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Thursday, January 13, 2011

हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर वेद प्रकाश वटुक

 


आज अमेरिका में भारत की तरह जातियाँ, धार्मिकताएँ पहचान बना रही है। प्रवासी भारतीयों में यह पहचान प्रतीक हाल के दिनों की उपज हैं क्योंकि अमेरिका में नई पुरानी तीन पीढ़ियों के अलग प्रतीक थे। आज की अधिकांश पीढ़ी का प्रतीक केवल पैसा रह गया है इसलिए भारत से दक्ष होकर अमेरिका की सेवा कर रहे हर व्यक्ति को अपनी आय का एक हिस्सा भारत पर खर्च करना चाहिए क्यांेकि यहां की जनता की आय उनकी शिक्षा एवमं व्यक्तित्व निर्माण में व्यय हुई है। यह विचार आज चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाभ में विश्व प्रसिद्व साहित्यकार एवमं समाजशास्त्री प्रो0 वेद प्रकाश बटुक ने व्यक्त किये            प्रो0 बटुक ने कहा कि प्रवास और अप्रवास दो शब्द है प्रवासी कोई शब्द नहीं है। हिन्दुस्तान की कभी ऐसी स्थिति नहीं रही कि एक, दो करोड़ लोग कही चले जायें तो देश पर कोई फर्क पडें। भारत में दुनियाँ भर के डाक्टर और इंजीनियर पैदा होते है और विदेश चले जाते हैं उन्हें अपनी आय का आधा हिस्सा देश को देना चाहिए। हमें आज भी विदेशों में कही गयी बात को सर्वोच्च समझने की आदत हैं अगर कोई भारतीय कहता है तो उसे तवज्जों नहीं देते हैं।
       दुनियाँ में सबसे ज्यादा प्रवासी इंग्लेंड के लोग है, उन्होंने ही एग्रीमेंट शब्द से गिरमिटिया शब्द बनाया। यह गिरमिटिया लोग कोनट्रैक्ट पर जाते थे किंतु वापस नहीं आ पाते थे। यह नये युग की नयी-दास प्रथा थी। 1916 में यह प्रथा खत्म की गयी, लेकिन वहाँ के निवासियों और उनके बीच तना-तनी हमेशा रही। आज विदेशों में गये लोग लोग वहाँ अपनी हिंदी को तो किसी तरह बचाये हुए हैं लेकिन स्थानीय भाषा को सीखना नहीं जाते हैं।
     काफी लम्बे समय से अमेरिका का वर्चस्व रहा है, वहाँ मुखोटे बदलते है पॉलिसी वही रहती है। चाहे वह ओबामा हो या कैनेडी हो या रूजवेल्ट हो अगर आप हीरो हो सही में माडल हो तो काम भी वैसे कीजिए। मेरा मानना है एक आदमी के बदलने से दुनियाँ नहीं बदलती है। दूसरा मलेशिया, श्रीलंका, अफ्रीका में भी लोग है अफ्रीका में परेशानी ब्लैक और ब्राउन की है, हमारे यहाँ से गये गुजराती भाई मेहनत और व्यापार करना जानते थे इसलिए काले लोग उनसे चिढते है, जैसे ही उनकी सरकार आती है वह उन्हें परेशान करते है। आज भी यह सोच है कि भारतीय अपनी लड़की की विदेशी लड़के से शादी करने से बचते हैं।
       वर्मा में भी यही हुआ सन् 1835 तक हम उसे अपना हिस्सा मानते थे। भारतीय जहाँ भी गए उन्होंने वहाँ की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया लेकिन वहाँ की संस्कृति को वह आत्मसात नहीं कर पाये। आज भी वहाँ भारतीयता के नाम पर भाषा, विवाह एवं संस्कृति की बाते होती है। अमेरिका की स्थिति हमसे अधिक शोचनीय  है। आजादी से पहले पंजाब के युवकों के पास दो ही रास्ते थे या तो वह विदेश चले जाये या सेना में शामिल हो जायें। कनाड़ा में जमीन ज्यादा आबादी कम है इसलिए पंजाब के सबसे ज्यादा निवासी कनाड़ा में थे। बाद में वहाँ के स्थानीय लोगों को एतराज होना शुरू हुआ, उन्ही दिनों अमेरिका के कई राज्यों में भी भारतीय बढ़े लेकिन उन्हें वहाँ का नागरिक बनने की सुविधा नहीं मिली इसलिए उन्हें कोई अधिकार भी नहीं मिला। यहाँ के लोग सस्ते दामों पर मजदूरी करते थे इसलिए वहाँ के मजदूरों और यहाँ के मजदूरों के बीच झगड़े शुरू हुए। बाद में धीरे-धीरे इन्ही भारतीय लोगों मंे से कुछ लोगों ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी। पढ़ने-लिखने गये लोगों में क्रांतिकारी भी थे, जिन्होंने भारतीय मजदूरो के साथ मिलकर आवाज उठाई इनमंे लाला हरदयाल, सावरकर आदि थे। उन्हें धीरे-धीरे अनुमान हुआ कि हमें बस उतनी ही छूट है कि हम काम करो लेकिन अधिकार न माँगे। उन्हे आभास हुआ कि अधिकार हमें तभी मिल सकते है जब हम अपने देश को स्वतन्त्र कराये।
      अमेरिका में गदर पार्टी बनी और उन्होने कहा कि गदर का ऐलान हम हिंदी भाषा में करेगे। गदर करेगे भारत में। आवश्यकता है आपकी गदन की इसलिए युगान्तर आश्रम बाद में गदर आश्रम और पार्टी गदर पार्टी के नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रथम विश्व युद्ध के समय साठ प्रतिशत भारतीय विदेशो से लौट कर आये। उन्होंने कहा की हमने विदेशो के लिए बहुत जानें दी है अब हम अपने देश के लिए जान देगें। विदेशो मे गयी पहली पीढ़ी पूरी की पूरी देश की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित हो गयी।
       इसके बाद इनके जो वंशज वहाँ रह गये उन पर भी मुकदमे चले, बाद में इस पीढ़ी ने अपना तन-मन-धन वहाँ अधिकार पाने में लगाया। वहाँ स्त्रियों को एवं अन्य देशों के निवासियों को डेढ़ सौ साल अधिकार पाने में लगे। सन् 1946 में भारतीयांे को नागरिकता के अधिकार मिले अमेरिका मंे दूसरी पीढ़ी इसी संघर्ष में खप गयी।  1950 के आस-पास कोटा सिस्टम शुरू हुआ। जिसमें हर साल 100 भारतीय माइग्रेट होकर आ सकते थे। सन 1966 में जानसन ने उदारवादी नीति अपनाई उसने कोटा सिस्टम समाप्त किया।
       तीसरी पीढ़ी में जो लोग अमेरिका आये वह पढ़े लिखे थे। इस पीढ़ी मे आज भी ग्लानि है कि जो सोच कर आये थे वह भारत के लिए नहीं कर पाये। 1974 के बाद जो चौथी पीढ़ी आई उसका उद्देश्य केवल पैसा कमाना और वहाँ बसना है। वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों को पूरा अंग्रेज बना कर रखना चाहती है। कहा जाता है बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता अगर अमेरिका स्वर्ग है तो मेरा मानना है अपनी आत्मा को मारकर ही वह स्वर्ग मिल सकता है। वहाँ आपको बढ़िया बिहारी, गुजराती, पंजाबी, मिलेगें लेकिन हिन्दुस्तानी नहीं मिलेंगे हमे अपने शहीदो को भी बाटने की कोशिश की है यहा तक कि भगतसिंह को खाली स्थान से जोडकर उग्रवादि बताया गया। अमेरिका में ब्राहमण सभा, जाट सभा, पंजाबी सभा है लेकिन हिन्दुस्तानी सभा केवल भारतीय स्टारों की नाइट्स में देखने को मिलती है अगर बाहर से पैसा नहीं आता तो निश्चित ही भारत मंे धार्मिक उग्रवाद नहीं पनपता जब सम्पन्ता आती है तो अलगाव भी आता है। उन्होंने कहा की भारत विरोधी आन्दोलन इसलिए भी यहाँ पनप जाते हैं कि उन्हें विदेशो से धन मिलता है।
कला संकायध्यक्ष प्रो0 आर0एस0 अग्रवाल ने इस अवसर पर कहा की भारतीय संस्कृति में निरन्तरता, उदारता है इसलिए हमने कभी भी किसी पर शासन करने की बात नहीं सोची, हम कभी कूपमण्ड्क, नही रहे सिन्धुघाटी के समय में भी विदेशों से हमारा सम्पर्क था और निरन्तर हमने अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता को बनाये रखा।
प्रो0 अर्चना शर्मा ने कहा हमने बटुक जी के माध्यम से एक हजार साल की विदेशों में भारत की विकास यात्रा का समझा। बटुक जी की पीडा आज के हर भारतीय की पीढ़ा है। इस अवसर पर प्रो0 एस के दत्ता,, अंजू, सीमा शर्मा, आरती, विवेक, राजेश कुमार, मोनू सिंह आदि भी उपस्थित थे।  
    

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