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Thursday, September 13, 2012

राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘विष्णु प्रभाकर व्यक्तित्व और विचारधारा’ : हिन्दी विभाग


चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के हिन्दी विभाग द्वारा हिन्दी दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘विष्णु प्रभाकर व्यक्तित्व और विचारधारा’ का आयोजन किया गया। 
संगोष्ठी से पूर्व माननीय कुलपति जी द्वारा हिन्दी विभाग में संचालित एवं उच्च शिक्षा विभाग द्वारा अनुदानित उत्कृष्ट अध्ययन केन्द्र एवं राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन द्वारा अनुदानित पाण्डुलिपि स्रोत केन्द्र का उद्घाटन किया गया। माननीय कुलपति जी द्वारा केन्द्र में अब तक प्राप्त मूल पाण्डुलिपियों तथा संपादित पाण्डुलिपियों को देखा गया तथा केन्द्र में किए जा रहे कार्यांे की सराहना की। 
राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्कार श्री पंकज बिष्ट द्वारा बीज वक्तव्य दिया गया। उन्होंने कहा कि एक लेखक का समाज के प्रति दायित्व होता है, दूसरी ओर वह आदर्श का काम करता है। ये सभी बातें विष्णु प्रभाकर में हैं। मैंने 25 वर्ष से ज्यादा विष्णु जी के साथ बिताए। हर शाम काॅफी हाउस में बैठते थे। ऐसा बड़ा लेखक होने पर भी मेरी उनसे समानता मित्रता की थी। ऐसा ही उदार व्यक्ति काॅफी हाउस में या सामान्य स्थान पर बैठ सकता है। श्री बिष्ट ने काॅफी हाउस में उनके साथ बिताए कई संस्मरणों को साझा किया। उन्होंने कहा कि मूलतः ये काॅफी हाउस प्रेम उनकी उदारता का प्रमाण था। जितने बेरोजगार आवारा लोग होते थे वे उन्हें भी काॅफी पिलाते थे। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लोगों की मदद करते थे। प्रभाकर जी में आप वे सारे गुण-अच्छाईयाँ देख सकते हैं, जो गांधी आन्दोलन के समय गाँधी जी के मूल्य थे। उनके लेखन में गांधी वादी धार्मिकता, अहिंसकता, उदारता आदि सभी कुछ देखने को मिलता है। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रभाकर जी हमेशा महिलाओं के पक्षधर रहे। वे अपने उपन्यासों में नारी वाद का समर्थन करते हैं। श्री बिष्ट ने कहा कि अपनी मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपने शरीर को दान कर दिया था। इसका सीधा अर्थ था कि वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, उनके परिवार में जाति वाद नहीं था। उन्होंने नई परम्पराओं, नए मूल्यों को समाज में स्थापित किया। हमेशा पंूजीवाद, साम्राज्यवाद का विरोध किया। आवारा मसीहा हिन्दी जगत की अब तक ऐसी पहली रचना है जो गैर हिन्दी भाषी लेखक की पहली जीवनी है। इसके लिए प्रभाकर जी ने कलकत्ता, भागलपुरद्व वर्मा तक जाकर सारे फैक्ट इकट्ठे किए और जीवनी लिखी। हिन्दी जगत में ऐसी जीवनी दूसरी नहीं मिलती है। अतः में उन्होंने प्रभाकर जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि वे हिन्दी के स्तम्भ हैं, उनसे हमें बहुत कुछ सीखना है। 
रूस के मूल निवासी एवं इजराइल में हिन्दी भाषा के अध्यापन के जुड़े प्रो0 गेनाडी स्लाम्पोर ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू की तो मेरा हिन्दी साहित्य से रिश्ता कम होता गया। जिन-जिन संस्थानों में मैंने काम किया वहाँ मेरा काम हिन्दी पढ़ाना था, न कि साहित्य पढ़ाना। वहाँ के पाठ्यक्रम में मैंने हिन्दी कहानी का उद्गम एवं विकास पढ़ाना शुरू किया। उसका अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि हिन्दी कहानी के विकास में जो भी आन्दोलन चले वे सातवें दशक तक चलते रहे। सातवें दशक में जो रचनाकार उभरे उन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य को दिशा दी। विष्णु प्रभाकर ने आवारा मसीहा में लिखा है कि शरत् का सािहत्य से परिचय आँसुओं से हुआ था। मैं नहीं समझता कि साहित्य का काम किसी को कष्ट पहुँचाना है। विष्णु प्रभाकर की मृत्यु तीन साल पहले हुई। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के लेखकोें कोई सीमा नहीं रखी जा सकती है। प्रभाकर जी चार पीढि़यों को जोड़ते हैं। उनकी कृति ‘धरती अब भी घूम रही है’ आज भी प्रासंगिक है। आज के भारत में हिन्दी भाषियों में विष्णु जी के प्रति उदासीनता है। वे ऐसे साहित्यकार हैं जो हिन्दी पट्टी में उत्तर से दक्षिण तक व्याप्त हैं। विष्णु जी कहते थे कि उनके अनेक घर हैं, अनेक परिवार हैं। मैं इजराइल में अपने विद्यार्थियों को विष्णु जी के साहित्य और व्यक्तित्व के बारे में बताऊंगा जिससे उनके घर भी विष्णु जी के घर हो जाएंगे। 
वरिष्ठ साहित्यकार से0रा0 यात्री ने अपने वक्तव्य में सबसे पहले प्रभाकर जी की उपज की स्थिति को व्यक्त करते हुए कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश साहित्य की दृष्टि से शुन्य समझा जाता था। सन् 1911-12 में दो बड़ी प्रतिभाएं शमशेर बहादुर सिंह और विष्णु प्रभाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की धरती पर जन्में। जिस तरह भगीरथ गंगा को धरती पर लाए उसी तरह विष्णु जी ने भी इस धरती पर भी साहित्य को रोपा। वे हिन्दी जगत के पहले ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने हिन्दी की सभी विधाओं में काम किया। जिस तरह मुंशी प्रेमचन्द को उपन्यास सम्राट कहा जाता है, उसी तरह वे संस्मरण सम्राट हैं। पत्रों का जखीरा विष्णु जी के अलावा कहीं नहीं मिलता। यात्री जी ने कहा कि मेरा उनसे साठ वर्ष पुराना संबंध है। अगर आज वे जीवित होते तो मैं उनसे कहता कि मैं भी अब वरिष्ठ हो गया हूँ। उन्होंने विष्णु जी की रचनात्मकता, जीवन दर्शन, लोगों से मिलने के अनेक संस्मरण सुनाए। यात्री जी ने बताया कि आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रभाकर जी को 14 वर्ष लगे। अपने समय से जुड़ने एवं जूझने की उनमें आंतरिक शक्ति थी। अन्त में उन्हांेंने कहा कि इस प्रदेश को बहुविधाओं का साहित्यकार मुजफ्फरनगर क्षेत्र ने दिया यह गर्व का विषय है अगर हम कुछ नहीं बन सकते तो आवारा मसीहा जरूर बने। आवारा मसीहा व्यक्ति की जिन्दगी बदल सकता है। 
विष्णु प्रभाकर जी के सुपुत्र श्री अतुल प्रभाकर ने कहा कि मैं इस क्षेत्र को अपना ही क्षेत्र मानता हूँ मेरे पूर्वज इसी क्षेत्र के थे। मेरठ से हमारे परिवार का गहरा रिश्ता था, मेरे पिता के जन्म की सौवीं सदी मनाकर चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय ने उस रिश्ते को साकार कर दिया है। विष्णु जी पूरे देश को अपना घर मानते थे। हिन्दी भाषा का उद्गम क्षेत्र मेरठ ही है और विष्णु जी को मेरठ से बचपन से ली लगाव था। पूरी उम्र वे हिन्दी की सेवा में लगे रहे। बचपन की पारिवारिक स्थितियों, सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने अपनी डायरियों में अंकित किया है। उनकी पहली कहानी 1931 में लाहौर की पत्रिका में छपी। अतुल जी ने कहा कि विष्णु जी के नाम को आगे बढ़ाने के लिए किसी पुत्र की आवश्यकता नहीं है। विष्णु जी ने अपने घरेलु जीवन में संयम नहीं गवायाँ, अपने ऊपर उन्हें पूर्ण नियंत्रण था। उन्हें क्रोध आता था पर प्रकट उतना ही होता था जितना आवश्यक है। उनमें एकाग्रता थी। चाहे कितना ही शोर मचता रहे, टांजिस्ट्रर चलता रहता था पर लेखन निरंतर चलता रहता था। भावुकता उनके साहित्य में है और वह हर पल, हर क्षण उनके साथ रहती है। स्त्री पक्ष उनके लेखन में है, किसी ने पूछा कि स्त्री की संवेदनाओं के बारे में आप कैसे जानते हैं तो उन्होंने कहा कि मेरी पत्नी भी तो एक स्त्री ही है। वे पुराने के साथ पुराने एवं नए के साथ नए रहते थे। वे किसी से बंधकर नहीं रहे, अपना रास्ता खुद चुना। उन्होंने पत्रों का उत्तर देना अंतिम समय तक नहीं छोड़ा। 
माननीय कुलपति जी ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि जब हम विद्यार्थी थे तो आवारा मसीहा रचना बहुत प्रचलित थी हमें कहा जाता था कि उसे जरूर पढ़े। उस समय आवारा मसीहा, राग दरबारी, मैला आंचल, आधा गाँव रचनाएं खूब प्रचलित रही। चाहे कोई हिन्दी पढ़ता तो या न पढ़ता हो पर उन्हें जरूर पढ़ते थे। कुलपति जी ने कहा कि मेरे अपने विचार जीवन के बारे में प्रभाकर जी से मिलते हैं। ‘मैं जूझूगा अकेला ही’ जैसी उनकी कविताएं जीवन में कठिन संघर्षों से जूझने की प्रेरणाएं देती हैं। ‘मैं चलता चलता चला आ रहा हूँ यह हकीकत के नजदीक है, जिन्दगी में क्या अनश्वर है, ये उनके लिए सही श्रद्वांजलि होगी, मृत्यु से जीवन तक और जीवन से मृत्यु तक। माननीय कुलपति जी ने प्रभाकर जी ने श्रद्धांजलि दी और कहा कि जो प्रभाकर जी ने हमें शिक्षा दी है हम उसका पालन करें। उनकी शिक्षाओं पर चलें।
उद्घाटन सत्र के समापन पर प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सब वक्ताओं को प्रतीक चिह्न देकर सम्मानित किया। 
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में प्रो0 जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि किसी साहित्यकार का जीवन उसके साहित्य से जुड़ा होता है। ‘ऐकला चलो रे’ मुहावरा केवल साहित्यकार पर ही तो नहीं थोपा हुआ। इसे प्रभाकर जी के संबंध में देखें तो उनका कहना था कि कोई साथ आए या न आए - समाज के लिए चलो, राष्ट्र के लिए चलो। प्रभाकर जी आन्दोलनों से कभी नहीं जुड़े। वे ऐसे रचनकार थे जो किसी आलोचक से प्रभावित हुए। उन्होंने वही किया जो उनकी भीतरी विचारधारा कहती थी। रचनकार अपने ही कारणों से बड़ा होता है - आलोचना से बड़ा नहीं होता। प्रभाकर जी ने कहा भी है कि मैं सीध साधा आदमी हूँ और वैसा ही लिखता भी हूँ। जब हम उनकी कहानी-उपन्यास किसी भी विधा पर बात करें तो यह बात ध्यान रखनी चाहिए। जनता से जुड़ने, सादगी आदि बातों में वे प्रेमचन्द की परम्परा के लेखक थे। सादगी-सरलता का अपना सौन्दर्य शास्त्र है। 
लखनऊ से आए डाॅ0 सुरेन्द्र विक्रम ने बताया कि मेरी उनसे मुलाकात 12 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय बाल भारती के एक कार्यक्रम में हुई थी। प्रभाकर जी बाल साहित्य के लेखकीय चिंतक थे। विष्णु जी के चार एंकाकी कक्षा चार, पाँच, छः, सात के लिए चयनित किए गए तो उन्होंने मुझे सहज स्वीकृति प्रदान की। विष्णु जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही सहज। बचपन जीवन का ऐसा आईना होता है जो आगे की दिशा निर्धारित करता है। प्रभाकर जी ने जिस लगन से बाल साहित्य लिखा, तन्मयता से लिखा, वह बेजोड़ है। उनका मानना था कि बच्चों को रोचता की जरूरत है। उनकी महत्वपूर्ण बाल एंकाकी और बाल कहानियाँ है। ‘जादू की गाय’ संग्रह में उनकी बाल एंकांकियाँ संकलित हैं। उनका बाल नाटक जो कक्षा चार, पाँच के पाठ्यक्रम में लिया गया वह बच्चों की चतुराई से जुड़ा हुआ है। बच्चों के सूक्ष्म मनोविज्ञान को उन्होंने सहजता, सरलता से अंकित किया है। 
दिल्ली दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रोड्यूसर डाॅ0 अमर नाथ अमर ने कहा कि विष्णु जी ने सबसे पहले आकाशवाणी पर रूपकों की शुरूआत की। आकाशवाणी में सबसे पहले एक प्रोड्यूसर के रूप में अपनी स्वीकृति दी ये उनका बड़ा काम है। विष्णु जी के साथ दो और बड़े नाम के0के0 नय्यर और रामेश्वर सिंह कश्यप हैं। जिन्होंने आकाशवाणी, दूरदर्शन में प्रभाकर जी की परम्परा को आगे बढ़ाया और ये श्रंखला आज भी जारी है। प्रभाकर जी की जीजिविषा, सामाजिक सरोकारों की चर्चा व्यापक है। जिसकी पूरी चर्चा नहीं की जा सकती। उनकी कृति ‘धरती अब भी घूम रही है’ पर दूरदर्शन ने टेलीफिल्म बनाई थी और उसे देखकर प्रभाकर जी ने कहा था कि इस कहानी पर टेलीफिल्म बनाकर दूरदर्शन ने न्याय किया है।     
अक्षरम् संस्था के अध्यक्ष अनिल जोशी ने अपने वक्तव्य में कहा कि विष्णु प्रभाकर चेयर की स्थापना चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में की जाए। उनके व्यक्तित्व में सहजता की साधना थी। काॅफी हाउस में वे अपनी आत्मीयता से सबको सहज ही बना लेते थे। वे व्यक्ति नहीं संस्थान थे, जिन्होंने व्यक्तिगत संबंधों को जोड़कर वह सब कुछ दिया, जो रचनाकारों को दिया जा सकता है। पुरस्कार के लिए उन्होनें लेखन नहीं किया और अपमान जनक तरीके से कभी पुरस्कार नहीं लिया।  
विष्णु प्रभाकर जी की पुत्री सुश्री अनिता नवीन ने अपने पिता के संस्मरणों को साझा किया और कहा कि मुझे विष्णु जी की प्रथम पुत्री होने का सौभाग्य प्राप्त है। 
वरिष्ठ साहित्यकार श्री बलदेव वंशी ने कहा कि प्रभाकर जी का लेखन भावुकता पूर्ण नहीं भावना पूर्ण है। हमें भावुकता और भावना में अन्तर करना होगा। लेखक का सामाजीकृत होना उसका अनिवार्य अंग है। विष्णु जी ऐसे ही थे। विष्णु जी ने इस धरती की सांस्कृतिक मिट्टी में अपने को घेर लिया। 
सत्र के समापन में प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी को स्मृति चिह्न प्रदान किए और आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर प्रो0 लोहनी ने कहा कि प्रभाकर जी के लेखन का जो मूल्यांकन हुआ है, उनके व्यक्तित्व को लेकर जो बातें आज यहाँ हुई ये सब बातें हमारे अध्ययन अध्यापन से जुड़ी हैं। 
इस अवसर पर प्रभाकर जी पर आधारित वृतचित्र दिखाया गया तथा इसके बाद संकल्प जोशी द्वारा प्रभाकर जी की कहानी ‘धरती अब भी घूम रही है’ कहानी का वाचन किया गया। 
इसके पश्चात संगोष्ठी के तृतीय सत्र में डाॅ0 सूरजपाल शर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रभाकर जी का जीवन आर्थिक संकटों से गुजरा उनके चाचा ने पहनने के लिए टाट दी और वही उनके जीवन की वेशभूषा हो गया। साहित्यकार युग दृष्टा होता है। धरती अब भी घूम रही है - इस कहानी से पता चलता है कि जो स्थितियाँ कहानी लिखते समय थी आज उससे बढ़कर हमारे जीवन में हैं। प्रभाकर जी ने यथार्थ को कागज पर उकेरा है। 
निशा निशांत ने कहा कि मैं प्रभाकर जी से तब जुड़ी जब बीए की छात्रा थी और लगभग 11 वर्षों तक उनके साथ काम किया। उनकी रचनाओं और पात्रों से मैं रूबरू हुई हूँ। उन्होंने मुझे निशा से निशांत बना दिया।
वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ0 वेद प्रकाश वटुक ने अपने वक्तव्य में कहा कि सन् 1954 में भी धरती घूम रही थी और अब भी धरती और ज्यादा धूम रही है। कुण्डेंवालान मुझे बार-बार याद आता है। उनका झोला, उनका गांधीवादी वेशधारण साक्षात उन्हें गांधीवादी सिद्व करता है।
इस अवसर डाॅ0 ईश्वर चन्द गंभीर, मुकेश नादान, डाॅ0 कृष्ण स्वरूप, डाॅ0 आर0 के0 सोनी, डाॅ0 ए0के0 चैबे, डाॅ0 आराधना, ललित कुमार सारस्वत, अंजू0 डाॅ0 सीमा शर्मा, अलूपी राणा, आरती राणा, मोनू सिंह, विनय कुमार मीलिन्द, आयुषी, पूजा, सोनू नागर, संध्या पोसवाल, दीपा, कविता, वसीम, विकास तोमर, बह्म सिंह, लता, पूजा, कुसुम कुमारी, निवेदिता, ममता, अमित, अजय कुमार, संजय, राजेश, विवेक आदि उपस्थित रहे।





















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