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Monday, March 31, 2014

हिन्दी विभाग में दो दिवसीय (29-30 मार्च) राष्ट्रीय संगोष्ठी (पहला दिन) : कल्पना अपने आप में जीवन शक्ति है वह एक रचनात्मक तत्व है- लीलाधर जगूड़ी

हिन्दी विभाग में दो दिवसीय (29-30 मार्च) राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में विभागीय पत्रिका ‘मंथन’ का विमोचन किया गया। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता माननीय कुलपति जी ने की। इस सत्र में मुख्य अतिथि श्री विभूति नारायण राय, वरिष्ठ कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी, प्रो0 जितेन्द्र श्रीवास्तव आदि ने अपने वक्तव्यों द्वारा समकालीन कविता के स्वरूप, चुनौतियों गुण-दोष आदि पर व्यापक चर्चा की।
वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी जी ने समकालीन कविता पर चर्चा करते हुए बताया कि कल्पना अपने आप में जीवन शक्ति है वह एक रचनात्मक तत्व है। उन्होंने बताया कि कविता का जन्म कथा कहने के लिए हुआ है परन्तु आज कविता अपनी वाचिक परम्परा से दूर हो रही है। इस विषय पर उन्होंने वाल्मीकि व तुलसीदास आदि के साहित्य की विषेषताआंे पर प्रकाष डाला।
      उन्होंने आग्र कहा कि कवियों ने सदैव कैद का विरोध किया और कविता को बाहर लाए। उन्होंने चर्चा को विस्तार देते हुए आगे कहा कि कविता की भाषा मीडिया की भाषा से मुक्त होनी चाहिए तथा कविता के लिए नए गद्य का जन्म बहुत आवष्यक है। उन्होंने छन्दों के स्वरूप पर भी प्रकाष डाला।
      लीलाधर जगूड़ी ने आगे कहा कि हिन्दी के आलोचकों ने कविता की कथा की व्याख्या नहीं की है जो होनी चाहिए। नए आलोचकों को साहित्य कि कविता की कथा की व्यथा को अभिव्यक्त करें। उन्होंने आगे कहा कि युवाओं की परिभाषा भी बदलनी चाहिए। लोकप्रियता बुरी वस्तु नहीं परन्तु अन्तिम वस्तु भी नहीं। उन्होंने कहा कि समाज अभी बदला नहीं तभी तो कबीर, तुलसी आदि आज भी प्रासंगिक हैं।
मुख्य अतिथि विभूति नारायण राय ने कहा कि कविताओं से निजता गायब हो गई है। सबसे कवियों के बादल, स्त्रियाँ, चिडि़या व बच्चे आदि एक जैसे हैं। लगभग तय है कि कैसे कविता षुरू होगी व विस्तार तक पहुँचेगी। उन्होंने कहा कि गद्य व पद्य की भाषा किसी न किसी बिन्दु आवष्यक है। पद्य का तत्व ही उसे गद्य से अलग करता है। कविता के कम होते पाठक तथा भाषा का प्रष्न युवा कवि के लिए बड़ी चुनौती है। कवि की भय रहित होकर चुनौती का रूप में अपनी कविता को लिखना और श्रोता के सम्मुख पढ़ना चाहिए। कविता एक ऐसे विधा है जो वाचिक परम्परा को निभा रही है।

प्रो0 जितेन्द्र श्रीवास्तव ने अपने बीच भाषण मंे बताया कि कोई भी विधा अपने कारणों से प्रभावित होती है। समकालीन कविता के समक्ष जो चुनौतियाँ मौजूद हैं वो बाहरी नहीं अपितु सामाजिक चुनौतियाँ ही अपने साहित्यिक स्वरूप में प्रकट हुई हैं। उन्होंने बताया कि समकालीन कविता की सबसे बड़ी चुनौती पूँजीवाद है। जिसने प्रमुख काव्य शक्ति कल्पना को गहरा आधात पहुँचाया उन्होंने कहा कि कविता की लोकप्रियता का का स्तर गिरा है। साथ ही कवियों के सम्मुख बड़ी चुनौती प्रयोगधर्मिता की भी है। आज कवि नवीन प्रयोग करने से झिझकता है। उन्होंने कहा कि कविता में विमर्ष भी आना साहित्य तथा संष्लिष्टता भी बनी रहे परन्तु कविता की माँग कम न हो। कविता मंे नवीनता, प्रयोगधर्मिता का होना बहुत आवष्यक है लेकिन उसका कवित्त तत्व भी बने रहना चाहिए। उन्होंने कविता के लिए यथार्थ को आवष्यक माना। उन्होंने आगे कहा कि काव्य में कवि का अपना अनुभव हो आजकल जो दूसरों की सुनी सुनाई बातांे पर काव्य लिखा जा रहा है वह समकालीन काव्य के समक्ष एक बड़ी चुनौती है।

      उन्होंने कहा कि कविता के वैष्विक होने के लिए उसका स्थानीय होना अत्यंत आवष्यक है। आज काव्य में लोक ग्रामीण जीवन अनुपस्थित होता जा रहा है। वंचित समाज में पैठ बनाना आज महत्वपूर्ण है। समकालीन कविता अधिक सम्प्रेषणीय नहीं है जो कविता के समक्ष एक चुनौती प्रस्तुत करती है। उन्होंने कहा कि आज कवियों के सम्मुख प्रकाषन की भी चुनौति है। काव्य व गद्य के मध्य एक विभाजन रेखा का होना आवष्यक है। कवि को प्रयोग के नाम पर अर्थहीन विस्तार से बचना चाहिए। उन्होंने बताया कि छन्द का प्रष्न में समकालीन कविता में बड़ा प्रष्न है। साथ ही समकालीन कवियों का आपसी वैमनस्य की भावना भी कविता के लिए एक मुख्य समस्या है। इसको साथ ही उन्होंने रूचियों की कट्टरता, कविता को खेल समझने की प्रवृत्ति, लेखक संगठनों की भूमिका व भाषिक गिरावट आदि महत्वपूर्ण चुनौतियों पर प्रकाष डाला। उन्होंने कहा कि आज हमें एक मुकम्मल आलोचक की आवष्यकता है जो सृजकात्मक प्रतिभा से रहित न हो।
      उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए मा0 कलपति जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि यदि कोई चीज समय के साथ नहीं बदलती तो बहुत आगे तक नहीं जा पाती। किसी भी नई चीज को करने के लिए उसके मूलभूत मानदण्डों को जानना आवष्यक है यदि बात छंद के सन्दर्भ में भी सटीक बैठती है। छंद के साथ वही छेड़छाड़ कर सकता है जो छंदांे के विषय में भली-भांति परिचित हो। स्वागत भाषण हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी जी ने किया। उन्होंने संगोष्ठी के विषय पर चर्चा करते हुए सभी वक्ताओं और अतिथियों का स्वागत किया। चन्द्रबदनी उत्तराखण्ड  प्रवक्ता व विभाग के भूतपूर्ण छात्र डाॅ0 गजेन्द्र सिंह ने सभी वक्ताओं और अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित किया। उद्घाटन सत्र का संचालन षोधार्थी मोनू सिंह ने किया।
      संगोष्ठी के दूसरे सत्र की अध्यक्षता पद्श्री लीलाधर जगूड़ी जी ने की। इस सत्र के वक्ता डाॅ0 विषाल श्रीवास्तव जी ने स्वर विविधता और समकालीन कविता विषय पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि पूरानी चीजें निजता के नाम पर कटती जा रही हैं। हिन्दी की युवा कविता में भाषा की विविधता अपने-अपने अनुभव तथा अलग-अलग रूप में प्रयुक्त होती है।
      उन्होंने कहा कि आज हिन्दी कविता मंे कोई आन्दोलन नहीं चल रहा है बिना आन्दोलन कविता में विविध स्वरों की अपेक्षा उचित नहीं कवियों को अपनी प्रकृति के अनुरूप छंद को स्वीकारना होगा। पिछले कुछ समय से कविता की भाषा, विचार, समाज एवं पाठक बदले हैं। कविता ऐसी होनी चाहिए जो पाठक के चिन्तन करने के लिए विवष कर सके उन्होंने आगे कहा कि हिन्दी कविता पर सपाट बयानी और कटिबद्धता का आरोप लगता रहा है। उन्होंने कहा कि कविता में प्रयोग होते रहते हैं। कुछ असफल हो जाते हैं लेकिन कुछ प्रयोग याद रह जाते हैं। पहचान का संकट युवा कविता की चुनौती है।
लखनऊ से आए डाॅ0 नलिन रंजन सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि मैं कविता का पक्ष लेता हूँ। कविता न कभी खत्म हुई हैं न होगी। कविता या कहानी जो लोकप्रिय होगी वहीं चलेगी। छंद के अस्तित्व की चर्चा करते हुए मुक्तिबोध, नागार्जुन और षमषेर की कविता की बात की। उन्होंने कहा कि स्वर विविधता की पहचान से पहले स्वर हीनता को पहचान लिया जाए। कविता चलती रहती है, रूकती नहीं। उन्होंने काव्य के लिए प्रेम, संवेदना, लोकतत्व, प्रकृति बौध व ग्रामीण प्रष्ठभूमि को महत्वपूर्ण माना है। आज स्त्री कविता में स्त्री, दलित व किसन आदि सन्दर्भों के कारण स्वर विविधता को महत्वपूर्ण माना। उनहोंने अपने षब्दों को विराम देते हुए कहा कि जो रचेगा वो बचेगा।
काषी विद्यापीठ से आए डाॅ0 रमेष गौतम ने अपने वक्तव्य में दलित साहित्य पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि दलित साहित्यकार बुद्ध से ऊर्जा पाकर आगे बढ़ते है। स्वामी अछूतानंद ने तीन काव्यान्दोलन चलाए। उन्होंने कई दलित कवियों के माध्यम से उनके साथ हो रहे अन्याय को भी व्यक्त किया तथा कहा कि आलोचना के परम्परागत मापदण्ड दलित आन्दोलन पर काम नहीं करते हैं।
इस अवसर पर डाॅ0 महेष आलोक ने कविता के एकरसता व एकरूपता की बात की तथा कहा कि कविता में भाव बोध, षोक्षण और संवदेना के पहलू बदले हैं। आम आदमी और लोक जीवन की इस दौर में काफी फजीहत हुई है। रचनात्मकता और सृजनात्मकता का प्रयोग नहीं हो रहा है।
इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने समसामयिक्ता और समकालीनता पर अन्तर करने की आवष्यकता पर भी बल दिया। इस सत्र का संचालन डाॅ0 अंजू ने किया। कार्यक्रम में प्रो0 वेदप्रकाष वटुक, डाॅ0 पी0के षर्मा, डाॅ0 आर0के0 सोनी, डाॅ0 एच0एस0 सिंह, ज्वाला प्रसाद कौषिक, डाॅ0 किषन स्वरूप, डाॅ0 सीमा षर्मा, सुमित कुमार, अलूपी राणा, आरती राणा, ज्योति, सहित विभाग के षिक्षकों  तथा महाविद्यालयों के  हिन्दी के षिक्षकों  ने भाग लिया ।

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