जरुरी सूचना

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Monday, February 1, 2010

संगोष्ठी सम्बन्धी सूचना

सम्मानीय महोदय,


विश्व भाषा हिन्दी आज अपने नए परिप्रेक्ष्यों में उभरकर सामने आ रही है।यह सोचा जा रहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा हिंदी ही होनी चाहिए।वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी तथा हिंदी वालों की भूमिका पर भी लगातार विचार हो रहा है।भाषा एवं साहित्य के नए रूपों में इधर गैर हिन्दी भाषी राज्यों के निवासियों तथा भारत के प्रवासियों द्वारा हिन्दी में लेखन तथा हिन्दी में विदेशों में हो रहे लेखन से भी हिन्दी के अध्येता, शोधार्थी अवगत होना आवश्यक है क्योंकि जिसे अब हम हिन्दी कह रहे है वह न उत्तर भारत की हिन्दी है और न केवल भारत वालो की। पूरी दुनिया में हिन्दी का विकास अलग-अलग तरह से हो रहा है, साथ ही सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के साथ हिन्दी के विकास के नए दरवाजे खुले हैं। हिन्दी में विधाओं के विकास तथा अन्य भाषाओं तथा अनुशासनों में लिखे गए साहित्य के हिन्दी में हो रहेअनुवाद तथा उसकी आवश्यकता पर गौर करना जरूरी है तभी हिन्दी अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझी जा सकती है।हिन्दी भाषा तथा साहित्य से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार करने के लिए हिंदी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ दिनांक 12 से 14 फरवरी 2010 तक (तीन दिवसीय) अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी ‘‘ भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी ’’ आयोजित कर रहा है।
संगोष्ठी में संभावित सत्र इस प्रकार हैं:- कार्यक्रम:-
प्रथम दिन :
उद्घाटन सत्र - ११:00 बजे प्रातः
द्वितीय सत्र - ‘अहिन्दी भाषी क्षेत्र और हिन्दी’ - २:00 बजे से ०५:00 बजे
सांस्कृतिक कार्यक्रम - ०६:00 बजे
द्वितीय दिन :
तृतीय सत्र - ‘वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी’ - ०९:30 बजे से १२:00 बजे
चतुर्थ सत्र - ‘सूचना प्रौद्योगिकी और हिन्दी’ - ११:45 से ०२:00 बजे

पंचम सत्र - ‘अनुवाद और हिन्दी साहित्य’ - ०२:30 से ०४:15 बजे
मेरठ में स्थानीय भ्रमण - सायं ४:30 बजे
कवि गोष्ठी - सायं ६:00 बजे
तृतीय दिन :
षष्ठ सत्र - ‘हिन्दी साहित्य में विधाओं का विकास’ - ०९:30 बजे से ११:30 बजे
समापन - १२:00 बजे से ०२:00बजे


इस हेतु आपकी प्रतिभागिता पूर्व में स्वीकृति के उपरांत ही होगी। अतः आप अपनी प्रतिभागिता हेतु सूचनाप्रेषित करने के अंतिम तिथि दिनांक 5 फ़रवरी 2010 तक सुनिश्चित करने का कष्ट करें। प्रतिभागिता शुल्क वित्त नियंत्रक, चौधरीचरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के नाम ड्राफ्ट द्वारा अथवा सीधे इलाहाबाद बैंक की मेरठ शाखा M/s bhomandlikaran ke daur mein A/C CCSU, CCS university meerut Account Numbar- 5002507178 -7 में भी प्रेषित कर सकते हैं ।


शिक्षक प्रतिभागियों हेतु 700/- रूपये
शोधार्थियों हेतु 400/-
विद्यार्थियों हेतु 250/-


कृपया पंजीकरण शुल्क /बैंक रशीद फोटोकॉपी /बैंक ड्राफ्ट संलग्न प्रपत्र के साथ प्रेषित करने का कष्ट करें जिससे की आपकी प्रतिभागिता का पंजीकरण हो सके।


इस संगोष्ठी में अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हिन्दी साहित्यकार, लेखक, विषय विशेषज्ञ एवं मीडिया से जुड़े लोग वक्ता के रूप में सम्मिलित होंगे।संगोष्ठी के माध्यम से अनेक प्राध्यापक, साहित्य प्रेमी पाठक, विद्यार्थीएवं शोधार्थी साहित्य एवं भाषा सम्बन्धी कई ज्वलन्त मुद्दों से परिचित होंगे । संगोष्ठी में आप सादर आमंत्रित हैं । आपके सहयोग के लिए आभार सहित......




भवदीय
(प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी)
संयोजक संगोष्ठी/अध्यक्ष
हिन्दी विभाग चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ।


पंजीकरण फार्म का प्रारूप -


प्रतिभागिता हेतु संपर्क करें-

प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी

विभागाध्यक्ष हिन्दी चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।

nclohani@gmail.com, nclohani@yahoo.com Phone & fax-01212772455, +919412207200

फोन नंबर एवं वेब पते -

(विवेक सिंह) , +919027561713vivek.views@gmail.com , nclhindiduniya@gmail.com,http://manthanvicharpatrika.blogspot.com/

Monday, January 25, 2010

प्रतिभागिता सम्बन्धी

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में आयोजित तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी "भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी " में अपनी प्रतिभागिता की सूचना प्रेषित करने की अंतिम तिथि बढाकर 5 फ़रवरी 2010 कर दी गयी है अतः निर्धारित तिथि से पहले अपनी प्रतिभागिता अवश्य सुनिश्चित करने का कष्ट करें। प्रतिभागिता की तिथि पुनः नहीं बढ़ाई जायगी !

धन्यवाद !

Saturday, January 16, 2010

तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रतिभागिता के संबंध में।

महोदय/महोदया,
भारत की भाषा हिन्दी आज दुनियाँ में एक बड़ी भाषा बन गई है। हिंदीदुनियाँ में यह सोचा जा रहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा हिंदीभी होनी चाहिए। यह चाहत हिंदी को जहाँ आज तरह-तरह के प्रश्नों से दोचार करा रही है वहीं यह प्रश्न भी लगातार सामने आ रहे हैं कि पूरीदुनियाँ में आए बदलावों और भाषाई विकास के क्रम में हिंदी की स्थितिक्या है और उसमें कहाँ-कहाँ अवरोध है ? इन अवरोधों का परिहार किसप्रकार किया जाए ? और हम किस प्रकार हिंदी को उसके मुकाम तक पहुँचानेमें सहयोगी हो सकते हैं, इस पर लगातार चिंतन हो रहा है और वैश्विकपरिप्रेक्ष्य में हिंदी तथा हिंदी वालों की भूमिका पर भी लगातार विचारहो रहा है। भाषा एवं साहित्य के विभागों, शिक्षकों, विद्यार्थियों,शोधार्थियों का भी यह दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास में अपनेविचारों से परस्पर अवगत कराएं ताकि भविष्य में विश्व के सन्दर्भ में हिन्दीकी वैश्विक नीति पर विचार किया जा सके। लगातार यह मांग रही है कि भारतीयभाषाओं के साहित्य तथा ऐसे राज्यों में जिनके नागरिकों कीमातृभाषा हिन्दी नहीं हैं, ऐसे राज्यों, क्षेत्रों में लिखे जा रहेहिन्दी साहित्य को हिन्दी के अनिवार्य पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।जिससे हिन्दी मातृ भाषा वाले प्रदेशों के लोग भी इससे परिचित होसकेंगे। इधर भारत के प्रवासियों द्वारा हिन्दी में लेखन तथा हिन्दी में विदेशोंमें हो रहे लेखन से भी हिन्दी के अध्येता, शोधार्थी अवगत हों, इसकीलगातार मांग हो रही है। साथ ही सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के साथहिन्दी के विकास के जो दरवाजे खुले हैं उनमें हम कहाँ पहुँचे हैं ? इसपर भी चर्चा जरूरी है। हिन्दी में विधाओं के विकास तथा अन्य भाषाओंतथा अनुशासनों में लिखे गए साहित्य के हिन्दी में हो रहे अनुवाद तथाउसकी आवश्यकता पर भी चर्चा होनी चाहिए।उपर्युक्त मुद्दों पर विचार करने के लिए हिन्दी विभाग, चैधरी चरण सिंहविश्वविद्यालय, मेरठ दिनांक 12 फरवरी 2010 से (तीन दिवसीय) ‘‘भूमण्डलीकरणके दौर में हिन्दी’’ विषयक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित कर रहा है।
संगोष्ठी में संभावित सत्र इस प्रकार हैं:-



कार्यक्रम:
प्रथम दिन: उद्घाटन - १०:00 बजे प्रातः
प्रथम सत्र - ‘अहिन्दी भाषी क्षेत्र और हिन्दी’ - १२:00 बजे से ०२:00 बजे
द्वितीय सत्र - ‘भारतीय मूल के देशों में हिन्दी की स्थिति’ - ०३:00 बजेसे ०५:00 बजे
सांस्कृतिक कार्यक्रम - 06-00 बजे

द्वितीय दिन-
तृतीय सत्र - ‘दुनियाँ में हिन्दी’ - ०९:30 बजे से ११:30 बजे
चतुर्थ - ‘सूचना प्रौद्योगिकी और हिन्दी’ - ११:45 से ०१:30 बजे
पंचम सत्र - ‘अनुवाद और हिन्दी साहित्य’ - ०२:15 से ०४:15 बजे
सांय ४:30 बजे से मेरठ में स्थानीय भ्रमण

तृतीय दिन:
षष्ठ सत्र - ‘हिन्दी साहित्य में विधाओं का विकास’ - ०९:30 बजे से ११:30 बजे
समापन - १२:00 बजे से ०२:00 बजे



इस संगोष्ठी में अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हिन्दी साहित्यकार, लेखक, विषयविशेषज्ञ एवं मीडिया से जुड़े लोग वक्ता के रूप में सम्मिलित होंगे।संगोष्ठी के माध्यम से अनेक प्राध्यापक, साहित्य प्रेमी पाठक, विद्यार्थी एवंशोधार्थी साहित्य एवं भाषा सम्बन्धी कई ज्वलन्त मुद्दों से परिचितहोंगे।संगोष्ठी में आप सादर आमन्त्रित हैं। इस हेतु आपकी प्रतिभागिता पूर्व मेंस्वीकृति के उपरांत ही होगी। अतः आप अपनी प्रतिभागिता हेतु सूचनाप्रेषित करने के अंतिम तिथि दिनांक 31 जनवरी 2010 तक सुनिश्चित करने का कष्ट करें। प्रतिभागिता शुल्क वित्त नियंत्रक, चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय,मेरठ के नाम ड्राफ्ट द्वारा अथवा सीधे M/s bhomandlikaran ke daur mein A/C CCSU, CCS university meerut Account Numbar- 5002507178 -7 इस खाते में भी प्रेषित कर सकते हैं ।

शिक्षक प्रतिभागियों हेतु 700/- रूपये
शोधार्थियों हेतु 400/-
विद्यार्थियों हेतु 250/-

कृपया रूपये पंजीकरण संलग्न प्रपत्र पर प्रेषित करने का कष्ट करें जिससे की आपकी प्रतिभागिता का पंजीकरण हो सके।

आपके सहयोग के लिए आभार सहित ।

भवदीय
(प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी)
संयोजक संगोष्ठी/अध्यक्ष, हिन्दी विभाग चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।




पंजीकरण फार्म का प्रारूप -


Tuesday, January 5, 2010

वृहत् शोध परियोजना " खड़ी बोली क्षेत्र के स्थान-नामों का व्युत्पत्तिगत एवं समाज भाषा वैज्ञानिक अध्ययन"


उत्तर प्रदेश का पश्चिमी क्षेत्र सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक दृष्टि से सम्पन्न रहा है। 1857 का स्वाधीनता आन्दोलन भी यहीं से शुरू हुआ। इसके अतिरिक्त यह क्षेत्र भाषाई दृष्टि से भी महत्व रखता है। यहाँ की मूल ‘कौरवी’ बोली है जो वर्तमान में खड़ीबोली नाम से सम्पूर्ण देश की राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य है। चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के ‘हिन्दी विभाग’ को इस क्षेत्र के स्थान-नामों के अध्ययन एवं शोध हेतु भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली द्वारा ‘‘खड़ी बोली क्षेत्र के स्थान-नामों का व्युत्पत्तिगत एवं समाज भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’’ विषय पर वृहत् शोध परियोजना स्वीकृत हुई है। परियोजना के अन्तर्गत पाँच लाख सत्तर हजार आठ सौ पच्चीस रूपए (5,70,825/-) की राशि परिषद् द्वारा स्वीकृत की गई है। इस परियोजना पर बाईस माह तक शोध कार्य किया जाना है। यह जानकारी देते हुए हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी ने बताया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जनपदों की सांस्कृतिक शब्दावली, ग्रामीण शब्दावली एवं बोलीगत अध्ययन तो हुए हैं, किन्तु इस क्षेत्र के स्थान-नामों का व्युत्पत्तिपरक एवं भाषा वैज्ञानिक अध्ययन पहली बार किया जाएगा। उन्होंने बताया कि परियोजना पर 15 जनवरी सन् 2010 से कार्य प्रारम्भ कर दिया जाएगा।इस शोध मे मेरठ तथा सहारनपुर मण्डलों के जनपदों, नगरों, ब्लाकों, तहसीलों तथा ग्रामों का अभिधानात्मक अध्ययन किया जाना है। साथ ही खड़ीबोली क्षेत्र को लक्ष्य करते हुए रामपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, रूड़की, लक्सर, हरिद्वार, दिल्ली के स्थान-नामों को भी इसमें शामिल किया जाएगा। इसके माध्यम से यह जानकारी लोगों तक पहुँच सकेगी कि अमुक नगर, कस्बा, गांव के नाम रूप के पीछे क्या सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अथवा राजनैतिक कारण रहे हैं। इससे किसी स्थान नाम के पीछे की यथार्थ स्थिति को जाना जा सकेगा। खड़ी बोली क्षेत्र मंे कुछ प्रसिद्ध नगरों, ब्लाॅकों, तहसीलों तथा ग्रामों के नाम प्रसिद्ध हैं तथा उनके नामकरण के पीछे अर्थात एक-एक स्थान-नाम के पीछे कई-कई किवदंतियाँ, धारणाएं प्रचलित है, किन्तु उनमें तर्क तथा तथ्यात्मकता का अभाव है। इस शोध में किवदन्तियों, धारणाओं एवं मिथकों को तोड़कर एक प्रामाणिक अध्ययन विश्लेषण कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्थिति को जाना जा सकेगा। अन्य क्षेत्रों की तरह खड़ी बोली क्षेत्र में स्थानीय इतिहास भी प्रामाणिक रूप मंे उपलब्ध नहीं है। इस परियोजना से खड़ी बोली क्षेत्र के इतिहास के पुनर्रलेखन की समस्या का समाधान भी हो सकेगा। लोग जिस स्थान पर वर्षों से रह रहे हैं, उस स्थान - नगर, कस्बा तथा ग्राम का नाम स्थापन तथा व्युत्पत्ति आदि के विषय में नहीं जानते हैं। जिससे यहाँ की परंपरागत जानकारी जनता के सामने नहीं आ पा रही है। क्षेत्र की ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक जानकारी सम्बंघी कई गुत्थियाँ इस शोध के माध्यम से खुलकर सामने आएंगी। इन समस्याओं को देखते हुए खड़ी बोली क्षेत्र के स्थान-नामों का समाजपरक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया जाएगा।इसके माध्यम से नामकरण के विभिन्न आधारों जैसे भौगोलिक आधार पर, धार्मिक व सांस्कृतिक आधार पर, राजनैतिक आधार, सामाजिक सम्बन्धों का आधार लेकर व्यक्ति विशेष पर आधारित आदि के माध्यम से शोध कार्य होगा।परियोजना के प्रारम्भ में खड़ी बोली क्षेत्र के विभिन्न जनपदों, विकासखण्डों, तहसीलों आदि के माध्यम से डाटा एकत्र किया जाएगा तथा इसके पश्चात् क्षेत्र से जुड़े विभिन्न स्थानों-ग्रामों में जाकर गाँव-कस्बों के पुराने जानकार व्यक्तियों से सम्पर्क कर यथातथ्य साम्रगी का संकलन किया जाएगा। इस भाषा वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा अनेक ग्राम-नगरों के मूल तक पहुँचने में सहायता मिलेगी। जिससे अनेक क्षेत्रीय सन्दर्भ उजागर होंगे।प्रो0 लोहनी ने बताया कि क्षेत्रीय भाषाओं के अध्येताओं का ध्यान प्रायः स्थान नामों की उपादेयता पर नहीं जाता। क्षेत्र की खड़ीबोली की मूल ‘कौरवी बोली’ की प्रवत्तियों को उद्घाटित करने में यह अध्ययन सहायक होगा तथा खड़ी बोली को अधिक गहराई से समझने में भाषाविदों को पर्याप्त सहायता मिलेगी। साथ ही इसके द्वारा देशीय संस्कृति, क्षेत्रीय भाषिक विशेषताओं, भाषाओं के बीच सीमा निर्धारण और भाषा भौगोलिक वितरण का विस्तार से ज्ञान मिल सकेगा। यह अध्ययन पूरी जागरूकता एवं अद्यतन दृष्टि से किया जाएगा, जिससे भाषा विज्ञान के क्षेत्र का विस्तार होगा तथा महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त हो सकेंगे। इससे पूर्व भी प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत वृहत् शोध परियोजना ‘‘चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय परिक्षेत्र के हिन्दी साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य में योगदान’’ विषय पर अप्रैल 2004 से मार्च 2007 तक कार्य कर चुके हैं। इस परियोजना में मेरठ परिक्षेत्र के विभिन्न जनपदों के ज्ञात-अज्ञात साहित्यकारों को तो प्रकाश में लाया ही गया है। साथ ही परिक्षेत्र से जुडे़ लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं - स्वांग, लावनी, लोकगीत, आल्हा, लोककथाओं पर भी कार्य किया है तथा क्षेत्रीय भाषा का शब्दकोश शोध के दौरान खोजकर प्रकाशित कराया है। लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘‘कौरवी लोक साहित्य’’ तथा ‘‘खड़ीबोली की साहित्यिक विधाएं एवं रचनाकार’’ (सन्दर्भ मेरठ मण्डल) प्रकाशित हो चुकी है।वर्तमान में भी प्रो0 लोहनी ‘‘सन् 1857 से 1947 तक के हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता में राष्ट्रीय चेतना’’ विषय पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत वृहत् शोध परियोजना पर अप्रैल 2008 से निरंतर कार्य कर रहे हैं।

Tuesday, December 8, 2009

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी " भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी"

विशेष सूचना
दिनांक १२ से १४ फरवरी २०१० को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के हिन्दी विभाग द्वारा " भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी" पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जा रही है । संगोष्ठी में 'अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी' , 'प्रवासी क्षेत्रों में हिन्दी' और 'विदेशी लेखकों द्वारा हिन्दी लेखन एवं प्रसार' " हिन्दी का भविष्य एवं हिन्दी साहित्य " जैसे विशेष सत्र भी आयोजित किए जायेंगे । संगोष्ठी मैं देश विदेश से सैकड़ों हिन्दी लेखक; साहित्यप्रेमी शिक्षक शोधार्थी एवं मीडिया से जुड़े लोग सम्मिलित होंगे। विश्वविद्यालय देहली से 88 किलोमीटर दूर है। इस संगोष्ठी में आपकी प्रतिभागिता पूर्व में स्वीकृति के उपरांत ही हो सकती है । प्रतिभागिता हेतु सूचना भेजने की अन्तिम तिथि १० जनवरी है । अतः

प्रतिभागिता हेतु संपर्क करें-
प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी , विभागाध्यक्ष हिन्दी
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।
nclohani@gmail.com, nclohani@yahoo.com
Phone & fax-01212772455, +919412207200
अन्य फोन नंबर एवं वेब पते-
विवेक सिंह ( शिक्षण सहायक)
गजेन्द्र सिंह ( शिक्षण सहायक)
+9258040773 ,9359770328

वेस्ट यू. पी. की खड़ी बोली में विवाह, ऋतु और गोना के गीत हुए कोर्स में शामिल






Wednesday, October 7, 2009

Tuesday, September 8, 2009

विभागीय सूचना

हिन्दी विभाग के सभी विद्यार्थियों को सूचित किया जाता है कि दिनांक २४ सितम्बर २००९ दिन गुरुवार को अपराहन ११ बजे विभाग में पुरातन छात्र- छात्राओं का विदाई नवीन छात्रों का स्वागत समारोह होगा । सभी विद्यार्थियों से अनुरोध है कि २४ सितम्बर को विभाग में उपस्थित रहें ।



अध्यक्ष हिन्दी परिषद् , हिन्दी विभाग

Wednesday, April 1, 2009

राष्ट्रीय संगोष्ठीसमकालीन रचनाकार एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में दिनांक 27-28 मार्च 2009 को ‘‘समकालीन रचनाकर एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)’’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में विभिन्न ख्याति नाम विषय विशेषज्ञों ने शिरकत की। संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में सुधीश पचौरी, मीडिया विशेषज्ञ एवं समीक्षक (प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग), प्रो। बी. एन. राय, उपन्यासकार एवं सम्पादक (कुलपति अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, गुजरात), जितेन्द्र श्रीवास्तव (युवा आलोचक, प्रवक्ता इग्नू), अखिलेश (कथाकार एवं सम्पादक तद्भव), प्रो. गंगा प्रसाद विमल (कथाकार एवं पूर्व निदेशक केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, दिल्ली), निर्मला जैन (समीक्षक एवं पूर्व प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली) आदि विषय विशेषज्ञों ने समकालीन रचना धर्मिता को विभिन्न दृष्टि और आयामों से विश्लेषित किया है।संगोष्ठी के प्रथम सत्र में बोलते हुए सुप्रसिद्ध समीक्षक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष सुधीश पचैरी ने कहा कि समकालीन रचनाकर्म में त्वरित स्थिति और परिस्थितियों का प्रतिबिंब है। रघुवीर सहाय, अज्ञेय को संदर्भित करते हुए उन्होंने कहा कि जो रचनाकार कालजीवी होता है, वही कालजयी भी होता है। वर्तमान साहित्य में रसवाद विशेषतया समाकालीन कविता का विश्लेषण करते हुए पचौरी ने कहा समकालीन कविता में काल की स्थितियाँ केंद्रित नहीं है। बाजार, सूचना तंत्र, मीडिया आदि के युग्म ने समकालीन साहित्य के लिए कई प्रश्न खडे़ कर दिये हैं और साहित्य समकालीन रचनाकार को उन प्रश्नों के हल खोजने होंगे। बाजार को रचनाकारों को एक अवसर के रूप में देखना होगा। पचौरी जी ने कहा कि ये समकालीन रचना समय के बजाय विषमकालीन रचना समय कहा। उन्होंने साहित्य में बदलाव का प्रस्थान बिन्दु 1975 को माना। साहित्य, राजनीति और समाज के लिए उत्तर कालीन व्यवस्था वह नहीं रही जो पहले थी। केन्द्र में एक पार्टी के शासन की धारणा समाप्त हो गई। चैधरी चरण सिंह ने गठबन्धन की सरकार बनाई। आज जो सम्मिलित सरकार है उसका बीज 1967 में पड़ा था। 1975 में बेचैनी और मोहभंग का दमन हुआ। 1989 में इसका फिर उत्कर्ष हुआ। आम तौर पर समकालीन रचना प्रक्रिया इससे अछूती नहीं। 1947 के आस-पास एक मुहावरा था ‘नई कविता’। सब तक में पहुँचना उद्देश्य था कवियों का। सभी ने कहा नई राहों के अन्वेषी हैं हम। वे सभ्यता तक सोचा करते थे। इसके बिना कोई बड़ी कविता संभव नहीं थी। आपातकाल का पहला काम था पत्रकारिता का अंत कर देना। सूचनाएं 1989 के बाद विस्फोट के रूप में सामने आने लगी। खोजपूर्ण पत्रकारिता सामने आई। साहित्य पर इसका क्या असर हुआ साहित्य में इसका मूल्यांकन नहीं हुआ। श्रीकांत वर्मा ने कहा ‘इन्दिरा हटाओ, हम कहते हैं कि गरीबी हटाओ’। ‘मगध’ में श्रीकांत वर्मा ने कहा ‘कौशल में विचारों की कमी है।’ अगर रघुवीर सहाय को हम स्मरण करें तो पाते हैं कि वो पहले कवि हैं जो कहते हैं कि विचारों की कमी है। रघुवीर सहाय आम आदमी के पक्ष में खडे थे। वो कहते हैं कि ‘आत्महत्या के विरूद्ध’, ‘भाषा को बचाओ’, ‘नकल से बचो’, ‘राजनीति के वर्चस्वताओं से बचो’, इससे पहले यही बात मुक्तिबोध कह चुके थे। 1980 के दशक में मंगलेश डबराल, वेणु गोपाल, आलोक धन्वा, ऋतुराज महत्वपूर्ण नाम है। इनमें से कई कवि रघुवीर सहाय को अपना गुरू मानते हैं लेकिन उन पर अपनी कविता नहीं करते, उनका मुहावरा अलग है। रघुवीर सहाय न्यूनतम पर कविता करते हैं आज की कविता समूचे रस भिन्न की कविता है। आजादी के बाद जो थोड़ा बहुत रस था कि कुछ बदलेगा लेकिन वह भी टूट गया। उन्होंने कहा कि सत्ता के व्यापक अर्थ हैं आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक सत्ता हमारे संविधान में रहती है और संविधान में हम रहते हैं। समकालीन कविता का विधान क्या है इस पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि तमाम वे विषय है जो एक आम आदमी को उद्वेलित करते हैं। इसमें छोटी-छोटी चीजें उठाई गई हैं। बहुत दिनों तक हिन्दी कविता में फूल-पत्ती का रोल रहा। इस कविता में फिर से घर, पत्नी, नानी याद आने लगी। उन्होंने मुक्तिबोध का जिक्र करते हुए कहा कि रचना प्रक्रिया ज्यों-ज्यों बढ़ती है। वह जटिल होती जाती है। कविता में अनुभव शब्दों को तलाशते हुए अर्थ को तलाशते हुए निकलते हैं। इसे कोई नहीं पकड़ सकता। उन्होंने कहा कि समकालीन कविता में कथन ही स्ट्रक्चैर है। कवि अपने समय के दबाव का ऐसा शिकार हो गया है कि उसे तुरंत प्रक्रिया करनी है। समकालीन रचना में जो विषमता है वह तना हुआ समय है। इसमें कोई गुंजाइश ही नहीं है। उन्होंने कहा कि जीवन गद्यात्मक है ये कहा जाता है। पद्य काफी सोचे-विचारने के बाद लिखा जाता है। ‘वाक्यम रसात्मकम काव्यम’ आज के कवियों कि स्थिति पर बोलते हुए कहा कि इन कवियों के नाम हटा दीजिए, कविताओं के शीर्षक हटा दीजिए तो पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि कविता किसकी है क्योंकि बनाने के पीछे मेहनत नहीं कि गई। मैं नहीं समझता कि कहानी लिखना, कविता लिखना इतना ही आसान है जितना मेरा बोलना, आपका सुनना। कविता क्षणभंगुरता को टिकाना है। शिल्प मीनिंग को ठहराता है। समकालीन समय अनफिक्स समय है। कविता के लिए यूटोपिया चाहिए, स्वप्न चाहिए। स्वप्न के बिना अगर कविता संभव है तो वह आज की कविता है। ये नित्यकर्म की कविता है। मैं अपनी तात्कालिकता से दूर ही नहीं हो पा रहा।उद्‍घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वी0एन0 राय ने कहा कि श्रेष्ठ रचनाएं प्रत्येक काल में एक समान होती है। वर्तमान कविता के बारे में बोलते हुए श्री राय ने कहा कि कविता निजता के संकट से गुजर रही है। यह काल रचना धर्मिता की दृष्टि से संक्रमण का काल है। अपने वक्तव्य के अंतिम दौर में एक टिप्पणी कर उन्होंने माहौल को गरमा दिया। श्री राय ने कहा इस्लामिक लोगों और साम्यवादियों को अमेरिका से विरोध है और वे अपनी संतानों को अमेरिका ही नौकरी के लिए भेजना चाहते हैं। उन्होंने साहित्य जनसरोकारों के लिए आवश्यक बताया तथा यह कह कर भी एक सनसनी पैदा की कि यदि समकालीन कविता के कई कवियों के नाम हटाकर उल्लेख किया जाए तो वे एक समान लगती हैं। प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. एस.के. काक, कुलपति, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ने की। आधुनिक हिन्दी कविता में रस के गायब होने पर उन्होंने चिंता जताई। उनका मानना था आम पाठक साहित्य को आनंद के लिए पढ़ता है और रस समाप्त होने पर उसे निराशा हाथ लगती है। प्रो. काक ने अतिथियों को स्मृति चिह्न प्रदान किये।इस अवसर पर कला संकाय की अध्यक्ष प्रो. अर्चना शर्मा ने विश्वविद्यालय में इस तरह की शैक्षणिक गतिविधियों की आवश्यकता बताई। उन्होंने अतिथियों का स्वागत भी किया।प्रथम सत्र का संचालन करते हुए प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिन्दी विभाग ने कहा साहित्य सहित भाव का नाम है और वह सांचों को बनाता नहीं, बल्कि तोड़ता है। लोक पक्षघरता ही साहित्य की उपादेयता तय करती है।उन्होंने कहा कि समकालीनता समय सापेक्ष स्थिति है। समय सापेक्षता का आशय किसी खास कालावधि के लिए लिया जाता है। आधुनिक, समसामयिक, समकालीन, वर्तमान सहित कई ऐसे शब्द हैं जो पर्याय की तरह भी प्रयोग में आते हैं और हम जब भी समकालीन शब्द प्रयोग में लाते हैं तो हम उसकी कालावधि के तत्कालीन सन्दर्भों को भी उसमें जोड़ते हैं। हिन्दी दुनिया में समकालीन शब्द को कई तरह से परिभाषित किया जाता रहा है परन्तु हम जिस सन्दर्भ से इस संगोष्ठी को जोड़ रहे हैं, वह पारिभाषिक महत्व के साथ-साथ कालसापेक्षता के वर्तमान प्रभावकारी बिन्दुओं से जुड़ा हुआ है। हिन्दी की समकालीन रचनाधर्मिता का अपना विशेष महत्व है। हिन्दी रचनाकारों की दुनिया में एक विशेष समय है आपातकाल के बाद का भारत, वह भारत, जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगने के बाद पहली बार लगा था कि क्या अंग्रेजों की तरह भारत में भारत के आमजन द्वारा चुनी, कही जा रही जनप्रतिनिधियों की सरकार का आचरण भी किंचित रूप में अंग्रेज सरकार जैसा ही होगा। किन्हीं अर्थों में यह सरकार भी क्या उसी तरह आचरण करेगी जैसी कि विदेशियों की सत्ता में होता रहा है। गोष्ठी को 1980 के बाद के समय में रखने का एक कारण यह भी रहा कि हिन्दी दुनिया में सन् 1980 के बाद भारी बदलाव दिखाई देते हैं जिनमें भूमण्डलीकरण के असर की बात को लें या उत्तर आधुनिकता संबंधी विमर्श को। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श तथा जनजातीय विमर्श का समय भी यही है। भारतीय राजनीति में हुई तमाम तरह की दुरभिसंधियां भी इसी काल की हैं, जब आपातकाल के बाद आर्थिक घोटालों से उत्पन्न विक्षोभ, धार्मिक, जातीय तथा साम्प्रदायिक उन्माद को चरम पर पहुँचाकर सत्ता हस्तान्तरण हुए और खुले तौर पर साम्प्रदायिक तथा जातीय ताकतों के नाम पर सत्ता के लिए वोट मांगे गए, लिए गए, सत्ता बदली परन्तु नहीं बदला तो सत्ता का चरित्र। जिस तरह चीन युद्ध के बाद छलावे का अहसास भारतीय जनता को हुआ था ऐसा ही एहसास आज भी है। जिन घोषणापत्रों, वायदों, उम्मीदों, संभावनाओं पर सत्ता बदली वे जस के तस रहे। वायदा करने वालों ने खुले आम जनता को झांसे दिए। र्पािर्टयां, सरकारें, चेहरे बदले। छोटे दलों के आकार बडे़ हुए, बडे़ दल, दलदल में धँसे और सत्ता परिवर्तन जिनके भी बीच हुआ लगभग वे एक दूसरे की बी काॅपी बनने में लगे रहे। हाँ यह बात अवश्य गंभीरता से मानने की है कि लोकतंत्र में सत्ता के नए समीकरण तथा एक दल के स्थान पर बहुदलीय सरकारों का भी यह समय है।आर्थिक सन्दर्भों तथा विश्वव्यापी परिप्रेक्ष्य में अगर देखते हैं तो यह समय पर्याप्त हलचल का है। निजीकरण की वापसी, धन्नासेठों की सरकार को प्रभावित करने की क्षमता की वापसी, सामन्ती परिवारों का पुनः लोकतन्त्र पर परोक्ष्य, आर्थिक तथा राजनैतिक ताकत के रूप में कब्जा, एकध्रुवीय विश्व तथा भारत सहित विश्व की तीसरी दुनिया के देशों की गुटनिरपेक्षता की ताकतों की मौजूदगी की अप्रासंगिकता, आतंकी शक्तियों का विश्वपटल पर नग्न प्रदर्शन ही नहीं, यूएनओ की शक्तियों का एक ही देश के पक्ष में दोहन तथा उसके नाम पर कई देशों पर अत्याचार भी इस समय का सच है तो आर्थिक हिस्से में भारत के मध्य वर्ग की ताकतवर उपस्थिति तथा मीडिया के रूप अभिव्यक्ति के नए औजार की उपस्थिति भी इसी काल में हुई। यह समय इस रूप में भी विशिष्ट है कि साहित्य, कला तथा संगीत का परिचय नए रूप में हमारे सामने आ रहा है। वास्तविक दुनिया के समानान्तर आभासी दुनिया भी दिखाई देने लगी है। ऐसे समय में साहित्य इन तमाम स्थितियों से कैसे दो-चार कर रहा है। यह विचारणीय है। साहित्य समाज में व्याप्त घटनाओं का लिखित दस्तावेज होता है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों का शब्द प्रामाणिक आकलन करता है। आदिकाल और मध्यकाल के रचनाकर्म पर धार्मिक और परलौकिक दबाव थे किन्तु आधुनिक युग तर्क और विज्ञान से लैस होकर आता है। विकास को लेकर निश्चित विचारधाराएं और संरचनाओं से लोगों का मोहभंग हुआ और सोच के अद्यतन विकल्प शोधने का प्रयास जारी रहा। यह वहीं समय था जब, नक्सलवाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, दलित-स्वर्ण, बाजारवाद और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में ‘शब्द’ पर दबाव की बात की जाने लगी।यह विश्वविद्यालय स्तरीय संगोष्ठी जो 1980 के बाद के साहित्य अर्थात समकालीन रचनाधर्म का विश्लेषण करने का प्रयास है। आठवें दशक के आस-पास साहित्य और समाज में हाशिये का प्रश्न बड़ी तेजी से उभरा, स्त्री और दलित चेतना के उभार के परिणाम स्वरूप साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, के स्वर की अनुगूंज सुनाई पड़ी। स्वानुभूति सहानुभूति, समानुभूति और सहजानुभूति आदि मुद्दे भी इस समय में ही साहित्य में अंकित होते हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता दलित साहित्य का केन्द्र है, यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कहा जाता है ‘जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जानै पीर पराई। अनुभूति की गहन संपृक्ता ने रचनात्मक सरोकारों को भी व्यापक बनाया। सन् 1980 के बाद का समय महिला सशक्तिकरण का भी समय है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पुरूषों के साथ कदमताल करते हुए उन्होंने नवीन क्षितिजों को स्पर्श किया। परंपरागत क्षेत्रों के साथ गैर परंपरागत क्षेत्रों सेना, कृषि, उड्डयन व्यवसाय आदि में भी उनकी हिस्सेदारी बढ़ी। राजनीति में भी उन्होंने अपने लिए अधिक ‘स्पेस’ की मांग करनी शुरू कर दी। आठवें दशक के अंत में और नवंे दशक के शुरूआती दौर में महिला लेखकों की एक बड़ी जमात, तीव्र अनुभूति प्रवण दृष्टि और रचनात्मक सरोकारों के साथ स्त्री मन और स्त्री जीवन का प्रामाणिक स्कैच खीचते हैं। उपभोक्तावाद और भूमण्डलीकरण के विमर्श का दायरा निरंतर बढ़ता गया और सन् 1990 के बाद सूचना-संचार, प्रौद्योगिकी के संजाल का तमाम सामाजिक-साहित्यिक विचारधाराओं पर गहरा असर पड़ने लगा। साहित्य पर बाजारगत दबाबों की छायाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थी। इस समय में बाजार नामक आदिम संस्था का विरोध रिवाज के रूप में प्रचलित हुआ। संपूर्ण साहित्य का मूल स्वर रसात्मकता की अवधारणा से ज्यादा सामाजिकता की और होता चला गया। आठवें दशक के अन्त में सोवियत संघ का विघटन दो ध्रुवीय विश्व का अंत बन गया। अमेरिका का वर्चस्व और एक धु्रवीय विश्व की स्थापना इस समय की महत्वपूर्ण घटना थी। सन् 1990 के बाद का साहित्य अपने स्वरूप में बहुलतावाद का समर्थन कराता है। कथा साहित्य के क्षेत्र में यह काल प्रयोग धार्मिता से सराबोर रहा। संरचना और भाषा के स्तर पर उत्कृष्ट उपन्यास इसी समय में आए। विमर्शों की धार सान पर त्रीव हुई और विमर्शों का अतिवादी स्वरूप भी इस समय दिखाई देता है। उपन्यास और कहानी में विषय वैविध्य भी इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता है। इस समय में साहित्य पर गद्य का दबाव भी इस रचना समय को पकड़ने का महत्वपूर्ण सूत्र है। इस दौर में उपन्यास और कहानी संकलनों का प्रकाशन कविता की तुलना में अधिक हुआ।पुराने स्थापित नामों के बरक्स नई ऊर्जा से लबरेज रचनाकर सन् 1990 और उसके बाद की कालावधि में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं और यह पीढ़ी थाती को आगे तक ले जाने में सक्षम है। देखे जीवन और भोगे जीवन के बीच के वैषम्य को आज का साहित्य कम कर रहा है। यह देखे जीवन और भोगे जीवन के एकाकार होने की प्रक्रिया है। पाश्चात्य दुनिया ने जब इतिहास का अंत और विचारधाराओं के अंत की बात की लगभग उसी समय में हिन्दी पट्टी में वैचारिक आग्रह ने जोर पकड़ा। यह भी काबिलेगौर है कि पाश्चात्य विचारधाराओं और रचनात्मक पूर्वाग्रहों का हिन्दी जगत पर कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। स्थानीयता का दबाव, समसामयिक कृतियों का महत्वपूर्ण बिन्दू है, आज की कविताएं शब्द चयन विषय चयन में स्थानीय गली-कूचों और निज लोक परंपरा का वहन अधिक कर रही हैं। ग्राम्य जीवन पर इस समय में कई बेहतरीन कविताएं लिखी गई। अनुभूतियों की प्रखरता और मुखरता भी अस्सी के बाद के रचना समय की विशेषता है।वैश्वीकरण के अपने सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं। आमजन के लिए सूचनाओं की प्राप्ति और संपर्क साधनों की गति में त्रीव गति से वृद्धि हुई। उपग्रहीय संस्कृति और बाजारों का एकीकरण इस युग के सूत्र वाक्य थे। यह भी रोचक विषय है कथा साहित्य और कविता में इस सूचना समय का बड़ा प्रामाणिक वर्णन और विश्लेषण हुआ। संचार माध्यमों से जुड़े हुए रचनाकारों का इस युग में महत्वपूर्ण अवदान है। मानवीय संबंधों में निरंतर बढ़ रही दूरियों और एकाकीपन की प्रवृत्ति का प्रसार जिस त्रीव गति से हुआ उस छीजने की प्रक्रिया पर साहित्य जैसे मरहम लगाने का उपक्रम करता है। साहित्य पर दृश्य-श्रव्य माध्यमों का एक बड़ा प्रभाव यह भी हुआ कि स्वयं के मन की गुत्थियों को शब्द के माध्यम से खोलने का जोर-शोर से प्रसार होने लगा। इस समय आत्म कथाओं का एक बड़े दौर शुरू हुआ। स्त्री लेखिकाओं ने तल्ख सच्चाईयों और भोगे हुए यथार्थ को कागज पर शब्दशः उतार डाला। ये आत्मकथाएँ संवेदनाओं का अद्भुत आख्यान हैं। समीक्षा और आलोचना में भी यह समय सार्थक रहा। पुरानी पीढ़ी के समीक्षकों ने वर्तमान समीक्षा पद्धति के लिए नए क्षेत्रों का विस्तार किया। नई पीढ़ी के आलोचकों का योगदान इन मायनों में महत्वपूर्ण है कि वह आलोचना को स्वायत्त कर्म के रूप में देखते हैं। समसामयिक समीक्षक साहित्य को केवल रसानुभूति के निकष पर ही नहीं कसता बल्कि अन्य समाज विज्ञानों से उसको संबद्ध कर अपने निष्कर्ष देता है। इस संगोष्ठी में आठवें दशक से लेकर अद्यतन साहित्य और उसमें व्याप्त प्रवृतियों पर विचार-विमर्श किया जाएगा। वर्तमान समय में जब शब्द की अस्मिता पर संकट होने की आशंका व्यक्त की जा रही है तब रचनाकारों और विशेषज्ञों का क्या मानना है? यह जानना महत्वपूर्ण होगा। द्वितीय सत्र जो समकालिन कविता पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने की। इस सत्र में वक्ता के रूप में डा. जितेन्द्र श्रीवास्तव (युवा समीक्षक एवं आलोचक) हिन्दी विभाग, इग्नू, दिल्ली, डा. महेश आलोक, प्रख्यात कवि, शिकोहाबाद आदि ने अपने विचार व्यक्त किये। समकालीन कविता पर बोलते हुए प्रख्यात युवा कवि एवं समीक्षक डा. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा सन् 1990 के बाद की कविता को समझने के लिए नऐ औजारों और प्रविधियों की आवश्यकता है। रचनात्मकता की दृष्टि से उन्होंने इस समय को उत्कृष्ट बताया। रचनाकर्म के क्षेत्र में युवा कवि तमाम तरह के विषयों को स्पर्श कर रहे हैं। पूर्व वक्ताओं द्वारा कविता के लिये की गई संकट की आशंका को उन्होंने एक सिरे से नकार दिया।प्रख्यात कवि डा. महेश आलोक ने समकालीन कविता को गहन मानवीय सरोकरों से सबंद्ध बताया। कविता के क्षेत्र में आंचलिक पृष्ठभूमि से संबंद्ध जितने कवि आज रचनाकर्म में सक्रिय हैं। इतनी बहुलता कभी नहीं थी। विषय चयन के क्षेत्र में कविता में वास्तविक जनतंत्र वर्तमान समय में लागू हुआ। समकालीन कवि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को अपनी अभेद दृष्टि से देख और परख रहा है। यह काल ‘हाशिये के जीवन’ का वर्णन काल है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात जनवादी कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने कहा बेशक विचारधाराओं के अंत की बात की जा रही हो, साहित्य नहीं मर सकता। समकालीन कविता के विभिन्न पक्षों की गहरी पड़ताल करते हुए उन्होंने कहा आज की युवा पीढ़ी के पास नये स्वप्न और आकांक्षाएं हैं। ‘यूटोपिया’ के अंत की बात करना, भारतीय संदर्भों में सही नहीं है। भारत में साहित्य लोक से गहन संबंद्ध है। अतः यूटोपियाज के अंत का प्रश्न ही नहीं उठता। लीलाधर जगूड़ी ने समकालीन कविता के साथ ही सूचनाओं के विस्फोट काल में हिन्दी भाषा की स्थिति पर भी अपने विचार व्यक्त किये।इस सत्र का संचालन डा. अनिल त्रिपाठी जे.एस.सी. कालेज सिकन्दराबाद ने किया। सत्र का संचालन करते हुए वर्तमान कविता को वर्तमान युग की मांग बताया। इस रचनाकर्म को निष्पक्ष दृष्टि से देखने की आवश्यकता पर बल दिया।इस संगोष्ठी के तृतीय सत्र में अखिलेश, (कहानीकार, संपादक तद्भव), श्री प्रेम जनमेजय, श्री दामोदर दत्त दीक्षित, (सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार) आदि ने शिरकत की। इस सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कहानीकार एवं उपन्यासकार गंगा प्रसाद विमल ने की। प्रेम जनमेजय ने संगोष्ठी में बोलते हुए कहा कि व्यंग्य विद्या पर दृश्य-श्रव्य माध्यमों के रिऐलिटी कार्यक्रमों का प्रभाव पड़ा है आज चुटकुले, लतीफे को ही व्यंग्य समझ लिया गया है किन्तु यह एक गहरी विद्या है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार दामोदर दीक्षित ने कहा वर्तमान समाज में व्यंग्य ने अपना ‘स्पेस’ तलाश कर लिया है।इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने कहा समकाल जैसी कोई अवधारणा कम से कम साहित्य पर लागू नहीं हो सकती। यदि कोई ऐसी अवधारणा साहित्य पर लागू होती तो कबीर, तुलसी, मीरा, मुक्तिबोध आज प्रसांगिक न होते। साहित्य में मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं। गंगाप्रसाद विमल ने वाई जुई चीन में 1200 वर्ष पहले पैदा हुए और वह सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में जाने जाते हैं। वक्तव्य के अंत में समकालीन रचनाओं को प्रोत्साहन की उन्होंने आवश्यकता बताई। इस सत्र का संचालन डा. प्रज्ञा पाठक एन.ए.एस. कालेज, मेरठ ने किया।राष्ट्रीय संगोष्ठी का चतुर्थ सत्र एवं समापन सत्र दिनांक 28 मार्च 2009 को सम्पन्न हुआ। यह सत्र हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित रहा सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. निर्मला जैन ने कहा कि आलोचना बहुत है, आलोचक बहुत कम है। जबकि कवियों और रचनाकारों का कहना है कि आलोचना का क्षेत्र बहुत कम है लगभग खाली पड़ा है। वास्तव में ईमानदार आलोचक सिर्फ एक पाठक होता है। वह किसी लिंग या धर्म से प्रभावित होकर आलोचना नहीं करता। उन्होंने विश्वविद्यालय शोध प्रबन्धों पर तीखे व्यंग्य करते हुए कहा कि इन शोध प्रबन्धों का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। तमाम तरह कि गैर जरूरी रचनाओं पर भी शोध हो रहा है। शोध की वस्तुनिष्ठता, शोध की गुणवत्ता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रो0 निर्मला जैन ने आधुनिक समय को दौड़ भाग वाला समय बताते हुए कहा कि वर्तमान रचनाकार इन त्वरित क्षणों के टकराव से अपनी रचना ऊर्जा को तलाश करता है। श्रोताओं के प्रश्नों का जवाब देते हुए उन्होंने आलोचना और रचनाकार के द्वन्द आदि स्थितियों को साहित्य के भविष्य के लिए घातक बताया। साहित्यकार का माक्र्सवादी अथवा गैर माक्र्सवादी होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह गहन मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हो। उन्होंने तमाम तरह की राजनैतिक विचारधाराओं के खाँचे में बंटे हुए साहित्य से आप कालजयी होने की उम्मीद नहीं कर सकते। सूर, कबीर, तुलसी इस वजह से प्रासंगिक हैं कि काल उनकी रचनाओं में एक महत्वपूर्ण तत्व बनकर आता है और प्रत्येक समय में उनकी प्रमाणिकता बनी रहती है।इसी क्रम में प्रो. स्मिता चतुर्वेदी ने कहा कि जब हम किसी कृति को परखते हैं, देखते हैं तो हम उसकी आलोचना भी करते हैं। आलोचना पाठक और लेखक के बीच के विचारों की कशमकश है। इन्होंने कहा कि खराब रचना इतनी खतरनाक नहीं होती, जितनी खराब आलोचना। जब हम किसी रचना के अन्दर यात्रा करते हैं तब वह आलोचना कहलाती है। उन्होंने दलित विमर्श और नारी विमर्श पर बोलते हुए कहा कि केवल दलित ही दलित की पीड़ा समझता है और कभी-कभी नारी विमर्श और दलित विमर्श पर लिखने वालों में खीचातान होती रहती है। आज के आलोचक का दायित्व बहुत बड़ा है और शायद इसी लिए आलोचना कम लिखी जा रही हैं। दूरदर्शन से आये प्रसिद्ध मीडियाकर्मी एवं पत्रकार डा. अमरनाथ ‘अमर’ (पिछले दिनों ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ पुरस्कार से सम्मानित) का कहना था कि दूरदर्शन ने समकालीनता की अवधारणा को बहुत आगे तक बढ़ाया है प्रत्येक युग के रचनाकार को उसने अपने केन्द्र में लिया है। देश की सामासिक सांस्कृतिक को अभिव्यक्त करते हुए विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों पर टेलीफिल्म, साक्षात्कार प्रस्तुत कर दूरदर्शन ने समाज को एक नई दिशा दी है। उपग्रहीय संस्कृति के दौर में दूरदर्शन के कार्यक्रमों मे गांव, देहात का अक्स लगातार उभरता रहा है। संगोष्ठी में विशिष्ठ अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो. एस. वी. एस. राणा ने कहा कि साहित्य समाज को गति देता है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग के स्वप्न आकांक्षओं को वह अभिव्यक्त करता है। जो साहित्य सामाज से जितनी गहराई से जुड़ा होगा। वह उतना ही काल के सापेक्ष्य होगा।सत्र का संचालन करते हुए एम. एम. कालेज, मोदीनगर के डा. जे. पी. यादव ने कहा कि वर्तमान साहित्य नए आयामों और नये क्षितिजों को छू रहा है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग की साहित्य में हिस्सेदारी बढ़ी है वास्तव में साहित्य में प्रजा तंत्र वर्तमान समय में शुरू हुआ है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग अपनी संवेदनाओं की बडे़ प्रमाणिक अंदाज में वर्तमान रचना समय में अभिव्यक्ति करता जा रहा है। संगोष्ठी में प्रश्नोत्तरी के दौरान विपिन कुमार शर्मा, मोनू सिंह, डा. त्रिपाठी, राजेश ढांड़ा, सहित कई शिक्षिकों एवं छात्र-छात्राओं ने विशेषज्ञों से प्रश्न पूछे। इस अवार पर डा. प्रज्ञा पाठक, डा. ललिता यादव, डा. अशोक मिश्रा, डा.0 महेश आलोक, डा. प्रवेश साती, ऋतु सिंह, मंमता, डा. अर्चना सिंह, डा. साधना तोमर, दीपा, डा. स्नेहलता गुप्ता, डा. नवीन कुमार शर्मा, कु. नीतू चैधरी, डा. गजेन्द्र सिंह, कु. नीतू चैधरी, श्रीमती निर्मला देवी, प्रकाश चन्द्र बंसल, ईश्वर चन्द गंभीर, डा. रवीन्द्र कुमार, गजेन्द्र सिंह, राजेश कुमार, सुमित कुमार, विवके सिंह, अंजू, निवेदिता, ममता, नेहा पालनी अमित कुमार, मोनू, जोगेन्द्र सिंह, अरूण कुमार, पारूल, दीपक कुमार, अजय कुमार आदि शिक्षक एवं छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

प्रस्तोता- डा। रवीन्द्र कुमार

Monday, April 6, २००९ http://hindi-khabar।hindyugm.com/search/label/Uttar%२०रदेश पर प्रकाशित ‘यूटोपिया’ के अंत की बात करना, भारतीय संदर्भों में सही नहीं है- पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में दिनांक 27-28 मार्च 2009 को ‘‘समकालीन रचनाकर एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)’’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

Thursday, March 19, 2009

27-28 मार्च 2009 को ‘समकालीन रचनाकार एवं रचनाएं’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन

हिन्दी विभाग चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ
9412207200, 0121-2772455 nclohani@gmail.com, nclohani@yahoo.co.in
सूचना

दिनांक 27-28 मार्च 2009 को ‘समकालीन रचनाकार एवं रचनाएं’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है। ध्यातव्य है कि 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के लगभग दो-तीन दशकों से अब तक का समय औद्योगिक क्रान्ति काल के रूप में जाना जाता है। इस काल में समाज, राजनीति, कला, संस्कृति, साहित्य, दर्शन, संगीत, अर्थ व्यवस्था, इतिहास सहित समग्र मानव-चिन्तन में निरंतर परिवर्तन होता रहा है। यह परिवर्तन साहित्य की समकालीन गद्य-पद्यात्मक सभी विधाओं में भी परिलक्षित हुआ है। भूमण्डलीकरण तथा बाजारवाद का प्रभाव समकालीन रचनाकारों की रचनाओं में स्पष्ट देखा जा रहा है। परंपरागत साहित्यिक विमर्श के इतर भी जनजाति विमर्श, स्त्री विमर्श तथा दलित विमर्श जैसे मुद्दे आज सामने हैं। आधुनिक परिदृश्य में उपर्युक्त विमर्शों ने क्रान्ति की लहर पैदा की है। भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल जन समाज को साहित्य ने आज शब्द और कर्म के समाजशास्त्र की ओर प्रवृत्त किया है। इस संगोष्ठी में साहित्य की दुनिया के कई प्रखर आलोचक, बुद्धिजीवी तथा समकालीन साहित्यकार वक्ता के रूप में होंगे। यह संगोष्ठी छात्र-छात्राओं, शोधार्थियों तथा शिक्षकों के लिए विशेष लाभकारी होगी। इसके माध्यम से साहित्य में कई विमर्शों से हम परिचित हो सकेंगे। इस संगोष्ठी में प्रतिभागिता हेतु कृपया आवागमन संबंधी व्यय अपने स्वयं संस्थान, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय से प्राप्त करने की कृपा करें। स्थानीय आवास आदि की व्यवस्था विश्वविद्यालय द्वारा वहन की जाएगी ।
संगोष्ठी:- समकालीन रचनाकार एवं रचनाएं-(सन् 1980 के बाद के रचनाकर्म पर केन्द्रित) दिनांक:- 27-28 मार्च २००९



पंजीकरण - दिनांक 27 मार्च 2009 समय 09ः00 बजे से 10ः00 बजे तक
उद्घाटन सत्र - दिनांक:- 27 मार्च 2009 समय 10ः00 से 11ः30 तक
अध्यक्षता - प्रो0 एस0 के0 काक, कुलपति जी, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
मुख्य अतिथि - डाॅ0 वी0 एन0 राय, कुलपति, अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
उद्घाटन वक्तव्य - प्रो0 सुधीश पचैरी, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
संचालन - प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह वि0 वि0, मेरठ


द्वितीय सत्र - हिन्दी कविता दिनांक:- 27 मार्च 2009 समय 11ः45 से 02ः00 तक
अध्यक्षता - श्री मंगलेश डबराल, प्रख्यात कवि एवं संपादक, नई दिल्ली
वक्तव्य - श्री माहेश्वर तिवारी, सुप्रसिद्ध गीतकार, मुरादाबाद श्री सर्वेन्द्र विक्रम, प्रख्यात कवि, लखनऊ डाॅजितेन्द्र श्रीवास्तव, हिन्दी विभाग, इग्नू दिल्ली श्री महेश आलोक, प्रख्यात कवि, शिकोहाबाद

संचालन - डाॅ0 अनिल त्रिपाठी, जे0 एस0 सी0 कालिज सिकंदरााबाद


तृतीय सत्र - हिन्दी गद्य दिनांक:- 27 मार्च 2009 समय 02ः30 से 05ः00 तक
अध्यक्षता - प्रो0 निर्मला जैन (अध्यक्षता) प्रख्यात आलोचक, गुडगांव
वक्तव्य - श्री अखिलेश, आलोचक एवं संपादक तद्भव, लखनऊ श्री प्रेम जनमेजय, संपादक व्यंग्ययात्रा एवं व्यंग्यकार, नई दिल्ली श्री दामोदर दत्त दीक्षित, सुप्रसिद्ध कहानीकार, मेरठ श्री ओमप्रकाश बाल्मिकी, सुप्रसिद्ध दलित रचनाकार, देहरादून
संचालन - डाॅ0 प्रज्ञा पाठक, रीडर एन0 ए0 एस0 कालिज, मेरठ

चतुर्थ सत्र - हिन्दी आलोचना दिनांक:- 28 मार्च 2009 समय 10ः00 से 01ः00 तक
अध्यक्षता - प्रो0 रामदरश मिश्र (अध्यक्षता), सुप्रसिद्ध साहित्यकार, नई दिल्ली
वक्तव्य - प्रो0 जयसिंह नीरद, हिन्दी विभाग, के0 एम0 इंस्टीट्यूट, आगरा श्री अजय गुप्ता, संपादक गगनाचल, नई दिल्ली डाॅ0 अमरनाथ ‘अमर’ कवि एवं मीडिया विशेषज्ञ, नई दिल्ली डाॅ0 स्मिता चतुर्वेदी, हिन्दी विभाग, इग्नू, नई दिल्ली
संचालन - डाॅ0 जे0 पी0 यादव, एम0 एम0 काॅलिज, मोदीनगर (इस सत्र में शोध पत्रों की प्रस्तुति भी होगी)

समापन सत्र - दिनांक:- 28 मार्च 2009 समय 02ः00 से 04ः00 तक
अध्यक्षता - प्रो0 गंगा प्रसाद ‘विमल’, सुप्रसिद्ध आलोचक एवं कहानीकार, नई दिल्ली प्रो0 हरिराज सिंह, पूर्व कुलपति, इलाहाबाद विश्वविद्यालय एवं कवि, पंतनगर डाॅ0 सविता मोहन, भाषा विभाग, उत्तरांखण्ड सरकार, देहरादून श्री राकेश दुबे, विदेश में हिन्दी लेखन विशेषज्ञ, नई दिल्ली (इस सत्र में शोध पत्रों की प्रस्तुति भी होगी)
संयोजक - प्रो0 नवीन चन्द्र लोहनी, विभागाध्यक्ष हिन्दी चौधरी चरण सिंह वि0 वि0 मेरठ

Monday, November 24, 2008

साहित्येत्तर हिंदी लेखन पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

साहित्येत्तर हिंदी लेखन पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठीप्रस्तुति : प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी
हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
प्रो० रामशरण जोशी ने कहा कि हिन्दी को लेकर एक आम धारणा बन गई है कि यह केवल कविता, कहानी, उपन्यास आदि साहित्यिक विधाओं की भाषा है, इसमें ज्ञान-विज्ञान नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर ही इसमें साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त भी लेखन होता रहा है। अन्य विषयों में भी हिन्दी लेखन काफी समय से हो रहा है। यह विचार आज चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के बृहस्पति भवन में हिन्दी विभाग की ओर से आयोजित ’साहित्येतर हिन्दी लेखन‘ विषय पर दो दिवसीय संगोष्ठी के उद्‌घाटन भाषण में प्रो० रामशरण जोशी ने व्यक्त किए। संगोष्ठी का उद्‌घाटन विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय प्रो० एस० के० काक और मुख्य अतिथि केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष प्रो० रामशरण जोशी ने माँ सरस्वती के चित्र पर मार्ल्यापण एवं दीप प्रज्ज्वलित कर किया।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र ’समाज विज्ञान और हिन्दी‘ का विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो० रामशरण जोशी ने कहा कि हिन्दी को लेकर एक आम धारणा बन गई है कि यह केवल कविता, कहानी, उपन्यास आदि साहित्यिक विधाओं की भाषा है, इसमें ज्ञान-विज्ञान नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर ही इसमें साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त भी लेखन होता रहा है। सरस्वती के संपादक और हिन्दी के उन्नायक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सम्पत्तिशास्त्र पर एक किताब लिखी थी। उससे भी पहले स्त्री समस्या आदि विभिन्न विषयों पर इक्का-दुक्का लेख लिखे जा चुके थे। इसके बाद हंस, प्रताप, दिनमान, दैनिक हिन्दुस्तान व धर्मयुग आदि पत्र-पत्रिकाओं में समाज विज्ञान के विषयों पर अनेक लेख लिखे गए। प्रो० जोशी ने कहा कि इस सब के बावजूद उस समय हिन्दी पाठक की मानसिकता साहित्यिक होने के कारण इस प्रकार की किताबें नहीं बिकी। इसका प्रभाव यह हुआ कि आज भी हिन्दी में समाज विज्ञान के विषयों में मौलिक लेखन का आभाव है और हिन्दी में समाज विज्ञान का लेखन मुख्य धारा नहीं बन पाया। उन्होंने कहा कि आजकल साहित्येतर पाठकों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है। इस समय लघु पत्रिकाओं में साहित्येतर विषयों पर काफी सामग्री प्रकाशित की जा रही है, इससे मौलिक लेखकों को प्रोत्साहन मिल रहा है। आज मीडिया को लेकर मौलिक लेखन हाथों हाथ बिक रहा है। कोई भी भाषा आज केवल शुद्ध साहित्य केन्द्र पर टिकी नहीं रह सकती। हिन्दी के लेखकों और बुद्धिजीवियों को नई दृष्टि से नये परिप्रेक्ष्य में हिन्दी को लिखने की प्रवृत्ति विकसित करें।
अध्यक्षीय वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कुलपति माननीय प्रो० एस० के० काक ने कहा कि हिन्दी में विज्ञान, तकनीक, इलैक्ट्रोनिक्स आदि विषयों में भी लिखना होगा। काशी हिन्दी वि०वि० में १९८० से विज्ञान विषय के शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा रहे हैं। यहाँ भी हमें इसी प्रकार का प्रयास करना चाहिए। हमारी कोशिश हो कि हिन्दी का विकास सिर्फ भारत में ही नहीं वरन् पूरी दुनिया में होना चाहिए।
संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए प्रो० कमल नयन काबरा ने कहा खुद को आम आदमी से जोड़े बिना कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती। हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि हम अपना काम अपनी भाषा में क्यों नहीं करते। हमें जनता के सरोकारों को समझना होगा। ऐसा कोई भी विषय नहीं है चाहे वह समाज विज्ञान हो या प्राकृतिक विज्ञान उसके सार तत्व को हिन्दी के माध्यम से समझाया जा सकता है उन्होंने कहा कि आज के दौर में हमारे देश में वैज्ञानिक परिवर्तन तो आया है लेकिन मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ। हम आज भी उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं और अँग्रेजी में लिखने बोलने को लेकर श्रेष्ठता ग्रंथि से पीड़ित हैं। उन्होंने कहा कि हमें खुद को वैचारिक रूप से स्वतन्त्र बनाना होगा और समाज के सवालों को उठाकर उन्हें जनता के दृष्टिकोण से देखना होगा। इसके लिए भाषा को जनता से जोड़ना जरूरी है। उन्होंने आग्रह किया कि साहित्येत्तर हिन्दी लेखन कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो भी लिखा जा रहा है सब साहित्य है।
सामायिक वार्ता के संपादक डॉ० प्रेम सिंह ने कहा कि हिन्दी भाषी बौद्धिक समाज हिन्दी भाषा के साथ न्याय नहीं कर पा रहा है। भाषा का सवाल सरोकारों ���ा सवाल है। आज विभिन्न जनान्दोलनों के माध्यम से एक विशेष प्रकार की हिन्दी का विकास हो रहा है। इसका अपना अलग साहित्य है, जिसके दो भाग हैं :- पहला गंभीर लेखन और पर्चे व पुस्तिकाएँ जिसमें आम लोगों की भाषा में गंभीर चीजें समझाने की कोशिश की जा रही है। इस सब को पाठ्यक्रम में शामिल करने से हिन्दी की भूमिका बढ़ेगी।
डॉ० प्रेम सिंह ने कहा कि हिन्दी में जो भी साहित्य लिखा जा रहा है वह तो मान्यता प्राप्त करता गया परंतु किसी भी साहित्यकार ने कोई गंभीर साहित्येतर लेखन भी किया तो उसे आलोचकों ने गंभीरता से नहीं लिया। इससे हिन्दी का नुकसान हुआ।
कार्यक्रम में प्रो० अर्चना शर्मा ने कहा कि राजनीति विज्ञान सहित समाज विज्ञान के विषयों में लेखन जो हो रहा है वह महत्वपूर्ण है मैंने गत दिनों में कई भारतीय प्रकाशकों की हिन्दी में प्रकाशित सूचियों को देखा तो उसमे प्रर्याप्त हिन्दी लेखन सामग्री दिखाई दी। उन्होंने यह भी कहा आज भी कई विद्यार्थी जब हिन्दी मीडियम छोड़ते हैं तो उन्हें भारी दिक्कत होती है परन्तु उन्हें दुविधा होती है जिसका कोई समाधान भी नहीं हैं।
इस अवसर पर वक्ताओं के अतिरिक्त डॉ० एस० के० कालरा, डॉ० गुरमीत सिंह, डॉ० अशोक कुमार, वेदप्रकाश ’वटुक‘ तथा साधक कौशिक ने भी विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी ने किया। इस अवसर पर डॉ० नवीन चन्द्र लोहनी द्वारा लिखित खड़ी बोली के प्रमुख रचनाकार तथा रचनाएँ (सन्दर्भ मेरठ मण्डल) पुस्तक का विमोचन किया गया।
संगोष्ठी का द्वितीय सत्र ’विज्ञान और हिन्दी” पर केन्द्रित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता भारत के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष प्रो० के० विजयकुमार और संचालन प्रो० वाई० विमला ने किया।
सत्र के अध्यक्ष के० विजय कुमार ने कहा कि लोगों में एक भ्रांत धारणा विद्यमान है कि हम सोचते हैं किसी और भाषा में हैं और बोलते हैं दूसरी भाषा में। ऐसा नहीं है अपने आसपास के वातावरण से जो कुछ हम सीखते हैं उसे ही बोलते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी के माध्यम से विज्ञान की कुछ चीजें लोगों के सामने आ रही हैं। हिन्दी में तकनीकी शब्दावली बहुत कठिन नहीं है। हमें धीरे-धीरे अँग्रेजी को हटाने और हिन्दी को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। प्रो० के० विजय कुमार ने कहा कि भाषाओं के विकास में हमें यह ध्यान जरूर देना है कि सभी चीजें भाषा की प्रकृति के अनुसार तैयार हों। जब तक हम किसी शब्द के परिवेश को नहीं जानते तब तक उसके बारे में अभिव्यक्ति तैयार करना उचित नहीं होता। उन्होंने कई उदाहरण देकर अपने विषय को रखा और दावा किया कि भारतीय भाषाएँ और हिन्दी का विकास तीव्रता से हो रहा है।
इस सत्र का विषय प्रवर्तन करते हुए मुख्य अतिथि नारायण कुमार ने कहा कि आधुनिक भारत के निर्माण में बौद्धिक, सांस्कृतिक और वैचारिक विकास की उपेक्षा कर सिर्फ आर्थिक विकास पर जोर दिया गया, इसका खामियाजा हमें बाद में भुगतना पड़ा। अँग्रेजी आज विज्ञान की भाषा बनी हुई है। उन्होंने कहा कि जब तक हम अपनी मातृभाषा में अध्ययन नहीं करते तो वैश्विक स्तर पर मौलिक अनुसंधान नहीं पाएँगे। बिना भारतीय भाषा में ज्ञान-विज्ञान के विकास के हम अपने देश का विकास नहीं कर सकते। उन्होंने बताया कि तकनीकी शब्दावली आयोग ने सरल शब्दों का निर्माण किया ताकि हिन्दी में भी विज्ञान लेखन किया जा सके।
विज्ञान लेखन के लिए कई वैज्ञानिक पुरस्कारों से पुरस्कृति सुभाष चन्दर ने कहा कि आज विज्ञान लेखन में रोजगार की व्यापक संभावनाएँ है। हिन्दी में विज्ञान लेखन की आज अत्याधिक आवश्यकता है। उन्हने कहा कि हिन्दी के छात्र-छात्राओं को विज्ञान लेखन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए जिसमें रोजगार की प्रयाप्त संभावना है।
रेलवे बोर्ड के संयुक्त सचिव तथा वैज्ञानिक लेखन के लिए प्रसिद्ध डॉ० प्रेमपाल शर्मा ने हिन्दी में विज्ञान लेखन की वर्तमान दशा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जब अपनी भाषा में चिंतन मनन कम होने लगता है तो हम आगामी पीढ़ी को कुछ नया नहीं दे पाते। आज बढ़ते हुए अंधविश्वास पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे मध्यवर्ग की वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे ज्योतिष की भी बढ़ोत्तरी हो रही है। जो कि वैज्ञानिक चिंतन और सोच के लिए अच्छा नहीं है।
वैज्ञानिक विपिन शुक्ला ने कहा कि आने वाला समय हिन्दी का होगा। देश में केवल ५ प्रतिशत लोगों को ही अँग्रेजी की समझ है। बाकी लोग हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में सोचते व बोलते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी में विज्ञान के क्षेत्र में काफी काम हुआ है और हमें उसका उपयोग करना चाहिए। उन्होंने खुशी जताई कि हिन्दी में पर्याप्त वैज्ञानिक लेखन हो रहा है लेकिन इससे संतुष्ट होने की बात नहीं है।
विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के तकनीकी बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ० शिशर गोयल ने बताया कि आज हिन्दी में काफी विज्ञान लेखन किया जा रहा है। आज के बाजारीकरण के दौर में जो चीज बिकती है उसका प्रचार होने लगता है। देश की ८० प्रतिषत जनता हिन्दी भाषा को समझती है। अतः इसी भाषा में विज्ञान लेखन करना चाहिए। उन्होंने जोर दिया कि हिन्दी को रोजगार और बाजार की भाषा बनाना चाहिए।

दिनांक ३० सितम्बर २००८

भविष्य की हिन्दी ब्लॉग और इन्टरनेट के माध्यम से अपनी पहचान बना रही है। यह विचार प्रो० हरिमोहन ने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी “साहित्येतर हिन्दी लेखन” दूसरे दिन “सूचना प्रौद्योगिकी एवं मीडिया में हिन्दी” नामक तृतीय सत्र में कहे।
कार्यक्रम में हिन्दी विभाग द्वारा प्रकाशित विभागीय पत्रिका ’मंथन‘ के इन्टरनेट संस्करण (ब्लॉग) का विमोचन किया गया। “सूचना प्रौद्योगिकी एवं मीडिया में हिन्दी” विषय पर बोलते हुए दूरदर्शन से आये डॉ० अमरनाथ ’अमर‘ ने कहा कि दूरदर्शन अपनी स्थापना से अब तक व्यापक रूप धारण कर लिया है। उन्होंने कहा कि दूरदर्शन सदैव साहित्यिक गतिविधियों में अग्रणी रहा है और भविष्य में भी यह साहित्य और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम दर्शकों तक पहुँचाता रहेगा।
उपेन्द्र सिंह ने अपनी वक्तव्य में कहा कि हम यह मानकर नहीं चल सकते की हिन्दी की चुनौतियाँ खत्म हो गई है। बल्कि इसके प्रचार-प्रसार से हिन्दी की चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं। हिन्दी की विदेशी दूतावासों में अपनी अलग पहचान है। वहाँ कई दूतावासों से हिन्दी-पत्रिका भी प्रकाशित होती हैं। जिन्हें मीडिया द्वारा भी पूरा सहयोग मिलता है।
डॉ० स्वतन्त्र कुमार जैन ने कहा कि हिन्दी संचार की भाषा है और मीडिया में हिन्दी भाषी अखबारों की बहुत महत्ता होती है। उन्होंने कहा कि समाज में हिन्दी को लेकर बहुत सी कठिनाईयाँ भी आती हैं। उन्होंने कहा कि आप व्यवसाय कुछ भी हो लेकिन आधार हिन्दी ही होना चाहिए। हमें हिन्दी दिवस को ज्ञान दिवस के रूप में मनाना चाहिए। डॉ० जैन ने बताया कि हिन्दी के तीन रूप होते हैं :- भक्तिकाल, गद्यकाल और आधुनिक काल। पूरा हिन्दी साहित्य इन्हीं रूपों में समाहित है। अन्त में उन्होंने कहा कि हमें हिन्दी को आवश्यकता के रूप में लेकर संकल्प करके हिन्दी का विकास करना चाहिए।
श्री अनिल जोशी ने प्रो० लोहनी को आयोजन की बधाई देतु हुए बताया कि आज हिन्दी में अन्य भाषाओं की अपेक्षा कम सतर पर ब्लॉग बनाये जा रहे हैं। जहाँ अँग्रेजी के ३० करोड़ ब्लॉग इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं वहीं हिन्दी ब्लागों की संख्या लगभग पाँच हजार तक सीमित है। उन्होंने कहा कि हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है जिसको १२ से १६ घन्टों के अभ्यास के बाद कम्प्यूटर पर टाईप किया जा सकता है।
हिन्दी ब्लॉग के बारे में बताया कि ब्लॉग के लिए पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है। ब्लॉग मुफ्त में इन्टरनेट पर बनाये जा सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि समाज में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य को होती है लेकिन कई बार उसे अभिव्यक्ति के लिए साधन नहीं मिल पाते। परन्तु वर्तमान में इन्टरनेट और ब्लॉग ने इस कमी को भलीभाँति पूरा किया है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि उसे हर कोई समझ सके।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो० हरिमोहन ने कहा कि ब्लॉग और इन्टरनेट के माध्यम से कोई भी योगदान तीव्र गति से पाठक तक पहुँच जाता है। दुनिया के सभी कोनों से हिन्दी के ब्लॉग लिखे जा रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र. में भारत अभी बहुत पीछे नज़र आता है। हमें ब्लॉग को कैसे रचनात्मक बनाया जा सकता है इसकी कोशिश करनी चाहिए। अन्त में उन्होंने अपने वक्तव्य में जोड़ते हुए कहा कि आज ब्लॉग अभिव्यक्ति का सरल और स्वतन्त्र वाहक है।
इस सत्र में डॉ० अमर नाथ ’अमर‘ की पुस्तक का विमोचन किया गया। यह टेलीविजन पर पहली पुस्तक है जो पहली बार प्रकाशित हुई है। साथ ही इस अवसर पर हिन्दी विभाग की पत्रिका ’मंथन‘ के इन्टरनेट ब्लॉक का भी विमोचन किया गया।
तीसरे सत्र की अध्यक्षता प्रो० जे० के० पुण्डीर ने की तथा संचालन डॉ० अशोक मिश्र ने किया।
संगोष्ठी के चौथे तथा समापन सत्र “विधि, बैंकिग, रेलवे, शासन-प्रशासन आदि क्षेत्रों में हिन्दी के विषय में मुख्य वक्ता प्रो० वेदप्रकाश ’वटुक‘ ने कहा कि समाज में नारियों की स्थिति बहुत ही नाजुक है। आज भी समाज नारी को पैर की जूती समझते हैं। उन्होंने अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए “An Advance Hindi Reader” पुस्तक के बारे में बताया कि पहले समय के रहन-सहन, खान-पान और वर्तमान में किस तरह के बदलाव हुए हैं। अन्त में उन्होंने कहा कि आतंकवाद का सफाया नहीं किया तो न तो हिन्दी कुछ कर सकती है और न ही साहित्य।
बैंकिग के क्षेत्र में हिन्दी प्रयोग पर बोलते हुए डॉ० राजेन्द्र सिंह ने कहा कि बैंक में आज हम हिन्दी और अँग्रेजी दोनों ही भाषाओं में कार्य करते है। बैंकिग सुविधाओं ने आज गाँव के लोगों में यदि स्थान पाया है तो हिन्दी भाषा के महत्वपूर्ण योगदान है। एस० पी० त्यागी ने कानून में हिन्दी भाषा के प्रयोग पर बोलते हुए कहा कि हर भाषा, सभ्यता का एक अलग महत्व होता है। उन्होंने बताया कि पहले न्यायालय में सभी कार्य अँग्रेजी में होता था परन्तु आज परिस्थितियाँ धीरे-धीरे बदल रही हैं, उन्होंने आगे कहा कि वर्तमान में हिन्दी का विकास तेजी से हो रहा है। मध्यप्रदेश में २० प्रतिशत निर्णय हिन्दी भाषा में देना अनिवार्य है।
कानूनी हिन्दी विकास के लिए अपने विवेक को बहुत महत्व है। आगे उन्होंने कहा कि कानून की जानकारी नहीं होने का अर्थ है कि आपका डिफेन्स नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भाषा में कानून का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है।
एस० प० त्यागी ने कहा कि गैर परम्परावादी साहित्य का सीधा संबंध साहित्य से है। हिन्दी में माँ सरस्वती का सर्वोत्तम उपहार है। उन्होंने कहा कि मातृभाषा और भाषा को समझने में काफी अन्तर है। एस० पी० त्यागी ने हिन्दी का विधि और प्रशासन में महत्व को बताते हुए कहा कि मातृभाषा का एक मूल तत्व है कि अपनी बात अपनी भाषा में अपन ढंग से कही जाये। वक्तव्य के अन्त में उन्होंने कहा कि देश का दुर्भाग्य यह है कि हमने आजादी तो प्राप्त कर लिया है पर राष्ट्रीयता अभी तक प्राप्त नहीं कर पाये हैं।
विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति माननीय प्रो० एस० वी० एस० राणा ने सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि जब हम ब्रिटेन में जाते हैं तो वहाँ हिन्दु और हिन्दी एक हो जाते हैं। उन्होंने अपने विदेश भम्रण के अनुभव अपने अध्यक्षीय भाषण में बाँटे। उन्होंने कहा कि लोक सेवा आयोग, विज्ञान आदि के प्रश्न पत्रों की भाषा माध्यम अँग्रेजी थी किन्तु अब हिन्दी में भी प्रश्नपत्र बनाये जाते हैं।
मंच का संचालन डॉ० प्रज्ञा पाठक ने किया तथा कार्यक्रम के अन्त में प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी वक्ताओं का धन्यवाद देते हुए संगोष्ठी का समापन किया।
संगोष्ठी में डॉ० सूरजपाल शर्मा, अशोक मिश्र, रवीन्द्र कुमार, राजेश, अरुण, बिल्लू, विवेक, जोगिन्दर, गजेन्द्र सिंह, अंजू, कनिका, रश्मि, अनिल, सुनील, ललित, मोनू तोमर आदि छात्र-छात्राएँ उपस्थित रहे। इस सत्र में डॉ० अमर नाथ ’अमर‘ की पुस्तक का विमोचन किया गया। यह टेलीविजन पर पहली पुस्तक है जो पहली बार प्रकाशित हुई है। साथ ही इस अवसर पर हिन्दी विभाग की पत्रिका ’मंथन‘ के इन्टरनेट ब्लॉक का भी विमोचन किया गया।
संगोष्ठी में डॉ० विरेन्द्र शर्मा, कौशल कुमार, डॉ० सूरजपाल शर्मा, डॉ० प्रज्ञा पाठक, डॉ० प्रवेश सोती, डॉ० एस० के० दत्ता, डॉ० असलम जमशेदपुरी, डॉ अशोक कुमार मिश्र, ईश्वर चन्द्र गंभीर, ज्वाला प्रसाद कौशिक, ब्रह्मप्रकाश यादव, ललित तारा, डॉ० असलम खान, कुलदीप, गजेन्द्र, ऋतु सिंह, सीमा शर्मा, दीपा, अलका, वर्षा, नीलम राठी, नीलू धामा, अंजू, संजय, विवेक, मोनू, बिल्लू, अंचल, ममता, जोगिन्द्र, राजेश ढाडा, ललित सहित विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालयों के शिक्षक, छात्र-छात्राएँ तथा साहित्यकार उपस्थित रहे।

Wednesday, November 5, 2008

वेब पर हिन्दी सेमिनार

मेरठ विश्वविद्यालय में साहित्येतर हिंदी लेखन पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी

दिनांक २९ सितंबर २००८ :
हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में आयोजित संगोष्ठी का उद्घाटन विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय प्रो. एस. के. काक और मुख्य अतिथि केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष प्रो. राम शरण जोशी ने माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलित कर किया।
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के बृहस्पति भवन में हिन्दी विभाग की ओर से आयोजित 'साहित्येतर हिन्दी लेखन` विषय पर दो दिवसीय संगोष्ठी के उद्घाटन भाषण में प्रो. राम शरण जोशी ने प्रथम सत्र 'समाज विज्ञान और हिन्दी' का विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो. राम शरण जोशी ने कहा कि हिन्दी को लेकर एक आम धारणा बन गई है कि यह केवल कविता, कहानी, उपन्यास आदि साहित्यिक विधाओं की भाषा है, इसमें ज्ञान-विज्ञान नहीं है। जबकि ऐसा नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर ही इसमें साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त भी लेखन होता रहा है। सरस्वती के संपादक और हिन्दी के उन्नायक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सम्पत्ति शस्त्र पर एक किताब लिखी थी। इसके बाद हंस, प्रताप, दिनमान, दैनिक हिन्दुस्तान व धर्मयुग आदि पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञान के विषयों पर अनेक लेख लिखे गए। इस समय लघु पत्रिकाओं में साहित्येतर विषयों पर काफी सामग्री प्रकाशित की जा रही है, इससे मौलिक लेखकों को प्रोत्साहन मिल रहा है। आज मीडिया को लेकर मौलिक लेखन हाथों हाथ बिक रहा है।
अध्यक्षीय वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कुलपति माननीय प्रो. एस. के. काक ने कहा कि हिन्दी में विज्ञान, तकनीक, इलैक्ट्रोनिक्स आदि विषयों में भी लिखना होगा। काशी हिन्दी वि.वि. में १९८० से विज्ञान विषय के शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा रहे हैं। यहाँ भी हमें इसी प्रकार का प्रयास करना चाहिए। हमारी कोशिश हो कि हिन्दी का विकास सिर्फ़ भारत में ही नहीं वरन् पूरी दुनिया में होना चाहिए।
संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए प्रो० कमल नयन काबरा ने कहा खुद को आम आदमी से जोड़े बिना कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती। हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि हम अपना काम अपनी भाषा में क्यों नहीं करते। हमें जनता के सरोंकारों को समझना होगा। ऐसा कोई भी विषय नहीं है चाहे वह समाज विज्ञान हो या प्राकृतिक विज्ञान उसके सार तत्व को हिन्दी के माध्यम से समझाया जा सकता है उन्होंने कहा कि आज के दौर में हमारे देष में वैज्ञानिक परिवर्तन तो आया है लेकिन मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ। हम आज भी उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं और अंग्रेजी में लिखने बोलने को लेकर श्रेष्ठता ग्रंथि से पीड़ित सामायिक वार्ता के संपादक डॉ. प्रेम सिंह ने कहा कि हिन्दी में जो भी साहित्य लिखा जा रहा है वह तो मान्यता प्राप्त करता गया परंतु साहित्येतर लेखन आलोचकों ने गंभीरता से नहीं लिया। इससे हिन्दी का नुकसान हुआ।
कार्यक्रम में प्रो. अर्चना शर्मा ने कहा कि राजनीति विज्ञान सहित समाज विज्ञान के विषयों में महत्वपूर्ण लेखन जो हो रहा है इस अवसर पर वक्ताओं के अतिरिक्त डॉ. एस. के. कालरा, डॉ. गुरमीत सिंह, डॉ. अशोक कुमार, वेदप्रकाश 'वटुक' तथा साधक कौशिक ने भी विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का संचालन हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी ने किया। इस अवसर पर डॉ. नवीन चन्द्र लोहनी द्वारा लिखित खड़ी बोली के प्रमुख रचनाकार तथा रचनाएँ (सन्दर्भ मेरठ मण्डल) पुस्तक का विमोचन किया गया।
संगोष्ठी का द्वितीय सत्र 'विज्ञान और हिन्दी' पर केन्द्रित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता भारत के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष प्रो. के. विजयकुमार और संचालन प्रो. वाई. विमला ने किया। सत्र के अध्यक्ष के. विजय कुमार ने कहा कि लोगों में एक भ्रांत धारणा विद्यमान है कि हम सोचते किसी और भाषा में हैं और बोलते हैं दुसरी भाषा में। ऐसा नहीं है अपने आसपास के वातावरण से जो कुछ हम सीखते हैं उसे ही बोलते हैं। हिन्दी में तकनीकी शब्दावली बहुत कठिन नहीं है। हमें धीरे-धीरे अंग्रेजी को हटाने और हिन्दी को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। प्रो. के. विजय कुमार ने कहा कि भाषाओं के विकास में हमें यह ध्यान ज़रूर देना है कि सभी चीज़ें भाषा की प्रकृति के अनुसार तैयार हों। जब तक हम किसी शब्द के परिवेष को नहीं जानते तब तक उसके बारे में अभिव्यक्ति तैयार करना उचित नहीं होता। उन्होंने कई उदाहरण देकर अपने विषय को रखा और दावा किया कि भारतीय भाषाएँ और हिन्दी का विकास तीव्रता से हो रहा है।
इस सत्र का विषय प्रवर्तन करते हुए मुख्य अतिथि नारायण कुमार ने कहा कि आधुनिक भारत के निर्माण में बौद्धिक, सांस्कृतिक और वैचारिक विकास की उपेक्षा कर सिर्फ़ आर्थिक विकास पर ज़ोर दिया गया, इसका खामियाजा हमें बाद में भुगतना पड़ा। अंग्रेज़ी आज विज्ञान की भाषा बनी हुई है। उन्होंने कहा कि जब तक हम अपनी मातृभाषा में अध्ययन नहीं करते तो वैश्विक स्तर पर मौलिक अनुसंधान नहीं पाएँगे। बिना भारतीय भाषा में ज्ञान-विज्ञान के विकास के हम अपने देश का विकास नहीं कर सकते। उन्होंने बताया कि तकनीकी शब्दावली आयोग ने सरल शब्दों का निर्माण किया ताकि हिन्दी में भी विज्ञान लेखन किया जा सके।
लेखन के लिए कई वैज्ञानिक पुरस्कारों से पुरस्कृति सुभाष चन्दर ने कहा कि आज विज्ञान लेखन में रोज़गार की व्यापक संभावनाएँ है। हिन्दी के छात्र-छात्राओं को विज्ञान लेखन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए जिसमें रोज़गार की प्रयाप्त संभावना है।
वैज्ञानिक विपिन शुक्ला ने कहा कि आने वाला समय हिन्दी का होगा। देश में केवल ५ प्रतिशत लोगों को ही अंग्रेज़ी की समझ है। बाकी लोग हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में सोचते व बोलते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्छी में विज्ञान के क्षेत्र में काफी काम हुआ है और हमें उसका उपयोग करना चाहिए। उन्होंने खुशी जताई कि हिन्दी में पर्याप्त वैज्ञानिक लेखन हो रहा है लेकिन इससे संतुष्ट होने की बात नहीं है।
विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के तकनीकी बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ. शिशिर गोयल ने बताया कि आज हिन्दी में काफी विज्ञान लेखन किया जा रहा है। आज के बाज़ारीकरण के दौर में जो चीज़ बिकती है उसका प्रचार होने लगता है। देश की ८० प्रतिशत जनता हिन्दी भाषा को समझती है। अत: इसी भाषा में विज्ञान लेखन करना चाहिए। उन्होंने ज़ोर दिया कि हिन्दी को रोज़गार और बाज़ार की भाषा बनाना चाहिए।
दिनांक ३० सितम्बर २००८
भविष्य की हिन्दी ब्लॉग और इन्टरनेट के माध्यम से अपनी पहचान बना रही है। यह विचार प्रो. हरिमोहन ने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी 'साहित्येतर हिन्दी लेखन' दूसरे दिन 'सूचना प्रौद्योगिकी एवं मीडिया में हिन्दी' नामक तृतीय सत्र में कहे।कार्यक्रम में हिन्दी विभाग द्वारा प्रकाशित विभागीय पत्रिका 'मंथन' के इन्टरनेट संस्करण (ब्लॉग) का विमोचन किया गया। 'सूचना प्रौद्योगिकी एवं मीडिया में हिन्दी' विषय पर बोलते हुए दूरदर्शन से आए डॉ. अमरनाथ 'अमर' ने कहा कि दूरदर्शन अपनी स्थापना से अब तक व्यापक रूप धारण कर लिया है। उन्होंने कहा कि दूरदर्शन सदैव साहित्यिक गतिविधियों में अग्रणी रहा है और भविष्य में भी यह साहित्य और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम दर्शकों तक पहुँचाता रहेगा।
उपेन्द्र सिंह ने अपनी वक्तव्य में कहा कि हम यह मानकर नहीं चल सकते की हिन्दी की चुनौतियाँ खत्म हो गई है। बल्कि इसके प्रचार-प्रसार से हिन्दी की चुनौतियाँ और बढ़ गई हैं। हिन्दी की विदेशी दूतावासों में अपनी अलग पहचान है। वहाँ कई दूतावासों से हिन्दी-पत्रिका भी प्रकाशित होती हैं। जिन्हें मीडिया द्वारा भी पूरा सहयोग मिलता है।
डॉ. स्वतन्त्र कुमार जैन ने कहा कि हिन्दी संचार की भाषा है और मीडिया में हिन्दी भाषी अखबारों की बहुत महत्ता होती है। आप व्यवसाय कुछ भी हो लेकिन आधार हिन्दी ही होना चाहिए। हमें हिन्दी दिवस को ज्ञान दिवस के रूप में मनाना चाहिए। श्री अनिल जोशी ने प्रो. लोहनी को आयोजन की बधाई देतु हुए बताया कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य को होती है लेकिन कई बार उसे अभिव्यक्ति के लिए साधन नहीं मिल पाते। परन्तु वर्तमान में इन्टरनेट और ब्लॉग ने इस कमी को भलीभांति पूरा किया है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि उसे हर कोई समझ सके।
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो. हरिमोहन ने कहा कि ब्लॉग और इन्टरनेट के माध्यम से कोई भी योगदान तीव्र गति से पाठक तक पहुँच जाता है। ब्लॉग को कैसे रचनात्मक बनाया जा सकता है इसकी कोशिश करनी चाहिए। अन्त में उन्होंने अपने वक्तव्य में जोड़ते हुए कहा कि आज ब्लॉग अभिव्यक्ति का सरल और स्वतन्त्र वाहक है।इस सत्र में डॉ. अमर नाथ 'अमर' की पुस्तक का विमोचन किया गया। यह टेलीविजन पर पहली पुस्तक है इस अवसर पर हिन्दी विभाग की पत्रिका 'मंथन' के इन्टरनेट ब्लॉक का भी विमोचन किया गया। तीसरे सत्र की अध्यक्षता प्रो. जे. के. पुंडीर ने की तथा संचालन डॉ. अशोक मिश्र ने किया।
संगोष्ठी के चौथे तथा समापन सत्र 'विधि, बैंकिग, रेलवे, शासन-प्रशासन आदि क्षेत्रों में हिन्दी के विषय में मुख्य वक्ता प्रो० वेदप्रकाश 'वटुक' समाज परिवार और आतंकवाद पर अपने विचार प्रकट किए।
बैंकिग के क्षेत्र में हिन्दी प्रयोग पर बोलते हुए डॉ. राजेन्द्र सिंह ने कहा कि बैंक में आज हम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में कार्य करते है। बैंकिग सुविधाओं ने आज गाँव के लोगों में यदि स्थान पाया है तो हिन्दी भाषा के महत्वपूर्ण योगदान है। एस. पी. त्यागी ने कानून में हिन्दी भाषा के प्रयोग पर बोलते हुए कहा कि हर भाषा, सभ्यता का एक अलग महत्व होता है। उन्होंने बताया कि पहले न्यायालय में सभी कार्य अंग्रेज़ी में होता था परन्तु आज परिस्थितियाँ धीरे-धीरे बदल रही हैं, उन्होंने आगे कहा कि वर्तमान में हिन्दी का विकास तेज़ी से हो रहा है। मध्यप्रदेश में २० प्रतिशत निर्णय हिन्दी भाषा में देना अनिवार्य है।
कानूनी हिन्दी विकास के लिए अपने विवेक को बहुत महत्व है। आगे उन्होंने कहा कि कानून की जानकारी नहीं होने का अर्थ है कि आपकी सुरक्षा नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भाषा में कानून का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। उन्होंने कहा कि देश का दुर्भाग्य यह है कि हमने आज़ादी तो प्राप्त कर लिया है पर राष्ट्रीयता अभी तक प्राप्त नहीं कर पाये हैं।
विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति माननीय प्रो. एस. वी. एस. राणा ने सत्र की अध्यक्षता करते हुए कहा कि जब हम ब्रिटेन में जाते हैं तो वहाँ हिन्दू और हिन्दी एक हो जाते हैं। उन्होंने अपने विदेश भ्रमण के अनुभव अपने अध्यक्षीय भाषण में बाटें। उन्होंने कहा कि लोक सेवा आयोग, विज्ञान आदि के प्रश्न पत्रों की भाषा माध्यम अंग्रेज़ी थी किन्तु अब हिन्दी में भी प्रश्नपत्र बनाए जाते हैं। मंच का संचालन डॉ. प्रज्ञा पाठक ने किया तथा कार्यक्रम के अन्त में प्रो. नवीन चन्द्र लोहानी ने सभी वक्ताओं का धन्यवाद देते हुए संगोष्ठी का समापन किया। संगोष्ठी में डॉ. अमर नाथ 'अमर' की पुस्तक का विमोचन किया गया। यह टेलीविजन पर पहली पुस्तक है जो पहली बार प्रकाशित हुई है। साथ ही इस अवसर पर हिन्दी विभाग की पत्रिका 'मंथन' के इन्टरनेट ब्लॉग का भी विमोचन किया गया। संगोष्ठी में विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालयों के शिक्षक, छात्र-छात्राएँ तथा साहित्यकार उपस्थित रहे।
( साभार - http://www.abhivyakti-hindi.org २७ सितम्बर २००८)

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