उत्तर प्रदेश का पश्चिमी क्षेत्र सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक दृष्टि से सम्पन्न रहा है। 1857 का स्वाधीनता आन्दोलन भी यहीं से शुरू हुआ। इसके अतिरिक्त यह क्षेत्र भाषाई दृष्टि से भी महत्व रखता है। यहाँ की मूल ‘कौरवी’ बोली है जो वर्तमान में खड़ीबोली नाम से सम्पूर्ण देश की राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य है। चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के ‘हिन्दी विभाग’ को इस क्षेत्र के स्थान-नामों के अध्ययन एवं शोध हेतु भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा ‘‘खड़ी बोली क्षेत्र के स्थान-नामों का व्युत्पत्तिगत एवं समाज भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’’ विषय पर वृहत् शोध परियोजना स्वीकृत हुई है। परियोजना के अन्तर्गत पाँच लाख सत्तर हजार आठ सौ पच्चीस रूपए (5,70,825/-) की राशि परिषद् द्वारा स्वीकृत की गई है। इस परियोजना पर बाईस माह तक शोध कार्य किया जाना है। यह जानकारी देते हुए हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने बताया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जनपदों की सांस्कृतिक शब्दावली, ग्रामीण शब्दावली एवं बोलीगत अध्ययन तो हुए हैं, किन्तु इस क्षेत्र के स्थान-नामों का व्युत्पत्तिपरक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययन पहली बार किया जाएगा। उन्होंने बताया कि परियोजना पर 15 जनवरी सन् 2010 से कार्य प्रारम्भ कर दिया जाएगा।इस शोध मे मेरठ तथा सहारनपुर मण्डलों के जनपदों, नगरों, ब्लाकों, तहसीलों तथा ग्रामों का अभिधानात्मक अध्ययन किया जाना है। साथ ही खड़ीबोली क्षेत्र को लक्ष्य करते हुए रामपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, रूड़की, लक्सर, हरिद्वार, दिल्ली के स्थान-नामों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। इसके माध्यम से यह जानकारी लोगों तक पहुँच सकेगी कि अमुक नगर, कस्बा, गांव के नाम रूप के पीछे क्या सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अथवा राजनैतिक कारण रहे हैं। इससे किसी स्थान नाम के पीछे की यथार्थ स्थिति को जाना जा सकेगा। खड़ी बोली क्षेत्र मंे कुछ प्रसिद्ध नगरों, ब्लाॅकों, तहसीलों तथा ग्रामों के नाम प्रसिद्ध हैं तथा उनके नामकरण के पीछे अर्थात एक-एक स्थान-नाम के पीछे कई-कई किवदंतियाँ, धारणाएं प्रचलित है, किन्तु उनमें तर्क तथा तथ्यात्मकता का अभाव है। इस शोध में किवदन्तियों, धारणाओं एवं मिथकों को तोड़कर एक प्रामाणिक अध्ययन विश्लेषण कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्थिति को जाना जा सकेगा। अन्य क्षेत्रों की तरह खड़ी बोली क्षेत्र में स्थानीय इतिहास भी प्रामाणिक रूप मंे उपलब्ध नहीं है। इस परियोजना से खड़ी बोली क्षेत्र के इतिहास के पुनर्रलेखन की समस्या का समाधान भी हो सकेगा। लोग जिस स्थान पर वर्षों से रह रहे हैं, उस स्थान - नगर, कस्बा तथा ग्राम का नाम स्थापन तथा व्युत्पत्ति आदि के विषय में नहीं जानते हैं। जिससे यहाँ की परंपरागत जानकारी जनता के सामने नहीं आ पा रही है। क्षेत्र की ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक जानकारी सम्बंघी कई गुत्थियाँ इस शोध के माध्यम से खुलकर सामने आएंगी। इन समस्याओं को देखते हुए खड़ी बोली क्षेत्र के स्थान-नामों का समाजपरक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया जाएगा।इसके माध्यम से नामकरण के विभिन्न आधारों जैसे भौगोलिक आधार पर, धार्मिक व सांस्कृतिक आधार पर, राजनैतिक आधार, सामाजिक सम्बन्धों का आधार लेकर व्यक्ति विशेष पर आधारित आदि के माध्यम से शोध कार्य होगा।परियोजना के प्रारम्भ में खड़ी बोली क्षेत्र के विभिन्न जनपदों, विकासखण्डों, तहसीलों आदि के माध्यम से डाटा एकत्र किया जाएगा तथा इसके पश्चात् क्षेत्र से जुड़े विभिन्न स्थानों-ग्रामों में जाकर गाँव-कस्बों के पुराने जानकार व्यक्तियों से सम्पर्क कर यथातथ्य साम्रगी का संकलन किया जाएगा। इस भाषा वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा अनेक ग्राम-नगरों के मूल तक पहुँचने में सहायता मिलेगी। जिससे अनेक क्षेत्रीय सन्दर्भ उजागर होंगे।प्रो0 लोहनी ने बताया कि क्षेत्रीय भाषाओं के अध्येताओं का ध्यान प्रायः स्थान नामों की उपादेयता पर नहीं जाता। क्षेत्र की खड़ीबोली की मूल ‘कौरवी बोली’ की प्रवत्तियों को उद्घाटित करने में यह अध्ययन सहायक होगा तथा खड़ी बोली को अधिक गहराई से समझने में भाषाविदों को पर्याप्त सहायता मिलेगी। साथ ही इसके द्वारा देशीय संस्कृति, क्षेत्रीय भाषिक विशेषताओं, भाषाओं के बीच सीमा निर्धारण और भाषा भौगोलिक वितरण का विस्तार से ज्ञान मिल सकेगा। यह अध्ययन पूरी जागरूकता एवं अद्यतन दृष्टि से किया जाएगा, जिससे भाषा विज्ञान के क्षेत्र का विस्तार होगा तथा महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त हो सकेंगे। इससे पूर्व भी प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत वृहत् शोध परियोजना ‘‘चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय परिक्षेत्र के हिन्दी साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य में योगदान’’ विषय पर अप्रैल 2004 से मार्च 2007 तक कार्य कर चुके हैं। इस परियोजना में मेरठ परिक्षेत्र के विभिन्न जनपदों के ज्ञात-अज्ञात साहित्यकारों को तो प्रकाश में लाया ही गया है। साथ ही परिक्षेत्र से जुडे़ लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं - स्वांग, लावनी, लोकगीत, आल्हा, लोककथाओं पर भी कार्य किया है तथा क्षेत्रीय भाषा का शब्दकोश शोध के दौरान खोजकर प्रकाशित कराया है। लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘‘कौरवी लोक साहित्य’’ तथा ‘‘खड़ीबोली की साहित्यिक विधाएं एवं रचनाकार’’ (सन्दर्भ मेरठ मण्डल) प्रकाशित हो चुकी है।वर्तमान में भी प्रो0 लोहनी ‘‘सन् 1857 से 1947 तक के हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता में राष्ट्रीय चेतना’’ विषय पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत वृहत् शोध परियोजना पर अप्रैल 2008 से निरंतर कार्य कर रहे हैं।
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