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Wednesday, May 13, 2015

डाॅ॰ सत्यकेतु सांकृत हिन्दी विभाग,चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में व्याख्यान देते हुए

हिन्दी विभाग,चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में संचालित विषेष अतिथि व्याख्यान कार्यक्रम के अन्तर्गत दिनांक 15-16 अप्रैल 2015 को डाॅ॰ सत्यकेतु सांकृत, ऐसोषिएट प्रोफेसर डाॅ॰ अम्बेडकर विष्वविद्यालय, दिल्ली ने डाॅ॰ सत्यकेतु सांकृत दिये।
डाॅ॰ सत्यकेतु ने बताया कि विष्वविद्यालय विष्व में अपने देष का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय शोध इस दृष्टि से स्तरीय नहीं है। यही कारण है कि भारत का कोई भी विष्वविद्यालय विष्व के प्रथम वरियता के 100 विष्वविद्यालयों में भी अपना स्थान नहीं बना पाया है। प्राचीन काल में नालंदा विष्वविद्यालय और तक्षषिला विष्वविद्यालय विष्व के प्रथम श्रेणी के विष्वविद्यालय थे। लेखक भविष्य द्रष्टा होता है, क्योंकि वह कल्पना कर सकता है। जब तक कल्पना नहीं कर सकते तब तक षोध भी नहीं हो सकता है और कल्पना अपनी ही भाषा में हो सकती है। इन्टरलोगिंग की भाषा काव्य में होती है। गद्य की भाषा को सृजनात्मक बनाना पड़ता है। भाषा को सृजनात्मक बनाने के क्रम में उसमें प्रदर्षन नहीं होना चाहिए। भाषा जब सृजनात्मक होती है, तो कविता के निकट पहुँच जाती है। आलोचना की भाषा काव्यमय होनी चाहिए।

षोध की भाषा में षुष्कता नहीं होनी चाहिए। अपनी भाषा को सामर्थवान बनाने के लिए दूसरी भाषा के षब्दों को भी ग्रहण कर लेना चाहिए। गूढ़ चीजों को व्याख्यायित करना षोध है। षोध, आलोचना और समीक्षा अलग-अलग हैं। आलोचना निंदा का पर्याय नहीं है। अनुवाद षब्द का नहीं भाव का होना चाहिए। जो भाषा लोक से नहीं जुड़ पाती वह खत्म हो जाती है। आलोचना में सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनांे प़क्ष षामिल होते हैं। समीक्षा का सीधा संबंध पुस्तक से होता है। आलोचना से संबंधित पुस्तकों की भी समीक्षा हो सकती है। समीक्षा का व्यापक रूप आलोचना है।

शोध में मूल सामग्री के साथ-साथ षोध पत्रिकाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान रहता है। षोध में अन्तरविद्यावर्ती संदर्भों को भी षामिल करना चाहिए। इससे शोध में प्रामाणिकता आती है। षोध मौलिकता के निकट होना चाहिए। संदर्भों को ईमानदारी से षामिल करना चाहिए। संदर्भ सूची में पुस्तक संस्करण भी षामिल करना चाहिए। संदर्भ सूची प्रत्यके अध्याय के बाद अवष्य देनी चाहिए। संदर्भ ग्रंथ सूची में उन पुस्तकों को भी रखा जा सकता है जिन्हें षोध प्रबंध में षामिल नहीं किया गया है, लेकिन उनसे सहायता ले गई है। षोध स्वयं को प्रमाणित करने का ही क्रम है। षोध एक चिंतन से कई चिंतनों के निकलने की राह है। षोध में उत्सुकता और रोचकता बनी रहनी चाहिए। षोध सैदव नई राहें दिखाता है। षोध में संदर्भ तीस प्रतिषत तक ही रखे जाने चाहिए। विषय चयन में रूचि का भी ध्यान रखना आवष्यक है।


पाठालोचन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि मूल पाठ से प्रतिलिपि करने पर लगभग तीन प्रतिषत तक अषुद्धि रहने की संभावना रहती है। इस प्रकार जब प्रतिलिपियों से प्रतिलिपियाँ तैयार की जाती है तो अषुद्धियों के बढ़ते रहने की संभावना बनी रहती है। वरिष्ठ आलोचक नलिन विलोचन षर्मा ने इसे तात्विक षोध की संज्ञा दी है। यह षोध रिसर्च से पहले का काम है। प्रतिलिपि मूल प्रति से मूलतः अलग नहीं होती है। पाठालोचन के दो स्तर हैं। पहले स्तर पर त्रुटियों का पता लगाया जाता है। दूसरे स्तर पर समानता के आधार पर मूल पाठ का निर्धारण किया जाता है। षोध प्रमाण पर आधारित होता है, इसलिए पाठालोचन षोध प्रविधि का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
कार्यक्रम के प्रथम दिन आरती राणा ने डाॅ॰ सत्यकेतु सांकृत को पुष्प गुच्छ भेंट कर उनका स्वागत किया। कार्यक्रम के समापन पर प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी, विभागाध्यक्ष हिन्दी ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। इस कार्यक्रम में डाॅ॰ विद्या सागर, डाॅ॰ प्रवीण कटारिया, डाॅ॰ अन्जू, डाॅ॰ विवेक सिंह आरती राणा, अलूपी राणा तथा विभाग के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

नोट- श और ष संबन्धी त्रुटि  लिए  खेद है।  


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