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Wednesday, May 13, 2015

डाॅ॰ जयप्रकाष कर्दम ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यषास्त्र’ एवं ‘दलित साहित्य की वैचारिकी एवं सर्जन’ विषय पर व्याख्यान

हिन्दी विभाग, चैधरी चरण सिंह विष्वविद्यालय, मेरठ में संचालित विषेष अतिथि व्याख्यान कार्यक्रम के अन्तर्गत दिनांक 10-11 अप्रैल 2015 को डाॅ॰ जयप्रकाष कर्दम, वरिष्ठ साहित्यकार, दिल्ली ने ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यषास्त्र’ एवं ‘दलित साहित्य की वैचारिकी एवं सर्जन’ विषय पर व्याख्यान दिये। देते हुए 




                उन्होंने बताया कि हिन्दी साहित्य में दलित उपेक्षित रहा है। दलित साहित्य की वैचारिकी उन सभी षाष्वत मूल्यांे (वर्णव्यवस्था, जातिवाद, इत्यादि) का नाकार करती है, जो षोषण के कारण रहे हैं। वह कोई भी साहित्यकार दलित साहित्य का अर्जन कर सकता है, जो भी इन मूल्यों, षोषण का विरोध करता है। दलित लेखकों ने अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया है। कोरी स्वानुभूति मात्र छलना है। जो भोगता है, सहता है, उसे अन्य नहीं जान सकता। दलित साहित्य की रचनाओं में उनके संघर्ष, जिजीविषा और प्रतिकार मिलता है। गांव दलितों के षोषण के कारखाने हैं, दलित साहित्य की एक अपनी प्रासंगिकता है। समाज को हम प्रगतिषील मूल्यों के साथ ही प्रगतिषील बना सकते हैं। दलित साहित्य मानवीय मूल्यों को स्थापित करने का कार्य कर रहा है। वह लोकतंत्र को मजबूत करने, स्त्री व मनुष्य के अधिकारों की बात तथा वंचित जाति को भी स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। मानव अधिकारों की बात दलित साहित्य ने की है। दलित साहित्य कहीं भी हिंसा का समर्थन नहीं करता है, वह जातीयता से ऊपर उठकर एक जातिहीन, वर्गहीन समाज की बात करता है। अच्छा साहित्य, अच्छी आलोचना को प्रेरित करता है और अच्छी आलोचना, अच्छे साहित्य के सर्जन में सहायक है। दलित साहित्य असहमति का सम्मान करता है। वह व्यक्ति को आस्थावान नहीं बनाना चाहता, आस्था विचार की हत्या करती है। हमें यर्थाथवादी होना चाहिए, वर्तमान कालिक समस्याएं अलग है, अब जातिगत भेद-भाव छूआछूत और अस्पृष्यता के रूप बदल गए हैं। रचनाए पढ़ी जानी चाहिए, वे जलाने के लिए नहीं होती है। मानव कल्याण और मानव समभाव का भाव ही दलित साहित्य देता है और मानवता विरोधी तत्वों का खण्डन करता है। चेतना का विकास षिक्षा के माध्यम से होता है।
                उन्होंने आगे बताया कि बने बनाये मूल्यों के आधार पर रचनाओं का मूल्यांकन नहीं होता है। अतः हिन्दी में सौन्दर्यषास्त्र नहीं सौन्दर्य बोध होना चाहिए। सम्भ्रांत समाज के लिए सौन्दर्यषास्त्र के प्रतिमान अलग हैं जबकि वंचित समाज में सौन्दर्यषास्त्र के प्रतिमान श्रम पर आधारित हैं। दलित साहित्य भूखें, नंगे व निरीह लोगों का साहित्य है। दलित सौन्दर्य बोध में सबसे बड़ी चीज है प्रष्नात्मकता, यह लोगों को अपनी स्थिति के बारे में सोचने के लिए प्रष्न करता है। अब दलित साहित्य में ब्राह्मणवाद या सामंतवाद का प्रयोग नहीं होता है। अब नई षब्दावली विकसित हो रही है। स्त्री अस्मिता की बात सबसे पहले दलित साहित्य ने ही उठाई है। आज राजतंत्र टूटकर, लोकतंत्र की स्थापना हो रही है। दलित साहित्य आषावादी बनाता है, अंधविष्वासी नहीं। समय, आत्मविष्वास व विचार हमारे सफलता के मूल तत्व है।
कार्यक्रम के प्रथम दिन अलूपी राणा ने डाॅ॰ जयप्रकाष कर्दम को पुष्प गुच्छ भेंट कर उनका स्वागत किया। कार्यक्रम के समापन पर प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी, विभागाध्यक्ष हिन्दी ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। इस कार्यक्रम में डाॅ॰ विद्या सागर, डाॅ॰ प्रवीण कटारिया, डाॅ॰ अन्जू, डाॅ॰ विवेक सिंह आरती राणा, अलूपी राणा तथा विभाग के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।



नोट- श और ष संबन्धी त्रुटि  लिए  खेद है।  

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