीख ले सकते हैं कि उस कानफ्लिक्ट’ से हम कैसे स्वंय को अलग करें। हमारा हिंदी साहित्य कम नहीं है बस कैनवास को बढाया जाए। इस अवसर पर तेजेन्द्र शर्मा ने अपनी गजले भी सुनाई। 
हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी वक्ताओं का आभार व्यक्त किया। संचालन मोनू सिंह ने किया इस अवसर पर मेरठ के साहित्यकारों में किशन स्वरूप, ज्वाला प्रसाद ’साधक’, ईश्वर चन्द्र गंभीर तथा डॉ0 सीमा शर्मा, आलोक ’प्रखर’, रवीन्द्र कुमार, अंजू, आरती राणा, ललित कुमार सारस्वत, विवेक आदि तथा हिन्दी विभाग के छात्र-छात्राओं में प्रगति, अनुराधा, प्रियंका, पिण्टू, दलीप, चरन सिंह, राहुल, कौशल, मनीषा, ज्योति सिंह, शिवानी आयुषी, पूजा, लता, विनय आदि उपस्थित रहे।
                                                                 
                                          
                                                                           


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